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राष्ट्रवाद और आर्थिक क्रान्ति

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भारत का लोकतन्त्र फिलहाल जिस दौर से गुजर रहा है उसे कुछ लोग बहुमत के अत्याचार का नाम तक दे रहे हैं और कह रहे हैं कि भारतीय संविधान में अल्पमत के ऊपर बहुमत के शासन की व्यवस्था धर्मनिरपेक्षता के छाते के नीचे जिस तरह कदम-कदम पर जांच-पड़ताल के साथ बनाई गई है, यह उसे नकारती है। वस्तुत: यह कोई विचारधारा की लड़ाई नहीं कही जा सकती बल्कि सत्ता की राजनीतिक लड़ाई कही जा सकती है। इस सन्दर्भ में भारत के विभिन्न राज्यों में गौरक्षकों द्वारा जिस प्रकार का आतंक मचाया जा रहा है उसे लेकर संसद में चल रही बहस का विशिष्ट महत्व है क्योंकि हम भारत के नागरिकों की एकता पर बहस नहीं कर रहे हैं बल्कि इसकी धार्मिक बनावट के कलहकारी तत्वों की कारगुजारियों पर चर्चा कर रहे हैं।

लोकसभा में ऐसे तत्वों को भाजपा के सांसद हुकम देव नारायण यादव ने कालनेमि की संज्ञा दी और कहा कि ऐसे तत्व भारत में हमेशा रहे हैं और आगे भी रहेंगे। इन कालनेमियों पर अंकुश लगाना होगा। राज्यसभा में भी जब इस मुद्दे पर बहस हुई थी तो कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद ने जिस तरफ इशारा किया था उसका सारांश यही निकलता था कि इस देश के कौमी इत्तेहाद को तोडऩे के पीछे कुछ ऐसी ताकतें हैं जो पूरे मसले को बहुसंख्यकों की जोर-जबर्दस्ती में तब्दील करने की नीयत से सियासी रंग देना चाहती हैं मगर लोकसभा में हुकम देव नारायण यादव ने समाजवादी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया को उद्धृत करते हुए कहा कि उन्होंने राष्ट्रवादी और आर्थिक क्रान्तिकारी विचारों से ओत-प्रोत किसी ऐसे राजनीतिक दल के उद्भव की कल्पना की थी जो इस देश में सत्ता परिवर्तन ला सकता है। यह नहीं भूला जाना चाहिए कि डा. लोहिया स्वयं रामायण मेला आयोजित कराया करते थे मगर वह भगवान राम को उत्तर से दक्षिण को जोडऩे वाला नायक भर ही मानते थे। इसी प्रकार वह कृष्ण को पूर्व से पश्चिम को जोडऩे वाला नायक मानते थे।

वह गाय को ऐसा पशु मानते थे जिसका ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सर्वाधिक महत्व था मगर वह धार्मिक पहचान को राष्ट्रवाद से अलग रखकर देखते थे और उनकी आर्थिक क्रान्ति बाजारमूलक अर्थव्यवस्था की धुर विरोधी थी। वह पं. नेहरू के विकास के रास्ते के विरोधी नहीं थे बल्कि उसमें ज्यादा गति चाहते थे और नौकरशाही से मुक्ति चाहते थे। उनका आर्थिक क्रान्ति का मन्त्र किसान से लेकर मजदूर और दस्तकार व कारीगर को सशक्त बनाना था। वह तो यहां तक कहते थे कि एक चिनाई करने वाले मजदूर और इंजीनियर की आमदनी में ज्यादा फर्क नहीं होना चाहिए। डा. लोहिया जीवनपर्यन्त कभी भी किसी चैम्बर ऑफ कामर्स के कार्यक्रम में शामिल नहीं हुए क्योंकि उनका स्पष्ट मत था कि पूंजीपति देश के आय स्रोतों का इस्तेमाल करके ही और आम जनता के धन पर ही अपने उद्योग खड़े करके अपना निजी उत्थान करता है, वह उद्योगों में मजदूरों की बराबर की भागीदारी के प्रबल समर्थक थे। वह राष्ट्रवाद के समर्थक थे मगर धार्मिक आधार पर इसका तिरस्कार करते थे। इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि उन्होंने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई को हल्दी घाटी के उस युद्ध की तरह माना जिस तरह महाराणा प्रताप और अकबर का युद्ध था।

