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संविधान से निकलता ‘राष्ट्रवाद’

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उस देश का भविष्य अंधकारमय होने से कोई नहीं बचा सकता जिस देश की नई पीढ़ी अशिक्षा और रूढि़वादी विचारों के चलते अपनी बदहाली को किस्मत का लिखा फैसला समझ कर परिस्थितियों को बदलने का हौंसला खो देती है- ये शब्द शहीदेआजम सरदार भगत सिंह के हैं जो उन्होंने ‘जन क्रान्ति’ के सन्दर्भ में व्यक्त किये थे। मजहब को पूरी तरह निजी मामला बताते हुए भगत सिंह ने कहा कि देश प्रेम की लौ समाज को विकसित करने से ही पैदा होती है और इसके लिए वैज्ञानिक सोच का पैदा होना बहुत जरूरी होता है, जो केवल शिक्षा के माध्यम से ही संभव है, परन्तु भारत का दुर्भाग्य यह रहा है कि चुनावी मौसम में हम उन हवाई जुमलों में फंस जाते हैं जिनका न देश के विकास से कोई लेना-देना होता है और न समाज के विकास से और न राष्ट्रीय सुरक्षा और राष्ट्रवाद से। हम चन्द नारों को राष्ट्रवाद समझ लेते हैं और स्वयं को उन शक्तियों के हवाले कर देते हैं जो हमें हर हाल में बदहाल रखकर ही अपनी रोजी-रोटी कमाना चाहते हैं।

इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वे शक्तियां ही समाज में ऐसे दुश्मन खड़े करती हैं जिनको सम्बोधित करके वे समूचे समाज का ध्यान उसकी बदहाली की तरफ से हटा कर अपने आर्थिक हित साधते रहें। किसी भी सभ्य समाज के लिए जरूरी शर्त होती है कि उसकी सोच इस तरह वैज्ञानिक बने कि उसे वे मसले राष्ट्रीय समस्या दिखाई दें जिनकी वजह से समाज में बदहाली पसरी होती है.. जाहिर तौर पर लोकतन्त्र में इसी सोच को विकसित करने का प्रयास किया जाता है जिससे प्रत्येक मतदाता वास्तविक समस्याओं से भली भांति परिचित हो सके, परन्तु राजनैतिक दल उस परिस्थिति से घबराते हैं जब कोई सामान्य व्यक्ति सत्ता से सीधे सवाल पूछने के काबिल हो सके, जिसका अधिकार उसे संविधान देता है अतः उनकी कोशिश होती है कि वह जाति-बिरादरी से लेकर अन्य छोटे-छोटे झगड़ों में उलझा रहे और अपनी बदहाली के लिए समाज के ही किसी दूसरे वर्ग को जिम्मेदार समझता रहे।

भारत की राजनीति में आजकल सचमुच यही हो रहा है और हम इसी बात पर खुश नजर आ रहे हैं कि पुलिस ने यदि कोई चोर पकड़ लिया है तो हम उसे उपलब्धि समझ कर उस पर जश्न मनायें। राष्ट्रीय सीमाओं की सुरक्षा करने के लिए सरकार अपने बजट का बहुत बड़ा हिस्सा खर्च करती है और सुनिश्चित करती है कि हर समय-सीमाएं सुरक्षित रहें और दुश्मन की हर कार्रवाई का मुंह तोड़ जवाब देने के लिए तत्पर रहें। फौज में देश के जवान ही शामिल होते हैं जो इसे मजबूत बनाते हैं। अतः जब सेना का एक भी जवान मरता है तो वह देश का ही नुक्सान होता है, परन्तु हम यह नहीं सोचते कि लोकतन्त्र में सियासत का क्या कर्त्तव्य और धर्म होता है? सेना देश के लोगों से मिल कर ही बनती है उसका नक्सान देश का ही नुकसान होता है अतः सियासत का पहला फर्ज यही बनता है कि वह फौज का जरा भी नुक्सान न होने दे और सियासत के वे पेंच लगाये कि दुश्मन कोई भी गलत काम करने से पहले कांप जाये।

यह कार्य सियासत या सरकार कूटनीति के माध्यम से करती है और ‘जंग के खौफ’ को ‘जंग’ से भी बड़ा बना देती है यदि जम्मू-कश्मीर में आज हालात लगातार बद से बदतर होते जा रहे हैं तो सीधे तौर पर यह सियासत की नाकामी है क्योंकि पिछले कुछ सालों में जिस तरह इस राज्य में फौजियों की जानें गई हैं वह देश का ही नुकसान है। प्रत्येक फौजी राष्ट्रीय सम्पत्ति होता है उसकी मृत्यु को नजरअन्दाज करके हम राष्ट्रवाद की रोशनी में नहीं नहा सकते। सियासत का पहला काम राष्ट्रीय सम्पत्ति को सुरक्षित रखना होता है और फौज का इस्तेमाल इस प्रकार करना होता है कि वह अपने ही लोगों में हमेशा लोकप्रिय बनी रहे और उसके सम्मान में किसी प्रकार की कमी न आये। सबसे जरूरी शर्त यह होती है कि भारत के लोकतन्त्र में फौज राजनीति करने के लिए बिल्कुल नहीं बनी है बल्कि वह संवैधानिक राजनैतिक प्रणाली की मजबूती को देखने के लिए बनी है इसकी व्यवस्था हमारे संविधान में इतनी शानदार कशीदाकारी के साथ हुई है कि दुनिया के दूसरे लोकतान्त्रिक देश दांतों तले अंगुली दबाते हैं, लेकिन फौज के कारनामों का राजनीतिकरण नहीं होना चाहिए।

मगर लोकतन्त्र में कोई भी संस्था या व्यक्ति अथवा पद पवित्र या दूध का धुला हुआ नहीं माना जाता है सभी के ऊपर संविधान की तलवार लटकी रहती है और सभी की जवाबदेही आम जनता द्वारा चुनी गई संसद के प्रति होती है। अतः घूम-फिरकर सिरा संसद भवन की गोलाकार इमारत की तर्ज पर इसी पर जाकर मिल जाता है जिसे संविधान की तरह ही ‘हम भारत के लोग’ ने ही बनाया है। यह वह इमारत है जिसमें बैठे लोगों ने कभी फौज के लिए कानून बनाया था और आजाद भारत में उसकी निष्ठा ब्रिटेन की महारानी की जगह संविधान के प्रति तय की थी। अतः इस देश का राष्ट्रवाद संविधान की जय से ही निकलता है। भारत माता का विराट स्वरूप इसी संविधान में दर्शाया गया है, मगर क्या कयामत है कि कुछ लोग इसी संविधान की प्रतियां संसद भवन के निकट जला देते हैं और उन्हें पकड़ने में भारत की पुलिस तब हरकत में आती है जब अपनी ही संविधान जलाने की फिल्म को अपराधी शान से ‘सोशल मीडिया पर वायरल’ कर देते हैं। यह है सबसे बड़ा राष्ट्रद्रोह।

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