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नेहरू स्मृति से खिलवाड़ क्यों?

जिस तरह भारत का पाचीन इतिहास सम्राट अशोक और शहंशाह अकबर के बिना पूरा नहीं हो सकता उसी तरह आधुनिक भारत का इतिहास पं. जवाहर लाल नेहरू

जिस तरह भारत का पाचीन इतिहास सम्राट अशोक और शहंशाह अकबर के बिना पूरा नहीं हो सकता उसी तरह आधुनिक भारत का इतिहास पं. जवाहर लाल नेहरू और इन्दिरा गांधी की निर्णायक भूमिका के बिना पूरा नहीं माना जा सकता। क्योंकि इन दोनों नेताओं ने ही भारत के विकास की वह नींव रखी थी जिसका फल आज की पीढि़यां खा रही हैं। इनमें भी पं. जवाहर लाल नेहरू का योगदान इतना सर्व व्यापी रहा है कि भारत के हर प्रान्त और तबके के लोगों पर उसका असर आने वाली कई सदियों तक बना रहेगा। अंग्रेजों द्वारा बुरी तरह कंगाल किये गये भारत को अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए पं. नेहरू ने जो नीतियां बदलती दुनिया को देखती हुई बनाईं उसी का परिणाम है कि आज भारत विश्व के औद्योगिक देशों की शृंखला आकर खड़ा हो चुका है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री की तुलना अगर हम किसी अन्य प्रधानमंत्री ( इदिरा गांधी तक) से करने की भूल करते हैं तो अपने गौरवशाली इतिहास को ही मटमैला करने का प्रयास करेंगे। आजादी के पहले से ही नेहरू को जो तथ्य सबसे ज्यादा तकलीफ देता था वह इस मुल्क में चारों तरफ पसरी हुई गरीबी और किसानों की दुर्दशा ही थी। यही वजह थी कि भारत के आजाद होते ही पं. नेहरू ने इस देश के विकास का जो खाका खींचा उसमें समाज के सबसे पिछड़े और गरीब आदमी को केन्द्र में रखते हुए योजनाएं बनाईं और तय किया कि इस मुल्क की सम्पत्ति का बंटवारा इस तरह हो जिसमें गरीबों की शिरकत हो सके।

पं.नेहरू का यह मानना रहा था कि भारत कभी भी गरीब मुल्क नहीं रहा था बल्कि अंग्रेजों ने इसकी सम्पत्ति का दोहन करके इसे अपने दो सौ साल के शासन में गरीब बनाया अतः यह समझने वाली बात है कि उनकी कथित समाजवादी सोच का आधार इस देश के गरीब आदमी की वह पीड़ा थी जो अपने ही देश में गुलामों की जिन्दगी जीते हुए अंग्रेजों द्वारा दी गई रियायतों पर गुजर–बसर कर रहा था लेकिन नेहरू स्वतन्त्र भारत में इसी गरीब आदमी की सत्ता में सीधी भागीदारी चाहते थे जिससे उसका खोया हुआ आत्मसम्मान और गौरव वापस आ सके और वह अपनी सरकार खुद बना सके। यही वह थी कि उन्होंने भारत में संसदीय लोकतंत्र की स्थापना करने के लिए अपने समय के हर पार्टी के नेता से लोहा लिया और एक समय तो एेसा भी आया जब वह अपने पिता मोती लाल नेहरू तक से बगावत करके कांग्रेस पार्टी के सिद्धान्तों पर टिके रहे और उनकी स्वराज पार्टी का उन्होंने विरोध किया। हम आज जो बना–बनाया भारत देख रहे हैं उसके पीछे जवाहर लाल नेहरू की वह दूर दृष्टि है जिसमें इस देश की आने वाली पीिढ़यों का भविष्य सुरक्षित रखने का पक्का संकल्प था। बेशक कुछ आलोचक उनके सिर पर कश्मीर का बोझा डालते हैं मगर वे भूल जाते हैं कि आजादी मिलने के बावजूद जम्मू-कश्मीर एेसी रियासत थी जिसने भारत और पाकिस्तान बने दो देशों में से किसी में भी अपना विलय मंजूर नहीं किया था और इस रियात के महाराजा हरिसिंह ने भारत में विलय करने की इच्छा तब प्रकट की थी जब पाकिस्तान ने उस पर आक्रमण कर दिया था और वह भी अपनी शर्तों पर।

