भारत के सन्दर्भ में यह समझना बहुत जरूरी है कि इस देश की मूल भारतीय या हिन्दू संस्कृति का केन्द्र मानवतावाद ही रहा है जिसकी वजह से इस धरती पर आने वाले प्रत्येक धर्म के अनुयायी का स्वागत हुआ और उसे अपने मजहब की पूजा पद्धति मानने का कहीं कोई विरोध नहीं हुआ। इसकी प्रमुख वजह यह थी कि स्वयं हिन्दू धर्म में ही किसी एक विधि द्वारा पूजा-अर्चना के अनुष्ठान किये जाने की रूढ परंपरा नहीं थी। बदलते समय के अनुसार इन परंपराओं में वृद्धि होती रही और नये–नये मतों की उत्पत्ति होती रही जिनके आधार पर पंथों का गठन होता रहा किन्तु इनके मानने वालों में कभी कोई वैमनस्य पैदा नहीं हुआ और ये सब अपने-अपने तरीके से अपनी परंपराओं का निर्वाह करते रहे जिसके परिणामस्वरूप भारत के समाज में सहिष्णुता और सहनशीलता का भाव अन्तर्निहित हो गया परन्तु इसे केवल सहनशीलता या सहिष्णुता के दायरे में कैद कर देना भी हिन्दू संस्कृति के प्रति न्याय नहीं होगा बल्कि यह इससे भी ऊपर मानव की अपनी स्वतन्त्र व सम्मान की सत्ता थी जिसे ‘मानवतावाद’ ही कहा जाना चाहिए परन्तु इसके विरोध में वामपंथी या प्रगतिशील कहे जाने वाले विचारक यह तर्क देते हैं कि यदि सांस्कृतिक भाव इतना उदार था तो इसमें वर्ण व्यवस्था के चलते शूद्र समाज के लोगों के साथ पशुवत व्यवहार क्यों किया जाता था और उसमें ‘अंत्यज’ जैसी श्रेणी किस प्रकार अस्तित्व में आ गई थी। यजुर्वेद में वर्ण व्यवस्था का जिक्र मिलता है परन्तु यह जन्म से न होकर कर्म से परिभाषित थी। अतः यह तर्कपूर्ण है कि जैसे–जैसे समाज का आर्थिक विकास होता गया और इसमें समाज के विशेष वर्गों के आर्थिक हित उन्हें प्राप्त होने वाली सम्पत्ति से पोषित होने लगे वैसे- वैसे ही वर्ण व्यवस्था की जड़े जमती गईं और इसने जन्म मूलक रूप धारण कर लिया और यहां तक हुआ कि शूद्रों के देवता भी प्रथक कर दिये गये। अतः हिन्दू समाज में असहनशीलता का भाव हमें सबसे पहले शूद्रों के प्रति उपजी निर्दयता में मिलता है और उनके सामाजिक व आर्थिक शोषण में मिलता है परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इसका विरोध भी हिन्दू संस्कृति में ही हुआ और ‘आजीविका’ मत का उदय हुआ जिसका मूल सिद्धान्त नियति या कर्म पर आधारित था। यह मत अनीश्वरवादी था और मानता था कि मनुष्य नियति के लेख के अनुसार ही कर्म करता है अतः अच्छा या बुरा कर्म कुछ नहीं होता है। संभवतः ‘अऱाजक’ शब्द की उत्पत्ति भी यहीं से हुई है। इसके साथ ही ईसा से साढे़ छह सौ वर्ष पूर्व ही बौद्ध धर्म की उत्पत्ति हुई जिसमें सद्कर्मों की ‘अष्टपदि’ नियमावली के अनुसार मनुष्य काे निर्वाण प्राप्ति का रास्ता दिखाया गया। इसके साथ ही इससे चालीस साल पहले जैन धर्म के तीर्थांकर महावीर स्वामी ने भी प्रेम, अहिंसा व सत्य के मार्ग से मोक्ष की प्राप्ति का रास्ता बताया परन्तु इन सभी पंथों की ग्राह्यता हिन्दू संस्कृति में बिना किसी राग- द्वेष के हो गई और यहां तक हो गई कि बुद्द को भगवान विष्णु का अवतार भी स्वीकार कर लिया गया जो बौद्ध धर्म की ‘महायान’ शाखा के बाद संपुष्ट हुआ। इन सभी धर्मों के प्रतीक स्थल भारत में एक-दूसरे के समानान्तर खड़े रहे और भारत की विविधता में समा गये, बेशक इक्के–दुक्के मामलों में बौद्ध व सनातन धर्म के प्रतीक स्थलों के मामले में संघर्ष का जिक्र जरूर मिलता है परन्तु अन्ततः बुद्ध भागवान विष्णु के अवतार के रूप में ही प्रतिष्ठापित हुए। परन्तु 711 के बाद सिन्ध के रास्ते भारत में इस्लाम के प्रवेश के साथ हमें यह आपसी सद्भाव टूटता हुआ मिला है