लोकसभा चुनाव 2024

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उत्तर प्रदेश के पालिका चुनाव

कर्नाटक विधानसभा चुनावों के शोर में उत्तर प्रदेश के नगर पालिका व नगर निगम चुनावों का जोर हालांकि मद्धम लगता है परन्तु हकीकत यह है कि इन चुनावों के माध्यम से राज्य में 2024 में होने वाले राष्ट्रीय लोकसभा चुनावों का ‘रिहर्सल’ या पूर्व प्रयोग हो रहा है।

कर्नाटक विधानसभा चुनावों के शोर में उत्तर प्रदेश के नगर पालिका व नगर निगम चुनावों का जोर हालांकि मद्धम लगता है परन्तु हकीकत यह है कि इन चुनावों के माध्यम से राज्य में 2024 में होने वाले राष्ट्रीय लोकसभा चुनावों का ‘रिहर्सल’ या पूर्व प्रयोग हो रहा है। इसकी वजह यह है कि राज्य की भाजपा सरकार के मुखिया योगी आदित्यनाथ अपने चुनाव प्रचार में वे मुद्दे केन्द्र में रख रहे हैं जिनका महत्व स्थानीय राजनीति की अपेक्षा राज्य की समग्र व राष्ट्रीय राजनीति से अधिक लगता है। श्री योगी ने इन शहरी निकाय चुनावों में भाजपा की विजय को ‘ट्रिपल इंजिन’ अर्थात तीन इंजिनों वाली सरकार से जोड़ा है। श्री योगी जिस प्रकार इन चुनावों में राज्य की कानून व्यवस्था को मध्य में रख कर माफिया व आपराधिक डानों के सफाये को मुख्य मुद्दा बना रहे हैं उससे इन चुनावों के मुख्य लक्ष्य स्थानीय स्तर पर नगर प्रशासन का मुद्दा बेशक पीछे चला गया है मगर राज्य की जनता का ध्यान निकाय समस्याओं की तरफ न हो ऐसा भी नहीं है।
श्री योगी ने शहरों की गन्दगी की सफाई के साथ माफियाओं और अपराधियों की सफाई को जोड़ते हुए राज्य की जनता को जो सन्देश दिया है उसका स्वाभाविक तौर पर स्वागत तो हो रहा है मगर राज्य की नगर पालिकाओं व नगर निगमों के वे मूल मुद्दे इस विमर्श की छाया में छिपाये नहीं जा सकते हैं जिनका सीधा सम्बन्ध नगर निकायों में रहने वाले आम नागरिकों की दैनिक जिन्दगी से होता है। राज्य के अधिसंख्य नगरों में साफ-सफाई से लेकर सड़कों, बिजली व पानी की समस्याएं इतनी गहरी हैं कि कानून-व्यवस्था के नाम पर इनकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। नगर पालिकाओं व नगर निगमों में भ्रष्टाचार का मुद्दा भी प्रमुख है। भारत की लोकतान्त्रिक प्रणाली में जो त्रिस्तरीय प्रशासनिक व्यवस्था पहले से ही मौजूद थी उसे और धार देने का काम स्व. राजीव गांधी के प्रधानमन्त्रित्व काल में 1985 में संविधान में 74वां और 75वां संशोधन करके किया गया था और ग्राम पंचायतों से लेकर नगर पालिकाओं व नगर निगमों को स्वायतत्ता इस प्रकार प्रदान की गई थी कि वे अपने विकास के खर्चों को पूरा करने के मामले में आत्मनिर्भर हो सकें। इस सुधार में यह भी प्रावधान था कि इस स्तर पर महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण हो जिससे देश की आधी आबादी को सीधे प्रसासनिक व्यवस्था में शामिल किया जा सके।
महिला सशक्तीकरण के क्षेत्र में यह स्वतन्त्र भारत में उठाया गया यह महत्वपूर्ण कदम था। इससे समाज के सभी वर्गों के महिला समाज में राजनैतिक जागृति भी आयी और उनके राजनैतिक क्षेत्र में आगे बढ़ने का मार्ग भी प्रश्स्त हुआ मगर भारत के पितृसत्तात्मक समाज खास कर गांवों में कुछ अवरोध भी परोक्ष रूप में लगने के उदाहरण सामने आने लगे परन्तु आज यह स्थिति उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में बन चुकी है कि शैक्षणिक रूप से पिछड़े समझे