कृषि कानूनों को लेकर विपक्षी दल जिस एकजुटता का प्रदर्शन कर रहे हैं उसकी हकीकत यह है कि उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी और ओडिशा में बीजू जनता दल ने इस पर ठंडा रुख अख्तियार किया हुआ है मगर प. बंगाल की विधानसभा में जिस तरह इन कानूनों के विरोध में मुख्यमन्त्री ममता बनर्जी के नेतृत्व में उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने संकल्प पारित किया उसका मतलब यही है कि विपक्ष किसान आंदोलन को पूरे देश में फैलाना चाहता है। इसके साथ ही दिल्ली की सीमाओं पर बैठे आन्दोलनकारी किसान अपना धरना-प्रदर्शन बन्द करने को तैयार नहीं हैं जबकि देश के सर्वोच्च न्यायालय ने इन कानूनों के अमल पर ही रोक लगा कर एक विशेषज्ञ समिति का गठन कर दिया है जो अगले महीने की समाप्ति पर अपनी रिपोर्ट न्यायालय को देगी। हालांकि न्यायालय के सामने मुख्य विषय संसद द्वारा बनाये गये इन तीन कानूनों की संवैधानिक वैधता का है और इसके समानान्तर केन्द्र सरकार ने इन कानूनों को किसानों के साथ हुई वार्ता में दो वर्ष तक के लिए ठंडे बस्ते में डालने की पेशकश कर दी है। यदि हम इन सब तथ्यों को समग्रता से देखें तो पूरी तरह भ्रम की स्थिति बनी हुई है परन्तु एक हकीकत निर्विवाद रूप से निकल कर बाहर आती है कि सरकार इन कानूनों के व्यापक विरोध को देखते हुए अपने रुख में लचीलापन लाने को तैयार है।
संसद का सत्र चालू है और इस बारे में अन्तिम फैसले पर पहुंचने के लिए विपक्ष व सरकार दोनों के लिए ही यह स्वर्ण अवसर हो सकता है। अतः किसानों का फर्ज बनता है कि वे अपने आंदोलन को वापस लेकर संसद के माध्यम से सरकार तक अपनी बात पहुंचायें। जाहिर है इस काम में विपक्षी दल उनकी मदद कर सकते हैं क्योंकि कृषि कानूनों के मुद्दे पर ही देश के 19 राजनीतिक दलों ने राष्ट्रपति के अभिभाषण का बहिष्कार किया था। किसानों को आन्दोलन खत्म करने पर इसलिए भी विचार करना चाहिए कि राजधानी दिल्ली में इस्राइली दूतावास के बाहर बम विस्फोट करके जो आतंकवादी घटना हुई है वह देश की सुरक्षा के मामले में चेतावनी देती है कि देश विरोधी तत्व किसानों द्वारा चलाये जा रहे आंदोलन का बेजा फायदा उठा सकते हैं। दरअसल 26 जनवरी जैसे राष्ट्रीय पर्व के समय किसानों को अपनी ट्रैक्टर रैली निकालने के बारे में सौ बार सोचना चाहिए था और दूरदर्शिता से काम लेना चाहिए था।
राष्ट्रीय सुरक्षा और आतंकवाद के खिलाफ एेसी मुहिम है जिसका किसी भी प्रकार से राजनीतिकरण नहीं हो सकता और कोई भी राजनीतिक दल सरकार द्वारा उठाये गये कदमों की मुखालफत नहीं कर सकता। गौर करने वाली बात यह है कि 26 जनवरी को राजधानी में ही हिंसा के बारे में पंजाब के मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह का ही कहना है कि भारत से दुश्मनी मानने वाले देश पाकिस्तान की हमेशा यह मंशा रही है कि वह पंजाब में हिंसा को बढ़ावा दे। अतः किसान आन्दोलन का लाभ उठा कर पाकिस्तानी तत्व किसानों के बीच घुस सकते हैं और हिंसा को बढ़ावा दे सकते हैं। कैप्टन साहब कांग्रेस पार्टी के ही नेता हैं और वह जानते हैं कि पाकिस्तान कैसे-कैसे हथकंडे अपना कर भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा खड़ा करता रहता है और पंजाब की शान्ति भंग करने के प्रयास करता रहता है। पंजाब चूंकि देश का ‘अनाज का कटोरा’ है। अतः कैप्टन साहब की बात का गंभीर अर्थ है।
दिल्ली में बम विस्फोट की घटना के बाद यह सवाल उठना वाजिब है कि भारत विरोधी ताकतें कहीं वर्तमान परिस्थितियों का लाभ उठाने में कोई नयी तरकीब न भिड़ा दें। बेशक किसानों को अपनी मांगें रखने का पूरा हक भारत का लोकतन्त्र देता है मगर जब राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्न आता है तो सभी भारतीयों को सारे मतभेद भूल कर एकजुट होने की प्रेरणा हमारा संविधान भी देता है। संविधान स्पष्ट रूप से कहता है कि भारत इसकी विविधतापूर्ण छटा के साये में रहने वाले लोगों से ही बनता है, अतः लोगों की यह जिम्मेदारी सबसे पहले बनती है कि वे अपने देश की एकता की सुरक्षा करें। किसानों की राष्ट्रीय सुरक्षा से लेकर आंतरिक सुरक्षा में अहम भूमिका होती है क्योंकि इन्हीं के बेटे-बेटियां सैनिक व अर्ध सैनिक बलों से लेकर पुलिस तक में भर्ती होकर संविधान का शासन कायम रखने में अपना योगदान देते हैं। हालांकि आज पटना में राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव ने किसानों के समर्थन मे जो प्रदर्शन किया व कृषि कानूनों को लेकर राष्ट्रव्यापी चिन्ता का ही इजहार करता है परन्तु इसका मतलब यह कतई नहीं हो सकता कि बिहार की जनता को राष्ट्रीय सुरक्षा और एकता की चिन्ता नहीं है।
विपक्षी दलों की लोकतन्त्र में सत्ता को लोकोन्मुखी बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है और सड़कों पर हो रहे कोलाहल को संयत व वस्तुपरक ढंग से संसद में रखने की जिम्मेदारी भी होती है। ऐसा करके विपक्षी दल संसदीय लोकतन्त्र में अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी ही निभाते हैं क्योंकि उनका चुनाव भी देश के आम मतदाता ही करते हैं। अतः बहुत आवश्यक है कि किसानों की मांग पर बनी हुई भ्रम की स्थिति को भारत की संसद में ही छांटा जाये और ऐलान किया जाये कि देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कृषि क्षेत्र का भविष्य अन्ततः किसानों की मेहनत व उनकी उद्यमशीलता पर ही निर्भर करता है। इस बारे में सत्ता व विपक्ष की अवधारणाएं अलग-अलग हो सकती हैं मगर किसानों का हित सभी के केन्द्र में है। इसलिए समस्या का हल सर्वानुमति से निकालने के प्रयास होने चाहिएं।
‘‘हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।’’