महाराणा प्रताप ने कभी भी अपनी हार स्वीकार नहीं की और जीतने की इच्छा उनमें हमेशा रही। उनका राष्ट्रवाद नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को विजय की अभिलाषा की इच्छा को जागृत रखने वाले महाराणा प्रताप के समकक्ष रखकर देखता था मगर हुकम देव जी को मैं याद दिलाना चाहता हूं कि 1957 के लोकसभा चुनावों के बाद डा. लोहिया ने जनसंघ के बारे में क्या कहा था। उन्होंने कहा था कि जनसंघ, हिन्दू महासभा व राम राज्य परिषद जैसी पार्टियां मर रही हैं। जनसंघ का कोई भविष्य नहीं है। पिछली लोकसभा में इसके तीन सदस्य थे और अब चार चुनकर आये हैं लेकिन वर्तमान में जनसंघ का ही नया अवतार भाजपा लोकसभा में पूर्ण बहुमत में है। इसका मतलब यह निकलता है कि आज की भाजपा डा. लोहिया की उस कल्पना की पार्टी है जो राष्ट्रवाद के साथ आर्थिक क्रान्तिकारी विचारों को भी समाहित करती है मगर ऐसा वास्तव में है क्या? भाजपा सरकार की सभी आर्थिक नीतियां वही हैं जो पिछली मनमोहन सरकार की थीं।

जिस जीएसटी पर इतना बावेला मचा वह मूल रूप से कांग्रेस का ही विचार था। जिस तरह सार्वजनिक कम्पनियों का निजीकरण और विनिवेशीकरण हो रहा है उसकी शुरूआत कांग्रेस ने ही की थी तो फिर फर्क कहां है? यह फर्क बहुत बड़ा था। फर्क था कि भाजपा ने श्री नरेन्द्र मोदी के माध्यम से 2014 के लोकसभा चुनावों में डा. लोहिया के सिद्धान्तों से असहमत होते हुए भी उन्हीं के विचार के अनुरूप समाज के गरीब व मजदूर तबके के एक व्यक्ति को प्रधानमन्त्री पद के प्रत्याशी के रूप में पेश कर दिया। इस प्रतीकात्मक लड़ाई में सिद्धान्त गौण हो गये और व्यक्ति प्रमुख हो गया। आम जनता ने अपनी छवि को इसी प्रतीक रूप में देखना शुरू कर दिया। भाजपा और संघ के देशव्यापी तन्त्र ने इस प्रतीक को झोंपडिय़ों की उम्मीद में बदल डाला मगर इसके साथ ही राष्ट्रवाद का वह स्वरूप भी चिपका रहा जिसे हिन्दुत्व कहा जाता है मगर यह सत्ता में आने का जरिया था, सत्ता करने का नहीं लेकिन कुछ लोग सोच रहे हैं कि राष्ट्रवाद के उन्मादी धार्मिक स्वरूप को भारतीयों का धर्म बनाया जा सकता है।

वे पूरी तरह गलती पर हैं क्योंकि हिन्दोस्तान के हिन्दुओं का इतिहास मुसलमानों के बिना पूरा नहीं है और मुसलमानों का हिन्दुओं के बिना नहीं। हल्दी घाटी के युद्ध में अकबर के साथ राजपूत राजा मान सिंह था तो महाराणा प्रताप के साथ मुसलमान सिपहसालार हाकिम खां सूर। डा. लोहिया ने ही लिखा था कि मुसलमानों ने ही मुसलमानों के साथ लड़ाई की, हिन्दुओं ने हिन्दुओं के साथ और कहीं-कहीं हिन्दू व मुसलमानों ने मगर सवाल सबसे पेचीदा तब हो जाता है जब एक हजार वर्ष पहले के इतिहास में हिन्दू शब्द का कहीं उल्लेख नहीं मिलता इसलिए हिन्दू और मुसलमानों के पूर्वज एक ही रहे होंगे। फिर हम चाहे वन्देमातरम् कहें या जय हिन्द कहें, क्या फर्क पड़ता है। गौहत्या करने पर तोप से बांधकर उड़ा देने की सजा मुगल शहंशाह बहादुर शाह जफर ने ही तय की थी मगर अंग्रेजों ने इसे किस तरह पकड़कर भारत को बांट डाला। क्या हम इतने मूर्ख हैं कि यह हकीकत ही न समझ सकें कि पहला बूचडख़ाना लार्ड क्लाइव ने 1776 में बंगाल में खुलवाया था।

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