जाने वाले मुस्लिम समाज की औरतें भी काफी नगर निकायों के अध्यक्ष पद पर चुनी जाने लगी हैं। इसका असर बहुआयामी स्तर पर पड़ा है और मुस्लिम समाज की कन्याओं में शिक्षा का विस्तार इसका जीता-जागता प्रमाण है। अतः स्थानीय निकाय स्तर पर स्वायतत्ता दिये जाने के प्रभाव के रूप में आज हर समाज का समय के अनुसार रूपान्तरण होते देख रहे हैं। बेशक कुछ समाज में इसकी गति तीव्र हो सकती है और कुछ में थोड़ी धीमी परन्तु आरक्षित श्रेणी की महिलाओं में भी इससे जागृति तो आ ही रही है परन्तु राज्य के स्थानीय निकायों के चुनावों में ऐसे मुद्दे प्रायः गौण ही रहते हैं क्योंकि इस स्तर पर भी अधिसंख्य प्रत्याशियों को राजनैतिक दल अपनी पहचान के अनुसार उतारते हैं जिससे दलगत राजनीति इन चुनावों में भी प्रभावी हो जाती है। नगर निगम व नगर पालिका चुनावों में दलगत राजनीति का वैसे कोई महत्व नहीं होता है क्योंकि ये चुनाव स्थानीय शहरियों की उन समस्याओं से बावस्ता होते हैं जिनका राजनैतिक विचारधारा से कोई प्रत्यक्ष लेना-देना नहीं होता है।
इसी वजह से हमने देखा कि दिल्ली नगर निगम के चुनावों में जीत कर आने वाले सदस्यों पर दल-बदल कानून लागू नहीं हुआ था। लोकतन्त्र की शुद्ध धारणा के अनुरूप ये चुनाव दल निरपेक्ष आधार पर ही होने चाहिए जिससे नागरिकों की समस्याओं का हल उनके चुने हुए प्रतिनिधि आपस में बैठ कर निकाल सकें मगर व्यावहारिक रूप में एेसा हो नहीं हो पाता है जिसकी वजह से नगर निगम व नगर पालिका सदनों में भी राजनैतिक आधार पर फैसले होने लगते हैं। यदि हम गहराई से सोचें तो गणराज्य की परिकल्पना के अनुरूप ही स्थानीय निकायों को स्वायतत्ता देने का विचार अंकुरित होता है। जिसके प्रमाण भारत के पुराने इतिहास लिच्छवी राजवंश शासन में मिलते हैं। खैर आज हम 21वीं सदी में जी रहे हैं और उत्तर प्रदेश के निकाय चुनाव दलगत आधार पर ही हो रहे हैं जिसमें मुख्य मुकाबला भाजपा व अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के बीच है।
ये चुनाव दो चरणों में 4 मई व 11 मई को होंगे और इनके परिमाण 13 मई को उसी दिन आयेंगे जिस दिन कर्नाटक विधानसभा के चुनाव परिणाम आयेंगे। श्री अखिलेश यादव मुख्यमन्त्री के मुकाबले अपनी पार्टी के प्रत्याशियों का चुनाव प्रचार भी पूरे दम-खम से करते लगते हैं जबकि कुछ चुनिन्दा शहरों में कांग्रेस भी अपना भाग्य आजमा रही है। वैसे पूरे चुनाव में माफिया डाॅन अतीक अहमद व उसके भाई अशरफ अहमद की हत्या से उपजे सवालों का मामला ही गरमाया हुआ है जिसका सम्बन्ध राज्य की कानून व्यवस्था से जोड़ कर भाजपा द्वारा पेश किया जा रहा है। इससे कहीं न कहीं राज्य के समाज में ध्रुवीकरण को भी हवा मिल रही है मगर पश्चिम उत्तर प्रदेश में स्थिति पूर्वी उत्तर प्रदेश के समान नहीं लगती है। यहां मजहब के आधार पर मतदाताओं का ध्रुवीकरण असंभव सा लग रहा है क्योंकि ग्रामीण जातियों में आर्थिक समस्याओं को ज्यादा महत्व दिया जा रहा है और खेती से जुड़े सभी समुदायों की एक समान समस्याओं के चलते समाज में मतदाताओं का ध्रुवीकरण इसी आधार पर होते दिखाई पड़ रहा है। मगर इन चुनावों में शहरी मतदाताओं की संख्या अधिक होती है जिसकी वजह से परिणाम कानून- व्यवस्था की स्थिति से प्रभावित हो सकते हैं।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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