नागेश्वर राव को सजा का अर्थ! - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

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नागेश्वर राव को सजा का अर्थ!

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2014 में चुनी गई लोकसभा का अन्तिम सत्र समाप्त हो रहा है और देश एक बार फिर से नई लोकसभा चुनने के लिए भारत के आम आदमी की अदालत में खड़ा होने जा रहा है। अब आम चुनाव को लेकर सियासत गर्म है। देखने वाली बात केवल यह होगी ​कि इस मुल्क की लोकतान्त्रिक सरकार की मालिक जनता उसे किस नजरिये से देखेगी मगर आज ही जिस तरह देश के सर्वोच्च न्यायालय ने देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी के कुछ वक्त के लिए अस्थाई मुखिया रहे नागेश्वर राव को अपने हुक्म की नाफरमानी के लिए सजा दी है उससे देश के वातावरण में पसरी उस बरजोरी का अन्दाजा लगाया जा सकता ​है जिसने संविधान और कानून की हदों की परवाह न करते हुए अपने अधिकारों के रुआब में हद लांघ दी मगर संसद की हालत भी इससे कहीं बेहतर नहीं है क्योंकि इसमें भी एक-दूसरे को पछाड़ने की बेतरतीब कसरतें हो रही हैं।

जाहिर है कि जब संसद से लेकर सड़क तक चुनावों के मद्देनजर इलजाम तराशी का बाजार गर्म हो जाता है तो सरकार के मालिक मतदाता को ही इन्साफ करना होता है और हर पार्टी को उसकी असली जगह बतानी होती है मगर मतदाता हमेशा यह ध्यान में रखकर ही इंसाफ करता है कि चुनाव किस हैसियत को बख्शने के लिए हो रहे हैं। जाहिर है कि आने वाले चुनाव देश की सरकार और भारत की भविष्य की राजनीति तय करने के लिए होंगे अतः इनके लिए म्युनिसपलिटी के मुद्दों की कोई अहमियत नहीं हो सकती और लोगों को सड़क-बिजली जैसे मुकामी मसलों तक महदूद नहीं किया जा सकता।

असली सवाल रोजी-रोटी और मुल्क की बेहतरी के लिए तय होने वाली दूरगामी नीतियों का ही रहेगा। देखना केवल इतना होगा कि चुनावों का एजेंडा कौन सी पार्टी तय करके दूसरी पार्टी को जवाब देने के लिए मजबूर करेगी। 2014 के चुनावों में यह काम भाजपा की तरफ से श्री नरेन्द्र मोदी ने बखूबी और पूरे हमलावर अन्दाज में किया था जिसकी वजह से लोगों ने महसूस किया कि सियासत उनके दर्द का एहसास कर रही है मगर असली मुद्दा भ्रष्टाचार का था जिसे खुद पिछली मनमोहन सरकार ने ही विपक्ष को थाली में परोस कर दिया था मगर आने वाले चुनावों में मेज पर बैठे लोगों की जगहें बदल चुकी हैं और रिपोर्ट कार्ड पेश करने वाले लोग भी बदल चुके हैं मगर जो नहीं बदला है वह इस देश का मतदाता है और उसका इंसाफ करने का जज्बा है।

लोकतन्त्र में इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि कितनी पार्टियां चुनावी मैदान में हैं और कितनी एक साथ गोलबन्द होकर लड़ रही हैं और कितनी अकेले ही अपना दमखम दिखाना चाहती हैं। फर्क इस बात से पड़ता है कि लोग किसकी आवाज में अपनी आवाज मिलाते हैं क्योंकि उन्हें इस बात का अंदाजा होता है कि कौन सी पार्टी मुल्क के लिए मुफीद है और कौन सी म्युनिसपलिटी या प्रदेश की सरकार के लिए। जाहिर है कि जब हम राज्यों के संघ भारत की सरकार की बात करते हैं तो उस हिन्दोस्तान की बात करते हैं जिसमें चार प्रमुख जातीय (रेस) के लोग (आर्य, द्रविड़, मंगोल, काकेशियाई) सदियों से रहते आये हैं जो विभिन्न धर्मों और मान्यताओं और आस्था से बन्धे हुए हैं। इनकी हजारों बोलियां हैं, सैकड़ों भाषाएं हैं।

ऐसे विविधता से भरे देश में सिन्धु घाटी की सभ्यता के अनुयाई आदिवासी भी इस देश का गौरव हैं जिनके लिए बाबा साहेब अम्बेडकर ने संविधान के भीतर ही एक और संविधान इसकी अनुसूची पांच व छह में दिया है। देश के आने वाले चुनाव इसी भारत की एकता को एक माला में पिरोकर मजबूत बनाने के लिए हैं जिसे राजनैतिक दल के धागे में ही पिरो कर बनाया जाना है। इसी धागे को कोई राजनैतिक दल राष्ट्रवाद कहता है तो कोई गांधीवाद या समाजवाद अथवा साम्यवाद परन्तु देश सभी में सांझा है जिसका मूलमन्त्र देशभक्ति है और इसका भी मूल संविधान है। अतः संविधान से ऊपर इस देश में और कुछ नहीं हो सकता। हम चुनाव भी लड़ते हैं तो संविधान द्वारा प्रदत्त चुनाव आयोग की बनाई गई आचार संहिता और नियमावली के तहत।

हम सरकार भी बनाते हैं तो उसे भी संविधान की शपथ लेकर ही शासन चलाना होता है। यहां तक कि राजनैतिक प्रतिद्वन्दिता भी संविधान के दायरे में रहकर ही निभानी पड़ती है जिसमें प्रतिशोध पर पूर्ण प्रतिबन्ध है। यह खूबसूरत व्यवस्था उस गांधी बाबा के निर्देशन में हमें मिली है जिसने अंग्रेजों से कह दिया था कि पहले आप यहां से बोरिया बिस्तर बान्धो उसके बाद यह भारत अपनी रफ्तार खुद ही बांध लेगा और ठीक ऐसा ही हुआ। आजादी के बाद हमने अपनी उस ताकत के भरोसे ही आसमान तक नाप दिया जिसे लोकतन्त्र कहते हैं। अतः नागेश्वर राव को मिली सजा को हमें सामान्य घटना नहीं मानना है बल्कि हर जांच का संविधान के समक्ष आत्मसमर्पण मानना है।

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