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कश्मीर में बातचीत जरूरी

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जम्मू-कश्मीर समस्या के समाधान के लिए बातचीत का जो प्रस्ताव गृहमंत्री श्री राजनाथ सिंह ने किया है उसका खुले दिल से स्वागत किया जाना चाहिए हालांकि यह तजवीज बहुत लम्बा समय व्यर्थ में गंवाने के बाद की गई है। यह सिवाय भुलावे के कुछ और नहीं हो सकता कि भारत के किसी राज्य की समस्याओं का हल सैनिक तरीके से निकाला जा सकता है। सबसे पहले यह समझा जाना बहुत जरूरी है कि कश्मीरी जनता मूल रूप से भारत के पक्ष में रही है और यह पाकिस्तान विरोधी रही है। भारतीय संघ का हिस्सा रहते हुए ही यह प्रदेश कुछ खास रियायतों की मांग जरूर अपनी भौगोलिक व सांस्कृतिक परिस्थितियों को देखते हुए करता रहा है। इस तथ्य का, इस सूबे का भारतीय संघ में विलय करते समय भी संज्ञान लिया गया था तभी 1947 में इस रियासत के तत्कालीन महाराजा हरिसिंह की वे शर्तें भारत की सरकार ने स्वीकार की थीं जिसके तहत इसे विशेष राज्य का दर्जा देते हुए इसके लिए पृथक संविधान की व्यवस्था की गई थी। जिस अनुच्छेद 370 पर विवाद शुरू से ही गर्माया जाता रहा है उसकी हकीकत केवल इतनी है कि यह भारत की आजादी के बाद भारतीय संघ का हिस्सा बनाए गए जम्मू-कश्मीर को नई दिल्ली से जोड़ने वाला मजबूत पुल है।

हम इस हकीकत को भूल जाते हैं कि भारत से पाकिस्तान के अलग होते समय जम्मू-कश्मीर एक स्वतन्त्र रियासत थी और इसका विलय 26 अक्तूबर 1947 को भारत में तब हुआ जब इस पर पाकिस्तानी फौजों ने कबायलियों का सहारा लेकर आक्रमण कर दिया था। पाकिस्तान शुरू से ही इसे विवादित क्षेत्र बनाना चाहता था और इसके लिए उसी मजहब को आगे कर रहा था जिसके आधार पर पाकिस्तान का निर्माण हुआ था मगर कश्मीरी जनता ने पाकिस्तान के इस मंसूबे को कभी स्वीकार नहीं किया और इस राज्य के सबसे लोकप्रिय नेता स्व. शेख मुहम्मद अब्दुल्ला ने 1950 में राष्ट्र संघ में जाकर यह साफ किया कि कश्मीरी भारत के साथ ही पूरे सम्मान के साथ रह सकते हैं। यह एेसा इतिहास है जिसे किसी भी तरह पलटा नहीं जा सकता। बेशक कालान्तर में कश्मीर के पृथक संविधान को लेकर राजनीतिक आंदोलन जनसंघ के संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने किया और 1953 में पं. जवाहर लाल नेहरू को शेख साहब की सरकार को बर्खास्त करके नजरबंद करना पड़ा मगर यह भी हकीकत है कि चीन से युद्ध के बाद 1963 में जब स्वयं पं. नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को जेल से रिहा करके पाकिस्तान भेजा तो इस्लामाबाद पहुंचने पर पाक के तत्कालीन फौजी हुक्मरान जनरल अयूब ने शेख साहब का राजकीय स्वागत किया और उन पर पाकिस्तान के हक में आने के लिए सभी तरह के हथकंडे अपनाये मगर जब शेख साहब ने इस्लामाबाद छोड़ा तो जनरल अयूब ने उन्हें ‘नेहरू का गुर्गा’ कहकर विदा किया। अतः पूरी तरह स्पष्ट होना चाहिए कि कश्मीरी जनता किसी भी नुक्ते से कभी भी पाकिस्तान के हक में नहीं रही है। पाकिस्तान को शुरू से यही हकीकत फांस की तरह चुभती रही है और वह यहां की जनता को बरगलाने के लिए सारे दांव–पेंच भिड़ाता रहा है और इसे अंतर्राष्ट्रीय समस्या बनाने की जुगत भिड़ाता रहा है।

