अयोध्या में श्रीराम मन्दिर निर्माण को लेकर जिस तरह का निरर्थक विवाद खड़ा करने की कोशिश की जा रही है उसका लक्ष्य 2019 के लोकसभा चुनाव हैं। सबसे आश्चर्यजनक प्रसंग यह है कि कुछ हिन्दू साधु-सन्त सरकार को धमकी दे रहे हैं कि यदि मन्दिर निर्माण नहीं कराया गया तो चुनावों में भाजपा की जीत नहीं होगी। यह श्रीराम के नाम पर आम भारतीय नागरिक को भ्रम में डालने का सोचा-समझा प्रयास है क्योंकि भारतीय लोकतान्त्रिक प्रशासन प्रणाली के तहत कोई भी सरकार किसी भी धार्मिक स्थल का निर्माण नहीं करा सकती है। मन्दिर, मस्जिद या गुरुद्वारे बनाने का काम सामाजिक व धार्मिक संस्थाओं का होता है, सरकारों का नहीं। सरकार का काम केवल धार्मिक सौहार्द बनाये रखने व सभी धर्मों का समान आदर करने का होता है।
सरकार की आस्था केवल भारत के संविधान में होती है और शासन चलाने वालों का धर्म भी यही होता है। उनकी निजी पहचान हिन्दू या मुसलमान के रूप में हो सकती है मगर इससे सरकार के कामकाज में धर्म का दखल नहीं हो सकता। अयोध्या में श्रीराम जन्म स्थल पर मन्दिर निर्माण के पीछे तर्क दिया जाता है कि यह हिन्दुआें की आस्था का सवाल है। आस्था का जन्म उस अस्तित्व बोध से होता है जो सांस्कृतिक विरासत के रूप में आगे आने वाली पीढि़यों को मिलती रहती है परन्तु इसमें समयकाल और परिस्थिति के अनुसार लगातार संशोधन भी होता रहता है परन्तु यह संशोधन प्रगतिशील होता है, रूढि़वादी नहीं। भारत ने स्वतन्त्रता के बाद जिस धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्त को अपना कर अपने विकास का सफर शुरू किया उसकी पहली शर्त यही थी कि इस देश के नागरिक उन अन्ध विश्वासों को ताक पर रखकर बहुधर्मी समाज की संरचना वैज्ञानिक नजरिये से करेंगे, जो उन्हें आपस में एक-दूसरे के विरोध में खड़ा करती है। इसके लिए संविधान निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर ने प्रावधान किया कि सरकार लोगों में वैज्ञानिक दृष्टि पैदा करने की कोशिश करेगी मगर उन्होंने प्रत्येक नागरिक को निजी धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार भी दिया। इसका मतलब साफ था कि कोई भी समाज गोलबन्द होकर किसी दूसरे नागरिक को अपनी आस्था के अनुसार स्थापित मान्यता को मानने के लिए मजबूर नहीं कर सकता।
आस्था का विस्तार किसी भी सूरत में अन्धविश्वास के रूप में नहीं हो सकता किन्तु श्रीराम मन्दिर निर्माण का मामला अन्धविश्वास का बिल्कुल नहीं है बल्कि सांस्कृतिक सन्दर्भों में एेतिहासिक पुट लिए हुए है लेकिन इसकी व्याख्या जो लोग दासता के प्रतीक के रूप में करने की कोशिश करते हैं उन्हें इतिहास का रत्ती भर भी ज्ञान नहीं है। इतिहास उन अवशेषों को छोड़कर आगे बढ़ता रहता है जो किसी भी समाज के विकास की प्रकिया की गाथा होते हैं। कालखंड के अवशेषों से जो समाज चिपका रहता है वह कभी आगे नहीं बढ़ सकता। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण पाकिस्तान है जहां के नागरिकों को विकास के नाम पर मजहबी तोहफे पकड़ा दिए जाते हैं परन्तु भारत स्वतन्त्रता के बाद आैर खासतौर पर मोदी जी के पिछले चार साल के शासन के दौरान से ही उन ऊंचाइयों की तरफ बढ़ चला है जहां प्रत्येक नागरिक को अपनी योग्यतानुसार बिना किसी धार्मिक भेदभाव के विकास व प्रगति करने का संवैधानिक अधिकार मिला हुआ है। इसकी राष्ट्रीय चेतना का आधार प्रतीकों के सहारे भौतिक व वैज्ञानिक विकास को परे धकेलने का कभी नहीं रहा। यही वजह है कि अयोध्या में श्रीराम जन्म स्थान का मसला देश के सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है।
पूरे देश की जनता का न्यायपालिका में अटूट विश्वास है और उसे यकीन है कि इस सबसे बड़ी अदालत में बैठे न्यायमूर्ति जो भी अन्तिम फैसला देंगे उससे अयोध्या विवाद सदा-सदा के लिए समाप्त हो जाएगा मगर बीच-बीच में आम जनता को गफलत में डालने के लिए एेसे वक्तव्य आते रहते हैं जिनमें न्यायपालिका की भूमिका को दरकिनार करने की कोशिश की जाती है। एक श्री श्री रविशंकर तो न जाने कहां से पैदा होकर खुद ही महान्यायाधीश बनने चले थे और राम मन्दिर निर्माण के मामले में आम सहमति बना रहे थे और कह रहे थे कि अगर इस समस्या का हल न निकला तो भारत में सीरिया जैसे हालात पैदा हो सकते हैं ! मगर इन महाशय को भारत के लोगों की तबीयत के बारे में जरा भी ज्ञान नहीं था, अगर होता तो वह सर्वोच्च न्यायालय का वास्ता देकर हिन्दू-मुसलमानों में यकीन जताते कि भारत संविधान से चलने वाला एेसा देश है जिसकी कायल पूरी व्यवस्था है। असल में गौर से देखा जाए तो इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लकनऊ पीठ इसका फैसला पहले ही सुना चुकी है जिसने अयोध्या के विवादास्पद स्थल को तीन भागों में बांटकर दो हिस्से हिन्दुओं के स्वामित्व वाले संस्थानों को व एक हिस्सा बाबरी ढांचे का स्वामित्व वाली मुस्लिम संस्था को दे दिया था। इस फैसले को ही सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने राम जन्म स्थान पर भगवान राम की शिशु रूप में उपस्थिति स्वीकार करते हुए ही इसे जन्म स्थान करार दिया है और दूसरा हिस्सा निर्मोही अखाड़े को दिया है। अतः न्यायिक हल तो पहले से ही मौजूद है। यदि इस हल के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील की गई है तो दोनों पक्षों को एेसे सबूत पेश करने पड़ेंगे जो उनके दावे को सच्चा साबित करें। आखिरकार श्रीराम जन्म भूमि विवाद है तो मूल रूप से भूमि विवाद ही। मगर जब खेतों में किसान काम करता है तो जमीन उसके हिन्दू-मुसलमान के आधार पर अपनी उपज तय नहीं करती है बल्कि जरूरी खाद-पानी के आधार पर तय करती है। अतः राजनीति स्वयमेव रूप से लोगों को अपनी मूल समस्याओं के प्रति जागरूक बना देती है। साधु-संतों को तो गोस्वामी तुसलीदास की उस उक्ति का ध्यान हमेशा रखना चाहिए जो उन्होंने शहंशाह अकबर के बुलावे पर कही थी कि- ‘‘माेको कहा सीकरी सो काम।’’