भारत गांवों का देश है और भारत की आत्मा गांवों में निवास करती है। इस तरह के जुमले हमारी पाठ्य पुस्तकों का जरूरी हिस्सा हुआ करते थे लेकिन आर्थिक उदारीकरण की नीतियां अपनाये जाने के बाद से पढ़े-लिखे समाज की दृष्टि और सोच से गांव गायब होने लगे। ऐसे लगने लगा कि देश गांवों को छोड़कर आगे बढ़ रहा है। अर्थशास्त्री नये-नये तथ्य ढूंढ कर लाने लगे। यह सही है कि शहरों पर जनसंख्या का बोझ बढ़ता जा रहा है लेकिन भारत की अधिकांश आबादी गांवों में बसती है।
राज्य सरकारों ने भी तमाम विकास की योजनाओं का फोकस शहरों पर रखा। एक तो कृषि कार्य अलाभकारी होता गया, फिर पहले से मौजूद रोजगार के वैकल्पिक साधन भी कमजोर होते गये। शहरों की तुलना में शिक्षा और स्वास्थ्य सम्बन्धी सुविधाओं का भी अपेक्षित विकास नहीं हो सका। जलवायु परिवर्तन से भी किसानों को लगातार बार-बार मौसम की मार झेलनी पड़ी। हमारी संस्कृति उपभोग की बन गई, हमने प्रकृति का संरक्षण छोड़ दोहन ही किया। शासन की नीतियां भी प्रकृति और संस्कृति के अनुकूल होनी चाहिएं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पिछले कुछ दिनों से ऐसे कार्यक्रमों की शुरूआत कर रहे हैं जिससे प्रकृति और आर्थिक विकास में संतुलन कायम किया जा सके। बढ़ते शहरीकरण और ग्रामीण इलाकों में भी रिहायशी इलाकों के विस्तार के चलते खेती का रकबा सिमटता जा रहा है। देश में खेती के लायक जमीन की कमी नहीं बल्कि देश का बड़ा भूभाग बंजर है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र की एक सभा में कहा है कि 2015-2017 के दौरान भारत में पेड़ और जंगल के दायरे में करीब 8 लाख हैक्टेयर की बढ़ोतरी हुई है और इससे बंजर जमीन को उपजाऊ बनाने में काफी मदद मिलेगी। उन्होंने यह भी घोषणा की कि अब से लेकर 2030 तक भारत अपनी जमीन को उपजाऊ बनाने के मकसद से खेती के कुल रकबे का विस्तार करेगा। एक अध्ययन के मुताबिक भारत की 30 फीसदी जमीन बंजर या खराब है। तकनीक के बल पर ही इस भूमि को खेतीबाड़ी के योग्य बनाया जा सकता है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कान्हा की धरती मथुरा में किसानों और पशुधन के कल्याण के लिये अनेक कार्यक्रमों की शुरूआत की है। पर्यावरण और पशुधन हमेशा से ही भारत के आर्थिक चिंतन का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। पशुपालन और इससे सम्बंधित व्यापार की किसानों की आय बढ़ाने में बड़ी भूमिका है। खेती से जुड़े अन्य विकल्पों पर नया दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। देश में डेयरी क्षेत्र का विस्तार करने के लिये नवाचार और नई प्रौद्योगिकी की जरूरत है। साथ ही पशुधन को संरक्षण की जरूरत है।
इसके लिये राष्ट्रीय पशु रोग नियन्त्रण कार्यक्रम की शुरूआत की गई है। इस कार्यक्रम के तहत 50 करोड़ से ज्यादा पशुओं का टीकाकरण किया जायेगा। पशुओं का बाकायदा स्वास्थ्य कार्ड जारी होगा। पशु पोषित रहेंगे तो पशुओं की नई और उत्तम नस्लों का विकास होगा। कई छोटे-छोटे देशों ने पशुधन के संरक्षण पर बहुत अधिक ध्यान दिया है और उनके डेयरी उत्पाद पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हैं। इससे उनकी अर्थव्यवस्था को काफी मजबूती मिली है। मोदी सरकार ने 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य रखा है। इस दिशा में भी काम जारी है।
अगर केन्द्र सरकार की योजना सफलतापूर्वक आगे बढ़ती है तो किसानों की आय बढ़ेगी और कृषि पर उनकी निर्भरता कम होगी। वह खेती के साथ-साथ इससे जुड़े अन्य काम धन्धे अपना सकते हैं। ग्रामीणों की आय बढ़ेगी तो वह बाजार में खरीददारी के लिये आयेगा। मांग बढ़ेगी तो उत्पादन भी बढ़ेगा। इससे देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी। बेहतर यह होगा कि गांवों को ऐसा विकसित बनाया जाये ताकि यहां के लोगों की शहर पर निर्भरता कम हो जाये। इसके लिये लोगों का माइंडसेट भी बदलने की जरूरत है। सरकार कृषि और गांवों से जुड़ी योजनाओं को अमल में लायेगी तो कृषि, पशुपालन और रोजी-रोजगार के दूसरे साधन भी लाभप्रद बन जायेंगे।
यह याद रखना होगा कि जड़ों से कटकर किया गया विकास कभी अच्छे परिणाम नहीं देता। यह सही है कि आज करोड़ों लोगों के हाथों में मोबाइल है, लाखों लोगों की मेज पर कम्प्यूटर है, उनसे दुनियाभर में बात हो सकती है लेकिन जब तक भारत की जड़ों को नहीं सींचा जायेगा तब तक अर्थतन्त्र मजबूत नहीं होगा। भारत की जड़ें गांवों में हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जमीन से जुड़े नेता हैं। उनके नेतृत्व में ग्रामीण अर्थव्यवस्था के मजबूत होने की उम्मीद है लेकिन इसके लिये जरूरी है कि शासन की नीतियों पर सतत निगरानी रखी जाये।