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म.प्र. : जीजा जी छत पर हैं !

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देश के महत्वपूर्ण राज्य मध्यप्रदेश में अब चुनावी बुखार सिर चढ़कर बोलता नजर आ रहा है। राज्य मेें पिछले 15 वर्षों से भाजपा की सरकार का शासन आगामी 28 नवम्बर को लोकतन्त्र की उस अग्नि परीक्षा से गुजरने जा रहा है जो इस प्रणाली में जनता को सरकार का मालिक बनाती है और अपने एक वोट के अधिकार का प्रयोग करके आम मतदाता सत्ता का फैसला करके बड़े-बड़े राजनीतिक मठाधीशों के होश उड़ा देता है। पिछले 13 साल से श्री शिवराज सिंह चौहान इस राज्य के मुख्यमंत्री पद पर विराजमान हैं और भाजपा ने उनके ही नेतृत्व में यह चुनाव लड़ने का फैसला किया है अतः यह उनके राजनीतिक भविष्य का भी सवाल है मगर जिस तरह राज्य की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने अपने कद्दावर नेता श्री कमलनाथ को उतार कर शिवराज सिंह के समक्ष चुनौती फैंकी है उसने राज्य के लोगों में विकास व प्रगति की वह महत्वाकांक्षा जगा दी है जिससे यह राज्य सभी प्रकार के प्राकृतिक व औद्योगिक साधन होने के बावजूद पिछड़ा न कहा जा सके और यहां के युवा पड़ोस के ही महाराष्ट्र राज्य के मुकाबले किसी भी क्षेत्र में पीछे न कहे जा सकें।

श्री कमलनाथ की प्रारम्भिक सफलता इसी तथ्य से स्पष्ट है कि उन्होंने मध्यप्रदेश के चुनावों के लिए एजैंडा तय करने में सफलता हासिल कर ली है। यह एजैंडा सामाजिक व आर्थिक समस्याओं को केन्द्र में रखकर राज्य की जनता के सामने इस तरह रखा जा रहा है कि बेरोजगारी से लेकर कृषि व किसान जगत की समस्याओं के साथ ही शिक्षा व स्वास्थ्य के मुद्दे गरमाने लगे हैं। बिजली-पानी के मुद्दों की बात को भी यदि दरकिनार कर दिया जाए तो मध्यप्रदेश में सबसे बड़ी समस्या बन्द पड़े कल कारखानों और औद्योगिक इकाइयों की है अतः हवा का रुख जिस तरह चलना शुरू हुआ है उसे देखते हुए अन्य सभी भावुक या धार्मिक पहचान वाले मुद्दे हाशिये पर पड़ते दिखाई दे रहे हैं। लोकतन्त्र की राजनीति में इन्हीं मसलों का सबसे अधिक महत्व होता है जब जनता पांच साल बाद अपनी चुनी हुई सरकार से हिसाब-किताब मांगती है। अतः यह बेवजह नहीं है कि श्री शिवराज सिंह के सगे साले संजय सिंह मसानी ने मतदान से 24 दिन पहले अपने जीजा का साथ छोड़ कर कांग्रेस का दामन थामने में भलाई समझी। वैसे हम अयोध्या में जिस राम मन्दिर निर्माण के लिए अचानक तेवर तीखे करते हुए राजनीति को दिशा देना चाहते हैं उसी से निकला हुआ यह लोकसूत्र है कि ‘घर का भेदी लंका ढहाये’ इसके बावजूद राजनीति में किसी एक लोकोक्ति के सहारे अंतिम निर्णय पर पहुंचना मूर्खता ही कही जाएगी परन्तु इतना जरूर है कि एेसी घटनाएं या वारदात फिजां में एेसा रंग जरूर भर देती हैं जिसे ‘नजारा’ कहा जाता है।

