जिस अतीक के खौफ और आतंक से लोग दहशत में रहते थे, उसी अतीक और उसके भाई अशरफ को ऐसी मौत मिलेगी किसी ने सोचा भी नहीं था। इस बात की आशंका पहले से ही व्यक्त की जाती रही है कि अहमदाबाद की साबरमती जेल से प्रयागराज लाते समय उत्तर प्रदेश पुलिस की गाड़ी विकास दुबे की गाड़ी की तरह पलट सकती है। अतीक अहमद भी अपनी हत्या की आशंका व्यक्त कर चुका था और साफ-साफ कह रहा था कि इनकी नीयत सही नहीं है, ‘‘मेरी हत्या करवा दी जाएगी।’’ इस बार गाड़ी नहीं पलटी लेकिन रात के समय तीन हमलावरों ने पुलिस के घेरे में लाए जा रहे अतीक और उसके भाई की गोलियां मारकर हत्या कर दी। जिस वक्त यह हत्याएं हुईं उस वक्त पुलिस अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ को मेडिकल जांच के लिए अस्पताल ले जा रहे थे। पुलिस के घेरे में जिस तरीके से तीन हमलावरों ने अतीक की कनपटी पर गोली दागी और अशरफ को बेहद नजदीक से गोलियां मारीं और उसके बाद धार्मिक नारेबाजी की, वह हैरान कर देने वाला है। पूरा घटनाक्रम इलैक्ट्रॉनिक चैनलों के कैमरों में कैद हो गया। यद्यपि पुलिस ने तीनों हमलावर लवलेश तिवारी (बांदा), अरुण मौर्य (कासगंज) और सनी (हमीरपुर) को मौके पर गिरफ्तार कर लिया, क्योंकि उन्होंने गोलियां मारने के बाद तुरन्त अपने हाथ खड़े कर दिए थे। अतीक और अशरफ को घेरा डालकर ला रही पुलिस बेबस दिखी। किसी ने भी हमलावरों पर गोली चलाने का कोई प्रयास किया ही नहीं।
सवाल यह भी उठता है कि क्या पुलिस को पूरी साजिश का पता था? दो दिन पहले ही अतीक अहमद के बेटे और उसके साथी शूटर गुलाम को उत्तर प्रदेश एसटीएफ ने झांसी में मुठभेड़ में मार गिराया था। इसी वर्ष 24 फरवरी को हुई उमेशपाल की हत्या के मामले में अब तक 6 अभियुक्तों की मौत हो चुकी है। यद्यपि उत्तर प्रदेश पुलिस का कहना है कि अतीक और अशरफ को मारने आए हमलावर पत्रकार बनकर आए थे, लेकिन उत्तर प्रदेश पुलिस अपनी नाकामी से बच नहीं सकती। समूचे घटनाक्रम पर सवाल तो उठेंगे ही। अगर अपराधियों और बाहुबलियों को खुलेआम सड़कों पर मारा जाता रहेगा, तो फिर कानून और संविधान का खौफ कहां बचेगा।
जिस उत्तर प्रदेश पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट में यह आश्वासन दिया था कि अतीक अहमद और उसके भाई के पूरे सुरक्षा प्रबंध होंगे, उसका संवैधानिक दायित्व और नैतिकता कहां चली गई। हमलावरों ने गोली मारकर धार्मिक नारेबाजी की। उन्हें क्या देशभक्त माना जाएगा? अतीक और अशरफ की हत्या के बाद हिन्दू और मुस्लिम की सियासत में बवाल मचना तय है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि हमलावरों के पीछे कौन सा अदृश्य हाथ है जिसके चलते उन्होंने ऐसा दुस्साहस किसके इशारे पर किया। अतीक अहमद एक के बाद एक राज खोल रहा था। उसने यह भी स्वीकार किया था कि उसका संबंध पाकिस्तान और आतंकवादी संगठन लश्कर से भी था। वह पाकिस्तान से हथियार भी मंगवाता था। इसमें कोई संदेह नहीं कि अतीक को राजनीतिक संरक्षण मिला हुआ था। तभी तो उसका साम्राज्य दूर-दूर तक फैला हुआ था। एक धारणा तो यह है कि और सनसनीखेज राज खोलने से पहले ही उन लोगों ने अतीक और उसके भाई को निपटा दिया जिन्हें कई रहस्य खुलने का डर सता रहा था। तीनों हमलावरों का यह कहना भी गले नहीं उतरता कि उन्होंने नाम कमाने के मकसद से यह हत्याएं कीं। दूसरी धारणा यह भी है कि मुख्यमंत्री योगी की छवि को बदनाम करने के लिए पूरी साजिश रची गई हो। कहीं न कहीं यह भी महसूस किया जा रहा है कि जब पुलिस घेरे में हत्याएं हो सकती हैं तो आम जनता कैसे सुरक्षित है। हालांकि लोग यह भी कहते हैं कि जुल्म की इंतहा होती है या अपराध की पराकाष्टा तो कुछ फैसले कुदरत भी लेती है।
जिस तरह से पुलिस मुठभेड़ों को लेकर आम जनता का समर्थन मिल रहा है और पुलिस मुठभेड़ों में अपराधियों के मारे जाने पर लोग जश्न मनाने लगते हैं यह भी एक खतरनाक स्थिति है। यदि इसे नहीं रोका गया तो पुलिस का दमन और बढ़ सकता है। भारत में मुठभेड़ों को सामाजिक वैधता दिलाने की कोशिश खतरनाक प्रवृत्ति है। इससे संकेत मिलते हैं कि हमारी पुलिस प्रणाली फेल हो गई है और न्यायपालिका पर किसी का भरोसा नहीं है। आम लोगों की भावना यह है कि कानून अपराधियों को सजा दिलाने में विफल है और न्यायिक जटिलता के चलते अपराधी बच निकलते हैं। ऐसे में अपराधियों को पकड़ कर ही सीधे मार देना चाहिए। पुलिस को ऐसी कार्रवाइयों में सुरक्षा कवच भी मिला हुआ होता है। सुप्रीम कोर्ट ने कई बार कहा है कि पुलिसकर्मी कानून के रक्षक होते हैं और उनसे उम्मीद की जाती है कि वह लोगों की रक्षा करे , न कि उन्हें कांट्रेक्ट किलर की तरह मार दे। हत्या किसी की भी हो दूध का दूध और पानी का पानी होना ही चाहिए। अतीक और अशरफ की हत्या का अंतिम सच क्या है इसे सामने लाना भी कानूनी दायित्व है। देखना है कि जांच का तार्किक निष्कर्ष क्या निकलता है?