कोई भी हिन्दोस्तानी अपने दिल पर हाथ रख कर यह कह सकता है कि नेहरू ने जो शिक्षा व्यवस्था हमें सौंपी थी उसके चलते ही कस्बों से निकले हुए साधारण परिवारों और गरीबों के बच्चे एेसे ऊंचे–ऊंचे पदों पर पहुंच सके जिसकी कल्पाना अंग्रेजों के भारत में करना भी दिन में सपना देखने के समान था। यह नेहरू का ही सपना था कि किसान का बेटा कृषि इंजीनियर बन सके, सार्वजनिक क्षेत्र में स्वास्थ्य सेवाओं को जिस तरह नेहरू जी ने मजबूत किया उसका यही सबसे बड़ा प्रमाण है कि आज हर कोई राज्य अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान जैसा संस्थान मांग रहा है। स्वतन्त्र होते ही जिस तरह शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने आई.आई.टी. और मेडिकल कालेजों की स्थापना पर जोर दिया उससे गरीब आदमी का मेधावी बेटा भी इंजीनियर और डाक्टर बनने का ख्वाब पूरा कर सका। मगर हमने आज नेहरू की सौंपी हुई विरासत का यह हाल कर दिया है कि शिक्षा और अस्पतालों को ही भारी मुनाफे का जरिया बना कर गरीब आदमी के बेटा-बेटी से ऊंची पढ़ाई का हक छीन लिया है और हम शेखी बघार रहे हैं शिक्षा ऋणों की। कौन सा प्रधानमन्त्री दूसरा भारत में एेसा हुआ है जिसकी यादों को संजोने का सपना आम भारतवासी देखता है? बेशक इन्दिरा गांधी और लाल बहादुर शास्त्री का नाम लिया जा सकता है।

इनके संग्रहालय पहले से ही मौजूद हैं। हकीकत यह है कि पी. वी. नरसिम्हाराव इस मुल्क के अभी तक के सबसे कमजोर और नाकाबिल प्रधानमन्त्री हुए हैं। उन्होंने बहुत मेहनत से कमाये गये भारत के उस सरमाये को लूटने के दरवाजे खोले जिन्हें कड़ी मेहनत करके भारतवासियों ने बनाया था। वी.पी. सिंह और चन्द्रशेखर की अधमरी सरकारों के दौरान जिस तरह इस देश की अर्थ व्यवस्था का कचूमर निकाला गया उससे घबरा कर नरसिम्हाराव ने भारत के बाजारों को विदेशी कम्पनियों के लिए खोल डाला और तोहमत विदेशी मुद्रा भुगतान सन्तुलन पर लगा दी। यह समस्या इन्दिरा गांधी के सामने भी 1965 के युद्ध के बाद शास्त्री जी की मृत्यु होने पर आयी थी। मगर उन्होंने इसका समाधान पूरे कौशल के साथ रुपये का पहली बार अवमूल्यन करके किया था। इसके बाद इन्दिरा गांधी ने तो 1971 में पाकिस्तान के दो टुकड़े करके दुनिया को दिखा दिया था कि मजहब के नाम पर मुल्क तामीर करना सिर्फ छलावा भर था मगर नरसिम्हाराव ने तो पूरी विरासत को पलटते हुए अपनी आंखों के सामने अयोध्या में बाबरी मस्जिद को ढहते हुए देख कर हिन्दोस्तान में मजहब की उस सियासत को फिर से जिन्दा कर दिया जिसकी वजह से 1947 में इसके दो टुकड़े हुए थे।

क्या हम एेसे प्रधानमन्त्री की यादों का बोझ उठा सकते हैं? क्या यह मुल्क वी. पी. सिंह जैसे प्रधानमन्त्री के कारनामों को संजोकर रखना चाहेगा जिसने हिन्दोस्तान के लोगों को पिछली सदियों में पहुंचा कर उनकी जाति और गोत्र की याद दिलाते हुए पूरे समाज को एक दूसरे का दुश्मन बना डाला। बेशक अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार छह साल तक रही। वाजपेयी जी की सरकार में वित्तीय घोटाले कम नहीं हुए और उन्होंने सरकारी सम्पत्ति को बेचने के लिए अलग से विनिवेश मन्त्रालय तक की स्थापना कर डाली। इसके बावजूद उनका योगदान राजनीति में है और इसे हास्य व व्यंग्य पुट प्रदान करना है और नेहरू द्वारा दी गई संसदीय व्यवस्था को मजबूत बनाये रखने का है। बाकी प्रधानमन्त्री तो जो भी हुए वे सब हादसों के प्रधानमन्त्री थे। इनमें चौधरी चरण सिंह से लेकर देवगौड़ा व गुजराल तक आते हैं। मोरारजी देसाई का जिक्र कैसे किया जाये उन्हें तो पाकिस्तान ने न जाने किस खिदमत के लिए निशान-ए- पाकिस्तान के अपने सबसे बड़े राष्ट्रीय सम्मान से नवाजा था? इसलिए नेहरू संग्रहालय में किसी अन्य धानमन्त्री को धुसेङ कर उससे छेड़छाड़ करना भारत की उस आत्मा के साथ खिलवाड़ करना है जो गंगोत्री से लेकर अरब सागर तक फैली हुई है चीन की दगा ने नेहरू को भीतर से इस कदर हिलाया था कि वह इसके डेढ़ साल बाद ही चल बसे।

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