स्व. मुलायम सिंह की राजनैतिक विरासत को लेकर उनके सुपुत्र अखिलेश यादव ने जो दांव फेंका है उसका विरोध करने की हिम्मत संभवतः स्व. मुलायम सिंह के परिवार के किसी अन्य सदस्य में नहीं हो सकती क्योंकि अखिलेश बाबू ने अपनी पत्नी डिम्पल यादव को मुलायम सिंह जी की मैनपुरी लोकसभा सीट से उपचुनाव लड़ाने का फैसला किया है। डिम्पल पहले भी लोकसभा सांसद रह चुकी हैं और कन्नौज क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर चुकी हैं। उनका कार्यकाल बिना किसी विवाद का रहा है परन्तु सवाल यह उठ रहा है कि क्या अखिलेश बाबू भी अपने पिता की तरह ही अपनी समाजवादी पार्टी को परिवारमूलक बनाये रखेंगे? स्व. मुलायम सिंह निश्चित रूप से जमीन से उठे हुए नेता थे और उनकी राजनीति की शुरूआत डा. राम मनोहर लोहिया के सिद्धान्तों के साथ हुई थी। समाजवादी आदर्शों के प्रति समर्पित मुलायम सिंह की राजनीति के मूल्यों का बाद में सत्ता की राजनीति के चलते ह्रास भी हुआ औऱ उन पर अपनी समाजवादी पार्टी को अपने परिवार की ही पार्टी बनाने के आरोप भी लगे, मगर इसके बावजूद उत्तर प्रदेश के एक विशेष वर्ग के लोगों के बीच उनकी लोकप्रियता में गिरावट देखने को नहीं मिली (केवल 2019 को छोड़ कर)। गौर से देखा जाये तो उनके पुत्र अखिलेश यादव का उनसे कोई मुकाबला नहीं है क्योंकि मुलायम सिंह अपने राजनैतिक पत्ते सही समय पर इस प्रकार चलते थे कि पूरी बाजी देखते-देखते ही पलट जाती थी।
क्षेत्रीय नेता (उत्तर प्रदेश तक) होने के बावजूद स्व. मुलायम सिंह की राष्ट्रीय राजनीति में पैठ किस कदर गहरी थी, इसका उदाहरण 2012 में हुए राष्ट्रपति चुनावों में देखने को मिला था जब स्व. यादव ने पूरी कांग्रेस आलाकमान को एक टांग पर खड़ा कर दिया था और उसे अपने सबसे वरिष्ठ व विद्वान नेता स्व. प्रणव मुखर्जी को राष्ट्रपति प्रत्याशी के रूप में घोषणा करनी पड़ी थी। मुलायम सिंह ने तब केन्द्र की यूपीए की डा. मनमोहन सिंह नीत सरकार का समर्थन कर रहे थे और भाजपा नीत एनडीए के प्रत्याशी स्व. पी.ए. संगमा का विरोध कर रहे थे। कांग्रेस आलाकमान मुगालते में था कि प्रत्याशी उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी को बनाया जाये या वित्त मन्त्री श्री प्रणव मुखर्जी को। उस समय मुलायम सिंह ने प. बंगाल की मुख्यमन्त्री ममता बनर्जी के साथ मिल कर एेसा पासा फेंका कि कांग्रेस आलाकमान के हाथों के तोते उड़ गये और उसने आनन-फानन में श्री मुखर्जी का नाम घोषित कर दिया। मुलायम सिंह ने ममता दी के साथ मशविरा करके प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह का नाम ही राष्ट्रपति पद के लिए बढ़ा दिया था।
इस बारे में मैं पहले भी लिख चुका हूं मगर आज लिखना इसलिए जरूरी है जिससे अखिलेश बाबू जिस राजनैतिक विरासत के उत्तराधिकारी बनना चाहते हैं उसे अच्छी तरह से समझ सकें और राजनीति में अपनी हैसियत बना सकें। इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि मुलायम सिंह ने अपने पुत्र को अपने जीते-जी ही 2012 में अपना उत्तराधिकारी तब घोषित कर दिया था जब 2012 में समाजवादी पार्टी ने अपने बूते पर उत्तर प्रदेश में पूर्ण समर्थन प्राप्त किया था। तब स्व. यादव ने मुख्यमन्त्री पद पर अपने पुत्र अखिलेश यादव को गद्दी पर बैठा कर साफ कर दिया था कि उनके बाद अखिलेश बाबू के हाथ में ही समाजवादी पार्टी की डोर जायेगी और एेसा हुआ भी। मगर मुलायम सिंह जी ने अपने भाइयों व भतीजों व उनके भी पुत्रों को राजनीति में लाकर अच्छा उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया। यह उनकी राजनीति का नकारात्मक पक्ष था। अखिलेश बाबू को इससे भी सबक लेना होगा क्योंकि मुलायम सिंह का व्यक्तित्व कुछ एेसा था कि उनके चाहने वाले उनके हर अच्छे-बुुरे काम का आंख मूंद कर समर्थन कर जाते थे। इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि उन्होंने एक जमाने की कुख्यात दस्यु सुन्दरी स्व. फूलन देवी तक को अपनी लोकप्रियता के बूते पर ही अपनी पार्टी के टिकट पर लोकसभा में भिजवा दिया था।
अखिलेश नये जमाने के आस्ट्रेलिया से पढे़ युवक हैं और राजनीति में उन्हें उन विसंगतियों व वर्जनाओं को त्यागना होगा जो जातिवादी उन्माद को बढ़ाती हैं। उन्हें अपनी पार्टी को एेसे लोगों से भी मुक्त करना होगा जिन्होंने समाजवादियों की छवि ‘गुंडई पार्टी’ की बना रखी है। इस काम में उनकी पत्नी डिम्पल यादव ही उनकी अच्छी मदद कर सकती हैं। वह बहुत शालीन व शिष्टाचार पसन्द महिला समझी जाती हैं। इसके साथ ही समाजवादी पार्टी को नया कलेवर इस प्रकार देना होगा कि इसे विरोधी पारिवारिक पार्टी न कहें। यह काम बहुत मुश्किल नहीं है क्योंकि अखिलेश बाबू के साथ उनके पिता का बनाया गया विशिष्ट जनाधार तो है मगर उसे समय की बदलती आवश्यकताओं के अनुरूप नवीन विचारों से लैस करना है जिससे मौजूदा वक्त की राजनैतिक चुनौतियों से जूझते हुए वह राजनीति को नया स्वरूप दे सकें। हकीकत यह है कि मुलायम सिंह की सबसे बड़ी विरासत गांव और गरीब और किसान ही हैं। यह विरासत उन्हें चौधरी चरण सिंह ने 1974 में सौंपी थी मगर कालान्तर में यह 1990 में मंडल कमीशन के आने के बाद यह जातिवाद में परिवर्तित हो गई। अखिलेश बाबू परिवार से ऊपर उठ कर इसी वर्ग को यदि अपना परिवार बनाते हैं तो उत्तर प्रदेश की राजनीति का रंग देखने लायक हो सकता है। यह चुनौती बहुत बड़ी है।
आदित्य नारायण चोपड़ा