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जम्मू-कश्मीर में ‘मुर्मु’ का मर्म

सुखद संयोग है कि भारतीय लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ ‘चुनाव आयोग’ संविधान प्रदत्त अपनी शक्ति को पहचान कर उठ कर खड़ा हुआ है और उसने जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल श्री जी.सी. मुर्मु के राज्य में चुनाव आयोजित करने के वक्तव्यों पर घोर आपत्ति दर्ज की है।

सुखद संयोग है कि भारतीय लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ ‘चुनाव आयोग’ संविधान प्रदत्त अपनी शक्ति को पहचान कर उठ कर खड़ा हुआ है और उसने जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल श्री जी.सी. मुर्मु के राज्य में चुनाव आयोजित करने के वक्तव्यों पर घोर आपत्ति दर्ज की है। चुनाव आयोग भारतीय लोकतन्त्र की ऐसी आधारभूत भूमि तैयार करता है जिस पर विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका के मजबूत स्तम्भ खड़े रहते हैं। इन तीन पायों पर ही भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था की इमारत बन कर तैयार होती  है जबकि जमीन स्वयं चुनाव आयोग होता है। विगत वर्ष 5 अगस्त से संसद में जम्मू-कश्मीर राज्य का पुनर्गठन विधेयक पारित होने के बाद पूरा राज्य दो केन्द्र शासित प्रदेशों जम्मू-कश्मीर व लद्दाख में बांट दिया गया था। राजनीतिक स्तर पर राज्य के क्षेत्रीय राजनीतिक दलों से लेकर राष्ट्रीय स्तर की कांग्रेस पार्टी ने इसका विरोध किया था। जिसकी वजह से इस राज्य की पहले से ही भंग विधानसभा का अस्तित्व समाप्त हो गया था और नये विधान के अनुसार नई विधानसभा का गठन होना था।
 इस राज्य को जिस अनुच्छेद 370 के तहत विशेष राज्य का दर्जा मिला हुआ था, इसके साथ ही वह भी समाप्त हो गया था। और राज्य में केन्द्र ने उपराज्यपाल नियुक्त कर अपना शासन लागू कर दिया था। इस फैसले के बाद विभिन्न क्षेत्रीय दलों प्रमुख रूप से नेशनल कान्फ्रैंस व पीडीपी के नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था। इनमें पूर्व केन्द्रीय मन्त्री व मुख्यमन्त्री फारूक अब्दुल्ला से लेकर उनके पुत्र उमर फारूक व श्रीमती महबूबा मुफ्ती शामिल थे। जम्मू-कश्मीर के पूर्ण  से अर्ध राज्य हो जाने का विरोध इन राजनीतिक दलों ने जम कर किया था। मगर इससे राज्य की राजनीतिक प्रक्रिया के थमने का सवाल पैदा नहीं होता था क्योंकि बदले नियमों के अनुसार जम्मू-कश्मीर में सीमित अधिकारों वाली विधानसभा का गठन होना आवश्यक है।  राज्यपाल श्री मुर्मु ने विगत सप्ताह विभिन्न अखबारों को दिये गये साक्षात्कारों में केवल इतना ही कहा कि राज्य में चुनाव प्रक्रिया जल्दी ही शुरू कराई जायेगी जो कि चुनाव परिसीमन का काम पूरा होने के बाद होगी या वर्तमान चुनाव क्षेत्र सीमा के अनुसार होगी, इसका फैसला चुनाव आयोग करेगा।