क्योंकि सिन्ध में आने वाले मोहम्मद बिन कासिम ने वहां के हिन्दू राजा दाहिर को हराने के बाद इस्लाम को तलवार और ताकत के जोर पर फैलाना शुरू किया औऱ हिन्दू व बौद्ध नागरिकों का कत्लेआम करने के साथ उनकी औरतों को गुलाम बना कर ‘दमिश्क’ में बेचा और गैर मुस्लिम प्रजा से ‘जजिया’ वसूलने की कुप्रथा शुरू की। यह इस्लाम के फैलने का दौर था और इसी दौरान 712 में स्पेन में भी इस्लाम का प्रवेश हुआ जो सात सौ सालों तक काबिज रहा। स्पेन का इस्लामीकरण भी इस दौरान जम कर किया गया और तमाम चर्चों को मस्जिदों में बदल दिया गया परन्तु 15वीं शताब्दी के अन्त में जब यहां इस्लामी हुकूमत समाप्त हो गई तो इसके बाद स्पेन ने अपनी पुरानी जड़ों की तरफ लौटना शुरू किया और अपनी चर्चों को वापस लेते हुए पुनः इसाईत का डंका बजाया। आज स्पेन की 95 प्रतिशत से अधिक जनता इसाई धर्म को मानने वाली है। इसकी असली वजह ही थी कि स्पेनी नागरिकों ने कभी भी अपनी मूल संस्कृति से किनाराकशी नहीं की और स्वयं को सबसे पहले स्पेनिश समझा परन्तु भारत में महमूद गजनबी से लेकर मोहम्मद गौरी और बाद के मुस्लिम आक्रान्ताओं ने यहां के नागरिकों का धर्मान्तरण करके उसकी जड़ें मुल्ला–मौलवियों की मदद से भारत से काटने की मुहीम चलाई और उन्हें सबसे पहले ‘मुसलमान’ पहचान देने की कोशिश की जबकि इसके समानान्तर इंडोनेशिया व मलेशिया जैसे देशों में यह नहीं हो सका क्योंकि यहां के नागरिकों ने अपनी पहली राष्ट्रीय पहचान मलय या इंडोनेशियाई को नहीं छोड़ा जिसकी वजह से इन देशों के नागरिकों के नाम आज भी आधे हिन्दू और आधे मुस्लिम होते हैं परन्तु भारत में यह लगातार आठ सौ वर्षओं के लगभग इस्लाम शासन रहने की वजह से नहीं हो सका क्योंकि भारत के मुगल सम्राट तक अरब के मक्का तीर्थ स्थल का पूरा खर्चा उठाते थे। केवल अकबर के शासन को छोड़ कर शेष किसी भी मुगल शासक जमाने में हिन्दुओं पर अत्याचार नहीं रुके जिसकी वजह उनके दरबार में मौजूद कट्टर मुल्ला और काजियों का होना था। हिन्दू मन्दिरों का विध्वंस जिसे ‘बुत शिकनी’ कहा जाता था उसे ये मुल्ला या काजी इस्लाम के अनुसार जायज ठहराते थे। बेशक शासन की मजबूरियों के चलते और अर्थव्यवस्था के मुख्य स्रोत हिन्दुओं के हाथ में ही होने की वजह से इनमें कभी कुछ रियायत भी दे दी जाती थी मगर बादशाह मौलवियों की सलाह पर ही चलता था। जरा अक्ल से सोचने वाली बात है कि कुतुबमीनार बनाने वाला कुतबुदीन एबक अपने साथ न तो कोई कारीगर लाया था और न मिस्त्री तथा पत्थरों पर नक्काशी करने वाले लोग उसने पहले से ही मौजूद हिन्दू व जैन मन्दिरों को तोड़ कर इस्लामी इमारतें तामीर कराई थीं। मन्दिरों की भव्यता और उनकी उत्कृष्ठ स्थापत्यकला व नक्काशी से मुस्लिम आक्रन्ता इतने भयभीत रहते थे कि उहें विध्वंस करके उन्हीं के मलबे से नई इमारतें बना डालते थे। अतः वाराणसी में जिस ज्ञानव्यापी मस्जिद का मामला न्यायालय में चल रहा है वह पूरी तरह हिन्दू मन्दिर के विध्वंस की ही मिसाल है औऱ इसी तरह मथुरा के श्रीकृष्ण जन्म स्थान किले का मामला है। इतिहास को कोई कैसे बदल सकता है जबकि यह हकीकत है कि अहमद शाह अब्दाली ने मथुरा-वृन्दावन में सैकड़ाें मन्दिरों को तोड़ डाला था। अतः भारत के मुसलमानों का यह फर्ज बनता है कि वह स्वतः ही ऐसे सभी स्थानों को स्वेच्छा से हिन्दुओं को सौंप दें जिनसे हिन्दू धर्म की पहचान जुड़ी हुई है। उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि मुस्लिम आक्रान्ताओं ने ही उनके पूर्वजों पर जुल्म ढहा कर उनकी पहचान बदलने की कोशिश की थी।