लोकसभा चुनाव 2024

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संसद का मानसून सत्र

आज से संसद का वर्षाकालीन (मानसून) संक्षिप्त सत्र शुरू हो रहा है जिसमें सरकारी कामकाज के अलावा ज्वलन्त मुद्दों पर विचार-विमर्श स्वाभाविक रूप से होगा।

आज से संसद का वर्षाकालीन (मानसून) संक्षिप्त सत्र शुरू हो रहा है जिसमें सरकारी कामकाज के अलावा ज्वलन्त मुद्दों पर विचार-विमर्श स्वाभाविक रूप से होगा। भारत की संसदीय प्रणाली ऐसी  अनूठी प्रणाली है जिसमे संसद परिसर में लोकसभा अध्यक्ष अध्यक्ष का प्रशासन चलाता है, सरकार और सत्ता के सभी संस्थान केवल उनके फैसलों क लागू करने में मदद करते हैं। ऐसा  इसलिए होता है क्योंकि अध्यक्ष की सत्ता सरकार के निरपेक्ष होती है। संसद परिसर में सामान्य व्यवस्था से लेकर लोकसभा के भीतर के तन्त्र के अध्यक्ष संरक्षक होते हैं। सदन के भीतर सत्ता पक्ष और विपक्ष उनके लिए एक समान होते हैं परन्तु संसद पर पहला अधिकार विपक्ष का ही माना जाता है क्योंकि विपक्षी सांसद बेशक अल्पमत में होते हैं मगर उन्हें भी वही आमजन चुन कर भेजते हैं जो सत्ता पक्ष के सदस्यों को चुन कर भेजते हैं अतः सत्ता पक्ष सदन के भीतर सीधे विपक्ष के प्रति जवाबदेह बन जाता है और उसके माध्यम से आम जनता के प्रति। इसका मूल कारण यह है कि भारत में जो चुनाव प्रणाली है वह चुनाव में बहुसंख्या में खड़े प्रत्याशियों के बीच में सर्वाधिक मत प्राप्त करने वाले प्रत्याशी के चुने जाने की है जिसकी वजह से सत्तारूढ़ पार्टी के अकेले प्रत्याशी के मुकाबले विपक्ष के कई प्रत्याशियों के खड़े होने की वजह से चुनावों में विपक्षी दलों के विभिन्न उम्मीदवारों को मिले कुल वोट अधिक हो सकते हैं मगर एकल रूप से सत्तारूढ़ प्रत्याशी के सर्वाधिक वोट होने की वजह से विजयश्री उसे ही वरण करती है। अतः हमारे पुरखों ने जो संसदीय प्रणाली हमारे हाथ में सौपी उसमें लोकसभा अध्यक्ष एवं राज्यसभा के उप-सभापति को सरकार से निरपेक्ष रखते हुए उनकी स्वतन्त्र सत्ता को इस प्रकार निरूपित किया कि ये सदनों के भीतर विपक्ष की आवाज को किसी भी प्रकार के दबाव में न आने दें। इसके लिए सांसदों के विशेषाधिकार नियत किये गये और यह तय किया गया कि वे बिना किसी ‘खौफ-ओ-खतर’ के अपनी बात संसद के भीतर कह सकें। उनके सदनों के भीतर दिये गये बयानों को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।
लोकसभा सांसदों द्वारा सदन के भीतर दिये गये बयान की समीक्षा करने का अधिकार केवल अध्यक्ष को ही है। परन्तु हम देख रहे हैं कि सत्र शुरू होने से पहले विपक्ष यह शोर मचा रहा है कि कुछ विशिष्ट शब्दों को ‘असंसदीय’ की श्रेणी में रख कर उनके विचारों पर लगाम लगाने की कोशिश की जा रही है। बेशक राज्यसभा सचिवालय की ओर से कुछ शब्दों को असंसदीय की श्रेणी में डाला गया है परन्तु इसका मतलब यह कतई नहीं है कि सांसद इन शब्दों का प्रयोग सदनों के भीतर नहीं कर सकते हैं। मगर इसके साथ यह भी सत्य है कि लोकसभा अध्यक्ष यदि यह सोचते हैं कि ‘भ्रष्टाचार’ या ‘धोखा देना’ जैसे शब्द ‘असंसदीय’  हैं तो उसे भी कोई चुनौती नहीं दे सकता। 
