कारगिल विजय दिवस पर भारत माता के रणबांकुरे की शहादत को सलामी देते हुए जब हम भारत-चीन सीमा पर नजर डालते हैं तो लद्दाख में शहीद हुए 20 वीर भारतीय सैनिकों की वीरगति के प्रति श्रद्धा से मस्तक झुक जाता है और जब पूरे देश पर नजर डालते हैं तो मध्यप्रदेश के मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चौहान ही कोरोना से संक्रमित होकर अस्पताल में नजर आते हैं। कोरोना संक्रमण ने पूरे देश को इस प्रकार कब्जे में लिया हुआ है कि रोजाना 50 हजार नये मरीज जुड़ रहे हैं। अर्थव्यवस्था पर नजर दौड़ाते हैं तो पिछले चार महीनों में कोरोना संक्रमण के चलते 14 करोड़ लोगों का रोजगार छिन चुका है। ये आंकड़े देश के प्रतिष्ठित संस्थान सीएमआईई के हैं। जब देश के राजनीतिक माहौल को देखते हैं तो राजस्थान में गजब का संवैधानिक संकट बना हुआ है। विपक्षी पार्टी कांग्रेस की तरफ देखते हैं तो वह पूरे देश में लोकतन्त्र बचाने को संघर्ष करो का राष्ट्र व्यापी आह्वान कर रही है। जब पड़ोस पर नजर डालते हैं तो नेपाल सरीखा मित्र देश आंखें दिखा कर हमारी 370 वर्ग कि.मी. भूमि को अपनी बता रहा है।
विश्व पटल पर नजर दौड़ाते हैं तो चीन व अमेरिका एक दूसरे को खूंखार नजरों से देख रहे हैं। ये सब इसी बात का परिचायक हैं कि भारत एेसे दौर से गुजर रहा है जिसमें चुनौतियों का अम्बार लगा हुआ है। इस माहौल में हमें सबसे पहले भारत की आधारभूत ताकत को मजबूत बनाते हुए अपने लिए सीधा रास्ता ढूंढना होगा। सरल व सीधा रास्ता यह है कि हम निरपेक्ष भाव से अपनी राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय भूमिका तय करें। इसमें सबसे पहले हमें भारत के आम आदमी को मजबूत बनाना होगा जिससे राष्ट्र निर्माण में उसकी भूमिका बढ़े। इसके लिए सबसे पहले उसके दिल से डर या भय भगाना होगा जो कोरोना को लेकर उसमें समा गया है। यह भय ही है जो विभिन्न स्वरूपों में बाहर आ रहा है जबकि लोकतन्त्र की पहली शर्त होती है कि भय या डर के वातावरण में सभी प्रकार की विकास गतिविधियां अवरोधों से भर जाती हैं।
लोकतन्त्र की सफलता के लिए व्यक्तिगत विकास बहुत आवश्यक शर्त होती है। व्यक्तिगत विकास का सीधा सम्बन्ध राजनीतिक परिपक्वता से होता है जिसका लोकतन्त्र में सर्वाधिक महत्व होता है। इसके लिए वैज्ञानिक सोच का विकसित होना एक शर्त होती है। इसी वजह से हमारे संविधान में लिखा गया है कि भारत की सरकारें आम नागरिकों में वैज्ञानिक सोच पैदा करने के प्रयास करेंगी। कोरोना का सम्बन्ध भी इसी सोच से है जो बताता है कि इस महामारी का सामना करने में देश की स्वास्थ्य प्रणाली किस प्रकार चारों खाने चित्त जाकर पड़ी है। इसके गांवों की तरफ विस्तार करने से सभी ऐसे राज्यों की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की पोल खुल गई है जहां इसका ज्यादा प्रकोप है। अतः अब यह समझ लिया जाना चाहिए कि स्वास्थ्य व शिक्षा में किया गया सरकारी निवेश आम नागरिकों को मिलने वाले लाभांश की तरह होता है जो किसी भी मुसीबत के समय सुरक्षा कवच का काम करता है। यह सुरक्षा कवच ही देश की सेना को हष्ट-पुष्ट नौजवान देता है।
स्वास्थ्य और शिक्षा का राष्ट्रीय सुरक्षा से क्या सम्बन्ध हो सकता है, इसका आभास भी हमें यह तथ्य कराता है। लोकतन्त्र को दुनिया की सबसे बेहतर और सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली इसीलिए माना गया क्योंकि इसमें आम आदमी को खुल कर अपने सवाल सत्ता से पूछने का मौलिक अधिकार प्राप्त होता है। वास्तव में हमें स्वतन्त्रता दिलाने वाली पीढ़ी का सपना भी यही था। इसीलिए महात्मा गांधी ने स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान अपने अखबार ‘हरिजन’ में बार-बार लेख लिख कर कहा था कि आजादी का लक्ष्य सबसे पहले आम भारतीयों के दिलों से अंग्रेजों की सत्ता का भय दूर करना होगा। क्योंकि इसी भय ने उनमें ‘दास मानसिकता’ को परिपक्व किया है। इस दास मानसिकता को ‘मालिक मानसिकता’ में केवल लोकतन्त्र ही बदल सकता है इसी वजह से हमने संसदीय लोकतान्त्रिक प्रणाली अपनाई जो आज दुनिया की सबसे बड़ी प्रणाली कही जाती है। इसी वजह से 26 जनवरी, 1950 को भारत के लोगों ने ‘अपने संविधान’ को खुद पर लागू किया। इतिहास की यह कोई साधारण घटना नहीं थी क्योंकि सदियों से समाज के अमानवीय व्यवहार से पीड़ित ‘शूद्र’ समाज के एक व्यक्ति ‘बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर’ ने यह संविधान लिखा था। पूरे एशिया महाद्वीप में इसके बाद ही नागरिक स्वतन्त्रता की अलख जग पाई थी और एक के बाद एक गुलाम देशों को स्वतन्त्रता मिलनी शुरू हुई थी। भारत भय भगाने का क्रान्ति दूत उस गांधी बाबा के साये में बना जिसने अहिंसा को ही अजेय अस्त्र बना डाला। इसीलिए भारत हमेशा गांधी का देश रहेगा और अपनी मुश्किलों का हल भी इसी रास्ते से निकालने में महारथ हासिल करता रहेगा। आज भारत जिन चुनौतियों का सामना कर रहा है, उनका हल भी गांधीवादी मार्ग में ही छिपा हुआ है मगर इसका मतलब यह नहीं है कि दुश्मन देश को भी हम अहिंसा का पाठ पढ़ाते फिरें क्योंकि 1947 में जब पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला किया था तो स्वयं महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘फौज को इसका करारा उत्तर देना चाहिए और अपना सैनिक धर्म निभाना चाहिए’। अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर गांधी का स्पष्ट मत रहा कि स्थानीय उत्पाद प्रणाली को प्रश्रय देने से विकास और रोजगार दोनों प्राप्त किये जा सकते हैं और स्वावलम्बन को पाया जा सकता है। आर्थिक विषमता दूर करने के बारे में उनकी सोच थी कि सरकार को अपना प्रत्येक कार्य सबसे गरीब आदमी को केन्द्र में रख कर इस प्रकार करना चाहिए कि उसके किसी भी काम का उस पर क्या असर होगा और उसे कितना लाभ मिलेगा? आज की समस्याओं से निपटने के लिए गांधीवाद का नये सिरे से अध्ययन बहुत जरूरी है।