सरकार ने चुनाव क्षेत्र परिसीमन समिति का गठन कर दिया है। इसके साथ ही उन्होंने यह भी स्पष्ट किया था कि राज्य के लोगों को 4-जी नेट सुविधाएं मुहैया कराने से भी उन्हें कोई गुरेज नहीं है।  इसके लिए वह केन्द्र सरकार के सामने अपना पक्ष रख चुके हैं 4-जी कोई समस्या नहीं होगी। क्योंकि ‘पाकिस्तान का मुझे कोई डर नहीं है और यह भी परवाह नहीं है कि लोग इसका इस्तेमाल कैसे करेंगे। चाहे 2-जी हो या 4-जी पाकिस्तान तो अपनी दुष्प्रचार की गतिविधियां जारी रखेगा’। गौर से देखा जाये और श्री मुर्मु के बयान का वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाये तो उन्होंने कुछ भी गलत नहीं कहा है और अपने संवैधानिक दायित्व का निर्वाह ही किया है। केन्द्र के शासन के चलते वह राज्य के प्रशासनिक मुखिया भी हैं (अर्ध राज्य में वैसे भी उपराज्यपाल ही मुखिया होते हैं) जम्मू-कश्मीर की वर्तमान सामाजिक व राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए उन्होंने अपने विचार पूरी स्पष्टता के साथ व्यक्त किये और लोगों को सन्देश देने का प्रयास किया कि उनके मूलभूत अधिकारों का सत्ता सम्मान करती है। 
श्री मुर्मु झारखंड जैसे राज्य के जमीनी राजनीतिक कार्यकर्ता रहे हैं और जनभावनाओं से परिचित रहने वाले राजनीतिज्ञ के रूप में उनकी पहचान की जाती है जो कि राजस्थान के राज्यपाल श्री कलराज मिश्र के एकदम उलट है। अतः दोनों की कार्यप्रणाली में अन्तर को भी हम साफ पहचान सकते हैं। जहां तक चुनाव आयोग का सवाल है तो वह व्यर्थ ही उपराज्यपाल के बयान से परेशान हो रहा है और अपने अधिकारों के इस्तेमाल का नाटकीय प्रदर्शन कर रहा है। श्री मुर्मु ने चुनाव आयोग के अधिकारों का संज्ञान लेकर ही कहा था कि चुनाव कराने का फैसला अन्ततः चुनाव आयोग को ही करना है। यह उसका अधिकार क्षेत्र है। वह तो अपनी तरफ से चुनाव कराने की जमीन ही तैयार कर सकते हैं। बेशक चुनाव किस समय हों यह चुनाव आयोग ही तय करता है परन्तु राज्य का मुखिया होने के नाते उपराज्यपाल को राजनीतिक प्रक्रिया के बारे में बोलने से आयोग किस प्रकार लाल-पीला हो सकता है? इससे तो आयोग की ही अनाधिकार चेष्टा का प्रदर्शन होता है। क्या गजब का संयोग है कि एक राज्य में सात-सात चरणों में चुनाव कराने की नई परम्परा शुरू करने वाला वर्तमान चुनाव आयोग श्री मुर्मु के उस बयान पर आंखें तरेर रहा है जिसमें उसके अधिकारों का बाकायदा उल्लेख करते हुए चुनावों का समय तय करने को उसका विशेषाधिकार बताया गया है। इस लिहाज से श्री मुर्मु की पूरी तरह तारीफ की जानी चाहिए कि उन्होंने अपने संवैधानिक दायरे के भीतर रहते हुए ही अपने अधिकारों का इस्तेमाल किया और चुनाव आयोग की प्रतिक्रिया को बेवजह का नाटक समझा जाना चाहिए मगर श्री मुर्मु के 4-जी के सम्बन्ध में व्यक्त विचारों का संज्ञान सर्वोच्च न्यायालय में तब लिया गया जब इसी सम्बन्ध में चल रहे एक मामले में राज्य सरकार पर सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों का अनुपालन न करने का मुकदमा चल रहा है। 4-जी का संज्ञान लिये जाने के सन्दर्भ में केन्द्र सरकार के वकीलों ने दलील पेश की कि वे इस बारे में उपराज्यपाल के बयान की तसदीक करके न्यायालय को बतायेंगे। पूरे मामले को यदि हम गौर से देखें तो इसी नतीजे पर पहुंचेंगे कि श्री मुर्मु उपराज्यपाल की हैसियत से अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन इस प्रकार कर रहे हैं कि उनका हर कार्य आम जनता के हित का हो। लोकतन्त्र में जनहित की उपेक्षा किसी भी प्रशासनिक प्रणाली के तहत नहीं की जा सकती। क्योंकि इस बारे में जो भी संवैधानिक उपबन्ध हैं, सभी जनता से ली गई ताकत से ही बन्धे होते हैं।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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