जनरल अयूब ने तो 1965 का युद्ध सिर्फ कश्मीर के मुद्दे पर ही बेवजह लड़ा था और कुछ अंतर्राष्ट्रीय ताकतों की शह पर लड़ा था जिसके पीछे अमरीका का हाथ स्पष्ट था। तब भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्व. लाल बहादुर शास्त्री ने एेलान किया था कि समूचा जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और इसके किसी हिस्से पर कोई चोट किसी भी हालत में बर्दाश्त नहीं की जाएगी लेकिन पाकिस्तान समूचे राज्य में राष्ट्र संघ के उस प्रस्ताव का रोना रोता रहता था जो 1948 में उसने पारित करके कहा था कि पूरे सूबे में जनमत संग्रह करके फैसला किया जाना चाहिए। भारत ने इस प्रस्ताव को शुरू में ही कूड़ेदान में डाल दिया था और कहा था कि कश्मीर का फैसला तभी हो गया था जब इसके विलय पत्र पर महाराजा हरिसिंह ने 26 अक्तूबर को हस्ताक्षर किये थे और उसके बाद पं. नेहरू ने इस पर शेख अब्दुल्ला के भी हस्ताक्षर इसलिए कराये थे कि अकेले वही एकमात्र एेसे नेता थे जो पूरे जम्मू-कश्मीर के नागरिकों का प्रतिनिधित्व अपनी पार्टी नेशनल कांफ्रैंस के जरिये करते थे और इसमें हिन्दू– मुसलमान अपनी कश्मीरी पहचान की मार्फत प्रमुख थे। यही वजह थी कि रियासत का विलय करते हुए महाराजा हरिसिंह ने यह तजवीज भी रखी थी कि शेख अब्दुल्ला ही भारत में मिलाई गई उनकी रियासत के प्रधानमन्त्री होंगे।

यह भी बेवजह नहीं था कि 1974 दिसम्बर में स्व. इंदिरा गांधी ने कश्मीर समस्या के हल के लिए शेख साहब से ही समझौता किया था। इसकी असली वजह यही थी कि कश्मीर मसले से पाकिस्तान को पूरी तरह इस तरह अलग कर दिया जाये कि वह मजहब के नाम पर इस राज्य के लोगों को लड़ाने की कोशिश न कर सके और अपनी हैसियत समझ कर अपनी हदों में रहे क्योंकि 1972 में शिमला समझौता करके इंदिरा गांधी ने सूबे में जनमत संग्रह करने की मांग को हमेशा के लिए दफना दिया था और एेलान कर दिया था कि पाकिस्तान को भारत से जिस मामले में जो भी शिकायत है वह केवल नई दिल्ली की सरकार के साथ ही उठायेगा मगर इसके बाद चीजें बदलने लगीं और पाकिस्तान में पुनः फौजी शासन लागू होने पर जनरल जिया-उल-हक ने भारत को भीतर से चोट पहुंचाने की गरज से कश्मीर के रास्ते आतंकवाद बढ़ाने की नीति पर चलना शुरू किया और कश्मीर में अपने कुछ एजैंटों की मार्फत यह काम करना शुरू किया। इन एजैंटों ने पाकिस्तान में जब भी फौजी शासन आया अपनी गतिविधियों में इजाफा करना शुरू किया और एेसा मुकाम फिर 1999 में आया जब इस्लामाबाद में एक बार फिर से फौजी हुक्मरान जनरल परवेज मुशर्रफ ने हुकूमत को अपने कब्जे में लिया। कश्मीर मुद्दा पाकिस्तानी फौज के वजूद का मसला भी है क्योकि इसकी मार्फत वह पाकिस्तान की सियासत को अपनी मुट्ठी में रखने की तरकीब भिड़ाती रहती है। मुशर्रफ ने बड़े एतमाद के साथ जमीन से खोद कर राष्ट्रसंघ का प्रस्ताव निकाला और कश्मीर में आतंकवादी कार्रवाइयों को ‘आजादी की जंग’ का नाम दे डाला लेकिन अब हालात बदले हैं और इस तरह बदले हैं कि हम सब भारतीय बैठ कर जम्मू-कश्मीर का राजनी​ितक हल भारत के संविधान के दायरे में ही निकालें और इसके लिए सभी पक्षों से बात करें। इस राज्य की राजनीतिक परिस्थितियां पूरी तरह बदल गई हैं। सूबे में भाजपा व पीडीपी की मिली-जुली सरकार है। पाकिस्तान की शह पर काम करने वाले आतंकवादियों की कमर टूट चुकी है। सेना की केवल इतनी ही भूमिका हो सकती थी, जो उसने पूरी कर दी है। अतः गृहमन्त्री के प्रस्ताव का विस्तार होना चाहिए। आम कश्मीरी में आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए सभी प्रयास होने चाहिएं।

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