बात बहुत स्पष्ट है कि सांसद अपने विचारों को प्रकट करने के लिए जिस भी मान्य भाषा या शब्दों का प्रयोग करना चाहें तो कर सकते हैं क्योंकि यह उनका विशेषाधिकार है और अध्यक्ष जिस भी शब्द को चाहें असंसदीय कह कर कार्यवाही से निकाल सकते हैं, यह उनका अधिकार है।  आखिरकार ‘झूठ शब्द भी तो असंसदीय है मगर सांसद इसका इस्तेमाल करते हैं जिसे वक्तव्य की समीक्षा करने के बाद अध्यक्ष कार्यवाही से निकाल देते हैं। यही वजह रही कि इस मुद्दे पर लोकसभा अध्यक्ष श्री ओम बिरला ने दो बार स्पष्टीकरण प्रेस कान्फ्रेंस आयोजित करके दिया। संसद की कार्यवाही चलाने की अपनी नियमावली है और उससे अध्यक्ष हट नहीं सकते हैं। 
यह बात दूसरी है कि किस मुद्दे पर वह सख्त रुख अपनाते हैं और किस मुद्दे पर नरम। मगर सरकार का इससे कोई लेना-देना नहीं रहता है। सदन के भीतर अध्यक्ष की तो यह ताकत है कि वह चाहें तो सरकार को भी लताड़ सकते हैं और विपक्ष को भी खरी-खोटी सुना सकते हैं। दूसरा मुद्दा संसद परिसर में धरना व प्रदर्शन को लेकर उठा है। इस मामले में भी सभी सांसदों को सूचित किया गया है कि वे संसद परिसर में किसी प्रकार का धरना-प्रदर्शन आयोजित नहीं कर सकते। इसमें भी ज्यादा उत्तेजित होने की जरूरत नहीं है क्योंकि संसद परिसर धरना-प्रदर्शनों के लिए निश्चित रूप से नहीं है। परन्तु हम देखते हैं कि संसद परिसर मे विभिन्न राजनीतिक दलों के सांसदों द्वारा एसी गतिविधियां होती रहती हैं। सरकार की नीतियों के खिलाफ रोष प्रकट करने का यदि यह तरीका है तो सदनों के भीतर सांसदों की भूमिका क्या रह जायेगी? बिना शक संसद परिसर में ऐसी गतिविधियां सांसद कई दशकों से करते आ रहे हैं परन्तु लोकसभा अध्य.क्ष के अधिकारों की अनदेखी भी कैसे की जा सकती है। यदि उन्हें लगता है कि संसद परिसर में ऐसी  गतिविधियों से भारत के लोकतन्त्र की प्रतिष्ठा और सांसदों का सम्मान गिर रहा है तो उन्हें समुचित कार्रवाई करने से नहीं रोका जा सकता। इसमें भी सरकार कहीं नहीं आती है। परन्तु लोकतान्त्रिक परम्पराओं के अनुसार सरकार बिना विपक्ष के सहयोग के संसदीय प्रणाली को सुचारू नहीं बनाये रख सकती। अतः ऐसे  मामलों पर सर्वदलीय बैठक बुला कर सर्वसम्मति से फैसला होना चाहिए क्योंकि लोकतन्त्र में राजनीतिक दल सत्तारूढ़ से विपक्षी दल और विपक्षी दल से सत्तारूढ़ दल बनते रहते हैं। अतः अपेक्षा की जानी चाहिए कि संसद के वर्षाकालीन सत्र में दोनों ही ओर से सकारात्मक राजनीति की जायेगी।

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