कोरोना वायरस पर नियन्त्रण में केन्द्र सहित विभिन्न राज्यों की सरकारों ने जिस तरह से निषेधात्मक उपायों का प्रयोग किया है और दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ ‘लाॅकडाऊन’ को लागू किया है उसका प्रमाण राजस्थान राज्य का भीलवाड़ा माडल है जो पिछले दिनों कोरोना केन्द्र के रूप में अचानक उभरा परन्तु राज्य की गहलौत सरकार द्वारा जिस तरह जन सहयोग से इसे नियन्त्रित किया गया उससे यह पूरे देश में एक माडल बन गया।
राजस्थान की सरकार ने पिछले महीने भीलवाड़ा में पाये गये कोरोना से संक्रमित लोगों की संख्या को देखते हुए युद्ध स्तर पर इससे निपटने के लिए इस पूरे शहर की गतिविधियों को पूरी तरह ऐसे जाम कर दिया कि शहर की गलियों में परिन्दा भी पर मारने से कतराये।
हालांकि सरकार को थोड़ी सख्ती कर्फ्यू के नियम लागू करके भी करनी पड़ी परन्तु इससे हजारों लोगों की जान बच गई क्योंकि भीलवाड़ा में यह संक्रमण ‘सामुदायिक परावर्तन’ का स्वरूप ले रहा था। इस खतरे को टालने में पुलिस व चिकित्सा कर्मचारियों ने रात-दिन एक करके आम जनता से सहयोग की अपील की और जनता ने भी स्थिति की गंभीरता को समझ कर सहयोग की नजीर पेश की जिससे आज भीलवाड़ा खतरे से बाहर माना जा रहा है।
भीलवाड़ा की नजीर दिल्ली के निजामुद्दीन में इकट्ठा हुए तबलीगी जमात के लोगों के लिए सबक है जो अभी भी देश के विभिन्न राज्यों की मस्जिदों में छिपते फिर रहे हैं और पूरे समाज के लिए खतरे का सबब बने हुए हैं। राजस्थान का समाज भी कम परंपरावादी और रूढ़ीवादी नहीं माना जाता है, इसके बावजूद यहां के लोग सरकारी प्रशासन के नियमों का पूरा पालन कर रहे हैं और लाॅकडाऊन के नियमों को मन से मान रहे हैं।
तबलीगी जमात के लोगों को यह समझना चाहिए कि वे अपना ही नुकसान नहीं कर रहे बल्कि पूरे देश को खतरे में डालने के साथ सबसे बड़ा नुकसान मुस्लिम समाज का ही कर रहे हैं क्योंकि अपनी वहाबी कट्टरपंथी विचारधारा को ये लोग मुस्लिम सम्प्रदाय में ही फैलाने की कोशिशें करते हैं। अतः उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले के एक गांव में जिस तरह एक व्यक्ति ने तबलीगियों की आलोचना करने पर दूसरे समुदाय के एक युवक की हत्या की वह इस जमात के कट्टरपंथी नजरिये को दिखाती है और पूरे देश को आइना दिखाती है कि जमात की असलियत क्या है।
उसी प्रकार महाराष्ट्र के वर्धा जिले के एक भाजपा विधायक का जन्मदिन मनाने जिस तरह उसके घर पर दो सौ से अधिक लोगों की भीड़ जुटी वह बताती है कि लोकतन्त्र में जनता के चुने हुए सेवक किस तरह अपने को जनता का मालिक समझने का भ्रम पाल बैठे हैं। ये दोनों ही घटनाएं कोरोना के हक में वकालत करती हुई कही जा सकती हैं।
आंखें खोल देने वाली हकीकत यह है कि पिछले 24 घंटों के भीतर जो भी नये मामले कोरोना संक्रमण के आये हैं उनमें से अधिसंख्य तबलीगी जमात के ही हैं। इसके साथ यह भी हकीकत आयी है कि देश के 700 से अधिक जिलों में 62 जिले ऐसे हैं जिनमें कोरोना ग्रस्त पीिड़तों की संख्या 80 प्रतिशत है। अतः इन जिलों में भीलवाड़ा माडल अपना कर इस छिपे हुए दुश्मन पर काबू पाने की तरकीब खोजी जानी चाहिए लेकिन यह भी गंभीर समस्या है कि शेष 20 प्रतिशत संक्रमित लोग भारत के 120 अन्य जिलों में हैं जिससे इस संक्रमण के फैलने का खतरा बना हुआ है।
इस स्थिति को देखते हुए ही यह माना जा रहा है कि लाॅकडाऊन की अवधि कुछ राज्यों में अंचल स्तर पर आंशिक स्तर पर बढ़ाई जा सकती है, इसमें कोई हर्ज भी नहीं है क्योंकि कोरोना को जड़ से समाप्त करके ही हम चैन की सांस ले सकते हैं और आर्थिक स्तर पर सुरक्षात्मक उपाय करके देश की गरीब जनता को राहत दे सकते हैं।
कोरोना की वजह से हुए आर्थिक नुकसान की भरपाई करने के लिए वैसे तो कार्पोरेट क्षेत्र से लेकर अन्य स्वयंसेवी संगठनों ने अपनी-अपनी क्षमता के मुताबिक योगदान दिया है परन्तु चुने हुए जन प्रतिनिधियों की जिम्मेदारी ऐसी परिस्थितियों में बहुत बड़ी होती है। अतः राष्ट्रपति व प्रधानमन्त्री समेत केन्द्रीय मन्त्रियों व सांसदों के वेतन में एक वर्ष तक 30 प्रतिशत कटौती करने के मोदी सरकार के फैसले का स्वागत किया जाना चाहिए। सरकार ने एक अध्यादेश जारी करके सांसद निधि को भी दो वर्ष के लिए मुअत्तिल कर दिया है।
इस पर भी किसी प्रकार की राजनीति की गुंजाइश नहीं है क्योंकि प्रत्येक सांसद को साल भर में अपने क्षेत्र के विकास कार्यों के लिए 5 करोड़ रुपए मिलता है। राज्यसभा व लोकसभा के कुल सांसदों की संख्या के हिसाब से यह राशि चार हजार करोड़ रु. प्रतिवर्ष के आसपास बनती है। यह राशि अब लाॅकडाऊन समय में घर बैठने वाले कामगारों को दी जाये तो उनका भला होगा। इसके साथ ही राज्यों के विधायकों को मिलने वाली धनराशि को भी सरकारी खजाने में भेज दिया जाना चाहिए और उससे गरीबों की मदद की जानी चाहिए।
पंजाब केसरी ने इसी स्तम्भ में यह सुझाव कई दिनों पहले दिया था। मोदी सरकार ने यह कदम उठा कर गरीबों के लिए प्रतिबद्धता दिखाई है, वैसे भी हमें संसद में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी का दिया वह वक्तव्य याद रखना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘मेरी सरकार गरीबों की सरकार होगी।’ हर दल के सांसद को खुशी-खुशी यह फैसला स्वीकार करना चाहिए और राजनीति से बचना चाहिए।