मध्यप्रदेश का ‘नजारा’ यह है कि असली लड़ाई ‘सपने’ और ‘हकीकत’ में आकर सिमटती सी दिखाई पड़ रही है। राज्य में पिछले 15 वर्षों में जो विकास हुआ है उसकी अनदेखी करना भी उचित नहीं है मगर इसका ढिंढोरा जिस तरह कागजों और प्रचार माध्यम के जरिये पीटा गया है उसका अक्स जमीन पर उतरते-उतरते भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद की भेंट चढ़ गया है। भ्रष्टाचार भी इस राज्य का प्रमुख चुनावी मुद्दा है क्योंकि शिवराज सरकार ने जो भी योजनाएं किसानों को उनकी उपज का समुचित मूल्य देने के लिए बनाईं उन सभी का फायदा वे बिचौलिये मुनाफाखोर धनपति उठा ले गए जिनका किसानों के साथ सीधा सम्पर्क था और उनकी उपज को खरीदने का वे जरिया बनाए गए थे। इसी प्रकार बेरोजगारों को तुरन्त ऋण देने के ‘मेले’ भी ‘उखड़ती पेंठ’ में तबदील हो गए।

नर्मदा नदी को साफ व शुद्ध करने के लिए शिवराज सिंह ने जो अभियान चलाया था वह पर्यावरण की दृष्टि से महत्वपूर्ण कदम हो सकता था और अन्य राज्यों को भी इससे सबक मिलता मगर राजनीतिक स्तर पर भ्रष्टाचार इस कदर रच-बस चुका है कि यार लोगों ने इसे भी कमाई का साधन बना डाला और इस बहाने नर्मदा के खनिजों को ही साफ कर डाला और जहां मौका मिला वहां जमीन पर भी हाथ साफ कर डाला। इसी प्रकार शिक्षा के क्षेत्र में हर गांव में स्कूल की परियोजना को मजाक में इस तरह बदल दिया गया कि केवल सरस्वती पूजन को ही ध्येय मान लिया गया।

ये एेसे मसले हैं जो किसी भी पार्टी की सरकार के सामने कभी भी आ सकते हैं क्योकि राजनीतिक तन्त्र में शिरकत करने वाले लोगों का यह धंधा बन चुका है। अतः श्री कमलनाथ या कांग्रेस पार्टी के लिए मध्यप्रदेश में व्यवस्था बदलने की चुनौती कोई छोटी-मोटी चुनौती नहीं हो सकती परन्तु यह भी सच है कि श्री कमलनाथ ने इसी तन्त्र और व्यवस्था के बीच अपने लोकसभा चुनाव क्षेत्र छिन्दवाड़ा का शानदार विकास करने में सफलता हासिल की है। इसके साथ ही उनकी अपनी पार्टी में भी कम चुनौतियां नहीं हैं। अभी हाल ही में श्री ज्योतिरादित्य सिंधिया व दिग्विजय सिंह के बीच मतभेद की खबरें खूब उछली थीं। चुनावी दौर में इस प्रकार की अफवाहें जन-विश्वास को कमजोर करती हैं।

इससे बेहतर श्री कमलनाथ के अलावा कोई दूसरा व्यक्ति नहीं समझ सकता क्योंकि उन्होंने कांग्रेस पार्टी का वह दौर भी देखा है जब स्व. राजीव गांधी को धोखा देने में एेसे कांग्रेसियों ने ही एक-दूसरे से बाजी मारी थी जो स्व. गांधी के सबसे करीब समझे जाते थे। यह काम मध्यप्रदेश में भाजपा में भी होता रहा है क्योंकि साठ-सत्तर के दशक में इस पार्टी के मध्यप्रदेश में सबसे बड़े नेता माने जाने वाले स्व. वीरेन्द्र कुमार सखलेचा ने ही विद्रोह का डंका बजा डाला था। वह इस राज्य में भाजपा (जनसंघ) के पहले सत्ताधीश (उपमुख्यमन्त्री) बने थे और राज्य की मुख्यमन्त्री रहीं सुश्री उमा भारती के किस्से को कौन नहीं जानता। अतः राजनीति संभावनाओं का खेल इसी वजह से कहा जाता है कि इसमें दोस्त-दुश्मन की पहचान ‘अवसरों’ पर निर्भर करती है। इसलिए मध्यप्रदेश के साले संजय सिंह ने केवल यही कहा है कि उनके ‘जीजा जी शिवराज सिंह चौहान छत पर हैं !’

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