राजनीति की आड़ में जाति, धर्म, सम्प्रदाय क्षेत्रवाद आदि के नाम पर जो भी चल रहा है, उसकी जड़ में हमारी ही सरकारों द्वारा बनाई गई नीतियां हैं। हम किसी वर्ग, जाति या क्षेत्र विशेष को तुष्ट करने के लिए अलग नीतियां बनाते रहे और दूसरों के लिए अलग। इसी कारण शिक्षा के क्षेत्र में भयंकर परिणाम झेलने पड़ रहे हैं। शिक्षा के क्षेत्र में भ्रष्टाचार किस कदर फैला हुआ है, यह हर कोई जानता है। प्राइवेट शिक्षा संस्थान तो मेडिकल में प्रवेश के नाम पर दुकानें चला रहे हैं। शिक्षण संस्थानों का मूलतः उद्देश्य चेरिटेबल होता है लेकिन अब यह अपने मूल उद्देश्य से भटक चुके हैं। शिक्षा आज उत्पाद बनकर रह गई है। शिक्षा प्रणाली में बढ़ती अनियमितताओं के कारण गुणवत्ता बची ही नहीं। निजी शिक्षा, संस्थान सरकारी नियमों की धज्जियां उड़ा रहे हैं, मनमानी फीस, शिक्षा संस्थानों का बाजारीकरण, निजी कोचिंग संस्थाओं की बाढ़ के चलते छात्रों को एक समान अवसर नहीं मिल रहे।
सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में देश के डेंटल और मेडिकल पाठ्यक्रमों में स्नातक और स्नातकोत्तर के लिए राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा (नीट) को बरकरार रखा है। क्रिश्चियनमेडिकल कालेज बेल्लोर बनाम भारत संघ शीर्ष वाली रिट याचिकाओं के एक समूह पर फैसला सुनाते हुए पीठ ने कहा है कि मेडिकल और डेंटल चिकित्सा पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए एक समान परीक्षा निर्धारित करने के अनुच्छेद 19 (1) के साथ 30 संविधान के 25, 26 और 29 (1) के साथ पढ़ने के तहत गैर सहायता प्राप्त और सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक संस्थानों के अधिकारों का उल्लंघन नहीं हुआ है। 2012 में मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया और डेंटल काउंसिल आफ इंडिया द्वारा जारी नीट नोटिफिकेशन की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए याचिकाएं दायर की गई थीं। 2016 में इसे अधिनियम की धारा 10 डी के रूप में वैधानिक प्रावधान के रूप में शामिल किया गया था। जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस विनीत सरन और न्यायमूर्ति एम.आर. शाह ने इन वैधानिक प्रावधानों की संवैधानिक वैधता और इससे पहले के नियमों को भी स्वीकार करते हुए कहा है कि नीट को प्रवेश प्रक्रियाओं में भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए पूरे देश में एक समान मानक स्थापित करने के लिए ही पेश किया गया था।
शीर्ष न्यायालय ने इस तर्क को खारिज कर दिया कि नीट ने अनुच्छेद 19 (1) के तहत शैक्षिक संस्थानों के व्यापार और व्यापार की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन किया है। पीठ की टिप्पणियां भी महत्वपूर्ण हैं-
* अनुच्छेद 19 (1) (जी) के तहत अधिकारपूर्ण नहीं है और योग्यता उत्कृष्टता की मान्यता को बढ़ाने और कदाचारों पर अंकुश लगाने के लिए छात्र समुदाय के हित में उचित प्रतिबंध के अधीन है।
* समान प्रवेश परीक्षा आनुपानिकता के परीक्षण को योग्य बनाती है और यह उचित है। इसका उद्देश्य कई विकृतियों की जांच करना है, जो मेडिकल एजूकेशन में होती है, जो छात्रों की योग्यता को कम करने, शोषण, मुनाफाखोरी और शिक्षा के व्यावसायीकरण को रोकने के लिए कैपिटेशन शुल्क को रोकती है।
* शिक्षा के अपमान का अधिकार किसी को नहीं है। चिकित्सा शिक्षा की गुणवत्ता राष्ट्रीय हित के लिए अनावश्यक है और योग्यता से समझौता नहीं किया जा सकता।
आज गैर सहायता प्राप्त और सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक संस्थानों में अलग-अलग प्रवेश परीक्षाएं आयोजित की जाती हैं जो राष्ट्रीय मानकों को प्रभावित करती हैं। नियामक उपाय किसी भी तरह से धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यकों द्वारा संस्था को संचालित करने के अधिकारों के साथ हस्तक्षेप नहीं करते। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को एक बड़े बदलाव के तौर पर देखा जा रहा है। शीर्ष अदालत ने यह फैसला इसलिए लिया क्योंकि आज शिक्षा को पैसे की ताकत से खरीदा जा रहा है। डेंटल और मेडिकल में प्रवेश की प्रक्रियाओं में अनेक लूपहोल्स हैं जिन्हें खत्म करने की जरूरत है। एक-एक सीट की कीमत लाखों में है।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले से निजी अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों को अपनी पसंद के छात्रों को प्रवेश देने, उनका आर्थिक शोषण करने पर अंकुश लगेगा। अब दाखिले नीट परीक्षा के आधार पर मेरिट से होंगे। संस्थानों को अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान का दर्जा देने के मामले पर भी विवाद उठते रहे हैं। धर्म के नाम पर देश में हजारों शिक्षण संस्थान हैं लेकिन शिक्षा हर योग्य छात्र को मिलनी चाहिए। बहुत कुछ ऐसा है जो पर्दे के पीछे खेला जा रहा था। अब देखना यह है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला शत-प्रतिशत लागू हो और प्रतिभाओं को दाखिला मिले।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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