गठबन्धन की राष्ट्रीय राजनीति

गठबन्धन की राष्ट्रीय राजनीति
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सत्ताधारी एनडीए गठबन्धन से दक्षिण भारत की पार्टी आल इंडिया अन्नाद्रमुक का बाहर होना भाजपा के लिए इस मायने में हानिकारक माना जा रहा है कि इससे इस पार्टी का दक्षिण भारत में विस्तार करने का सपना टूट सकता है। जनसंघ के जमाने तक भाजपा को उत्तर भारत की हिन्दी क्षेत्र की पार्टी ही माना जाता था मगर 1980 में इसके भाजपा में रूपान्तरण के बाद इसका विस्तार पश्चिम के गुजरात राज्य व दक्षिण भारत के कर्नाटक राज्य में भी हुआ। इन दोनों राज्यों में विस्तार के साथ ही पिछले दस वर्षों में भाजपा का विस्तार पूर्व के राज्यों जैसे ओडिशा व प. बंगाल के साथ ही पूर्वोत्तर के पर्वतीय व सीमावर्ती राज्यों में भी हुआ। पूर्वोत्तर राज्यों में इसके विस्तार का मुख्य कारण केन्द्र में पिछले दस वर्षों से इस पार्टी का सत्ता में रहना भी माना जा रहा है क्योंकि ये छोटे-छोटे राज्य केन्द्र में सत्तारूढ़ पार्टी से 'बिगाड़' कर नहीं चलते हैं। परन्तु इसके साथ यह भी सत्य है कि भारत के धुर दक्षिणी राज्यों जैसे केरल व तमिलनाडु में यहां की जनता ने बामुश्किल ही पैर रखने की इजाजत दी। तमिलनाडु के कोयम्बटूर व कन्याकुमारी को छोड़ कर भाजपा को कभी भी लोगों ने अपने प्यार के काबिल नहीं समझा।
यही वजह थी कि भाजपा तमिलनाडु में इस राज्य की एक प्रमुख द्रविड़ पार्टी अन्ना द्रमुक के साथ गठबंधन करके आगामी लोकसभा चुनावों में अपना विस्तार करना चाहती थी मगर अन्ना द्रमुक ने एनडीए गठबन्धन से अलग होने की घोषणा करके साफ कर दिया कि उसे भाजपा की नीतियां पसन्द नहीं हैं। वैसे स्व. जयललिता के समय से ही अन्नाद्रमुक भाजपा के निकट समझी जाती थी मगर उसे कांग्रेस पार्टी से भी कोई गुरेज नहीं रहा था। मूल रूप से अन्नाद्रमुक को कम्युनिस्ट व समाजवादी विचारधारा के विरोध में खड़ी हुई पार्टी माना जाता है। जब तक स्व. जयललिता इस पार्टी की सर्वेसर्वा रहीं तब तक इसकी छवि तमिलनाडु की मुख्य द्रविड़ पार्टी 'द्रमुक' के सामने वैचारिक स्तर पर यही मानी जाती रही हालांकि दोनों ही पार्टियां द्रमुक के संस्थापक स्व. सी.एन. अन्नादुरै के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करने में पीछे नहीं रहती थीं। मगर यह भी हकीकत है कि अन्नाद्रमुक व द्रमुक दोनों ही पार्टियों ने केन्द्र में सत्तारूढ़ रहने पर भाजपा व कांग्रेस दोनों के साथ ही सहयोग और सहभागिता भी की। मगर तमिलनाडु भाजपा के वर्तमान अध्यक्ष ने अन्नाद्रमुक के ऊपर जब अपनी पार्टी की विचारधारा थोपने का प्रयास स्व. अन्नादुरै की आलोचना करते हुए किया तो अन्नाद्रमुक में ऊपर से लेकर नीचे तक विद्रोह हो गया। हालांकि प्रदेश भाजपा अध्यक्ष की राज्य की राजनीति में हैसियत शून्य से ऊपर नहीं है मगर अन्नाद्रमुक का लक्ष्य राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा से सहयोग करना था। अतः उसे जब लगा कि प्रदेश अध्यक्ष की बातों का प्रभाव उसके जनाधार पर पड़े बिना नहीं रहेगा तो उसने भाजपा से ही सम्बन्ध विच्छेद करने की घोषणा कर दी। मगर राजनैतिक गठबन्धनों से इनके घटक राजनैतिक दलों का आना-जाना लगा रहता है।
साझा गठबन्धनों की राजनीति ही एेसी होती है। इसकी प्रमुख वजह यह होती है कि गठबन्धनों में शामिल पार्टियों की राजनैतिक विचारधारा अलग-अलग होती है मगर किसी एक लक्ष्य या ध्येय को प्राप्त करने के लिए ये एक मंच पर आ जाती हैं। जिस प्रकार विपक्षी गठबन्धन 'इंडिया' में 28 राजनैतिक दल केवल भाजपा को हराने की गरज से एक मंच पर इकट्ठा हो गये हैं। इससे पहले 1998 व 1999 में भाजपा के नेतृत्व में केन्द्र में सरकार बनाने और कांग्रेस को हराने के लिए एनडीए गठबन्धन में स्व. वाजपेयी के नेतृत्व में 24 से अधिक दल एक मंच पर आ गये थे। इनका लक्ष्य भी मिलकर सरकार बनाना था। इसी प्रकार 2004 में चुनावों के बाद सरकार बनाने की गरज से ही कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए गठबन्धन का गठन हुआ और इसने एक बार नहीं बल्कि दो बार पूरे दस साल डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में सरकार चलाई। इसलिए हमने देखा कि साझा सरकारें भी किस प्रकार स्थिर होकर चलती हैं। वाजपेयी जी ने जब 1999 से 2004 तक पूरे पांच साल सरकार चलाई थी तो इस सरकार के गृहमन्त्री व उप प्रधानमन्त्री श्री लालकृष्ण अडवानी ने इसे एक उपलब्धि बताया था। इसके बाद तो यूपीए की दस साल तक सरकार चली। लेकिन हम देख रहे हैं कि इंडिया गठबन्धन के घटक दल जनता दल के नेता बिहार के मुख्यमन्त्री नीतीश बाबू किस प्रकार भाजपा के प्रेरणा स्रोत दीन दयाल उपाध्याय के जयन्ती समारोह में भाग लेने पटना मंे पहुंच गये। इसे लेकर ही अटकलों का बाजार गर्म हो गया हालांकि इसमें सच्चाई कुछ नहीं है। नीतीश बाबू ने साफ कर दिया कि वह विपक्षी एकता के लिए कृतसंकल्प हैं। लेकिन हम जानते हैं कि भाजपा नीत एनडीए गठबन्धन में भी अब कहने को 38 पार्टियां हैं। हालांकि मुख्य एनडीए से अब तक चार प्रमुख पार्टियां शिवसेना, अकाली दल, जनता दल(यू) व अनाद्रमुक बाहर हो चुकी हैं। यह सब 2020 से लेकर 2023 के बीच ही हुआ है। मगर इसमें कर्नाटक की देवेगौड़ा की जनता दल (स) पार्टी जुड़ भी चुकी है। लोकतन्त्र में राजनैतिक गठबन्धनों का मार्ग कभी बन्द नहीं रहता। कौन जाने कल को मायावती की बसपा पार्टी किस गठबन्धन की तरफ पलटी मार दे।

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