नोटबन्दी का एक वर्ष पूरा होने को लेकर सरकार और विपक्ष आपस में बुरी तरह उलझ गये हैं। सत्ताधारी पार्टी भाजपा विगत वर्ष 8 नवम्बर की रात्रि आठ बजे किये गये इस फैसले को पूरी तरह सफल बता रही है जबकि प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस व अन्य दल इसे पूर्णतः असफल बताकर काला दिवस मना रहे हैं। वास्तविकता यह है कि अगर नोटबन्दी को किसी ने सफल बनाया तो वह आम जनता ही थी और अगर किसी ने इसकी असफलता का परिणाम भुगता तो वह भी आम जनता ही थी। भाजपा तर्क दे रही है कि नोटबन्दी के बाद देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए जिनमें उत्तर प्रदेश सबसे बड़ा राज्य था। इस राज्य में उसे तीन–चौथाई बहुमत प्राप्त हुआ और पड़ोसी राज्य उत्तराखंड में भी वह दो-तिहाई बहुमत के करीब रही जबकि कांग्रेस कह रही है कि अन्य तीन राज्यों तीन पंजाब, गोवा व मणिपुर में इस पार्टी को भाजपा से ज्यादा सीटें मिलीं और पंजाब में उसकी विजय उत्तराखंड जैसी ही धमाकेदार रही और यह दो-तिहाई बहुमत के करीब रही।
जाहिर तौर पर नोटबन्दी पूरे देश में एक साथ हुई थी और सभी राज्यों में एक साथ लागू हुई थी मगर इसका असर अलग–अलग क्यों रहा ? जाहिर है कि नोटबन्दी जैसे विशुद्ध आर्थिक फैसले का पैमाना राज्यों के चुनाव परिणाम नहीं हो सकते क्योंकि प्रत्येक राज्य की राजनितिक परिस्थितियां अलग– अलग होती हैं और चुनावी मुद्दे भी प्रायः भिन्न ही होते हैं मगर इस हकीकत से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि नोटबन्दी का सामाजिक पक्ष भी था और जिस राज्य में इस पक्ष का आर्थिक समीकरणों से घालमेल रहा वहां भाजपा की जबर्दस्त विजय हुई लेकिन इसके बावजूद चुनावी विजय के आधार पर नोटबन्दी की सफलता या असफलता का फैसला करना तर्कसंगत नहीं हो सकता क्योंकि इसका उनके आर्थिक जीवन में बदलाव से कोई लेना–देना नहीं है मगर इतना जरूर माना जा सकता है कि इस फैसले से लोगों को बेहतरी की अपेक्षाएं जरूर थीं और यह बेहतरी उनके सामाजिक पक्ष को भी प्रभावित करतीं वरना भारत जैसे विशाल देश में यह कभी संभव नहीं हो सकता था कि सरकार के कहने पर आम लोग लगातार पचास दिनों तक लम्बी–लम्बी लाइनों में लगकर कष्ट सहते हुए अपने पुराने नोट बदलवाते और कम किश्ती में गुजारा करते हुए ईमानदारी के पुरस्कृत होने की अपेक्षा करते।
सवाल यही है कि क्या उनकी यह अपेक्षा एक साल गुजरने के बाद पूरी हुई? इसी मुद्दे पर सरकार और विपक्ष में तकरार है और वह पूरी तरह जायज कही जा सकती है क्योंकि लोकतन्त्र में सरकार की नीतियों की समीक्षा करने का विपक्ष को पूरा अधिकार होता है और लोगों को इसके गुण–दोष बताने का हक भी होता है। दूसरी तरफ सरकार का भी यह हक होता है कि वह अपनी नीतियों के सकारात्मक तत्वों पर जनता का ध्यान खींचे और बताये कि उसके फैसले से सामान्यजन का जीवन बेहतर होने का रास्ता निकल रहा है। यह पूरी सत्यनिष्ठा के साथ कहा जा सकता है कि प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी के नोटबन्दी के फैसले में आम आदमी को यह विश्वास दिलाने का भरोसा छुपा हुआ था कि अवैध तरीकों से धन जमा करने वालों को सरकार किसी भी तरह बख्शने की मुद्रा में नहीं है। एकबारगी वह जमा धन का हिसाब–किताब इस प्रकार लेना चाहती है जिससे यह पता लग सके कि किसके पास कितना कालाधन है और किसका धंधा कितना सफेद है। इसका प्रभाव अर्थव्यवस्था पर विपरीत रूप से न पड़ सके, इसके लिए सरकार ने बैंकिंग व्यवस्था से अधिकतम भारतीयों को जोड़ने की व्यवस्था पहले से ही की। जन-धन खातों के माध्यम से गरीब से गरीब आदमी को बैंक से जोड़ा।
नोटबन्दी के चालू रहते क्रमवार पुरानी मुद्रा के स्थान पर नई मुद्रा छापकर बाजार में लानी शुरू की और लोगों से कहा कि वे अपना अधिकतम लेन–देन इलैक्ट्रानिक माध्यम से करें और अपने बैंकखातों के साथ इसे नत्थी करें। यह पारदर्शी आर्थिक प्रणाली विकसित करने की तरफ कदम था, लेकिन कांग्रेस का तर्क है कि नोटबन्दी का फैसला बिना गूढ़ विचार किये हुए लिया गया और यह नहीं सोचा गया कि इसका असर भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था और छोटे उद्योगों पर क्या पड़ेगा। पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने इसे संगठित लूट और कानूनी डाकेजनी तक बताकर कहा कि इससे अर्थव्यवस्था को भारी नुक्सान होगा और सकल विकास वृद्धि दर में दो प्रतिशत तक की गिरावट आएगी और रोजगार में जबर्दस्त कमी आयेगी। यह भी तर्क दिया जा रहा है कि सरकार ने कालेधन को समाप्त करने के लिए जब एक हजार और पांच सौ रुपए के पुराने नोट बन्द किये तो दो हजार रुपए के नये नोट क्यों जारी किये? ये सब पेचीदा सवाल उठते रहेंगे और सरकार व विपक्ष इन पर उलझते रहेंगे मगर असल सवाल उस जनता का है जिसने नोटबन्दी को श्री मोदी की नेकनीयती माना था। अतः अन्तिम फैसला भी इसी जनता पर छोड़ देना बेहतर होगा। लोकतन्त्र में अन्तिम विजय तो जनता की ही होती है।