भारत के पड़ोसी देश नेपाल में सीपीएन-यूएमएल के अध्यक्ष के.पी. शर्मा ओली ने प्रधानमंत्री पद सम्भाल लिया है। करीब दो माह पूर्व पूर्ण गणतांत्रिक संविधान के हत हुए पहले संसदीय और स्थानीय चुनावों में वाम गठबंधन ने सत्तारूढ़ नेपाली कांग्रेस को भारी शिकस्त दी थी। ओली के नेतृत्व वाली सीपीएन-यूएमएल और पुष्प मल दहल प्रचंड के नेतृत्व वाली पीपीएन माओवादी सैंटर के गठबंधन ने संसद के निचले सदन की 275 सीटों में से 174 सीटों पर विजय हासिल की जबकि उच्च सदन की 59 में से 39 सीटें प्राप्त हुईं। इस तरह नेपाल में लगभग एक दशक तक चले गृहयुद्ध के बाद नवम्बर 2006 में चालू हुई राजनीतिक प्रक्रिया अब जाकर एक निश्चित मुकाम पर पहुंच गई है। नेपाल में राजशाही के खात्मे के बाद से लेकर अब तक 11 वर्ष लम्बी राजनीतिक प्रक्रिया के दौरान नेपाल ने कई उतार-चढ़ाव देखे। इस दौरान राजनीतिक अस्थिरता बनी रही। असहमतियों के कारण 2008 में चुनी गई संविधान सभा बार-बार कार्यकाल बढ़ाने के बावजूद संविधान का कोई सर्वसम्मत प्रारूप पेश नहीं कर पाई।
अंततः 2012 में नेपाल के सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद 2013 में पुनः संविधान सभा का चुनाव हुआ। इस संविधान सभा ने दो वर्षों के अन्दर नया संविधान सौंप दिया जिसके तहत ही आम चुनाव हुए। के.पी. शर्मा ओली दूसरी बार प्रधानमंत्री बने हैं लेकिन उनकी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती ठप्प पड़ी विकास प्रक्रिया को पटरी पर लाना, देश की अर्थव्यवस्था में सुधार लाना, भूकम्प से तबाह देश का पुनर्निर्माण करना आैर देश में राजनीतिक स्थिरता कायम करने की है। यह भविष्य के गर्भ में है कि आेली ऐसा कर पाएंगे? अभी उन्हें पद सम्भाले एक दिन ही हुआ था कि सहयोगी दल यूएमएल ने नई शर्त रख दी है। यूएमएल का कहना है कि राजशाही के खात्मे के लिए किए गए सशस्त्र संघर्ष की प्रवृत्ति राजनीतिक थी इसलिए उसकी राजनीतिक उपलब्धियों को भी सरकार अपनाए। फिलहाल यूएमएल ने सरकार में शामिल होने से इन्कार कर दिया है। के.पी. शर्मा ओली को चीन समर्थक माना जाता है। जहां तक भारत का सम्बन्ध है, उसने हमेशा ही इस बात का समर्थन किया है कि उसके पड़ोस में मजबूत लोकतांत्रिक सरकार को, जिससे राजनीतिक स्थिरता बनी रहे। ओली और माओवादियों में अच्छी समझ-बूझ बनी हुई है इसीलिए सीपीएन-यूएमएल और नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी सैंटर) का जल्द ही विलय भी होने वाला है लेकिन सीपीएन-यूएमएल ने ‘जनयुद्ध’ की वैधता को अपनाने से इन्कार कर दिया है। इससे एकीकरण के प्रयासों को गहरा आघात लगा है। नेपाल में बंदूकों के साथ यह संघर्ष किया गया था जिस दौरान 13 हजार से अधिक लोग मारे गए थे और 1300 लापता हैं। माओवादियों की नई शर्त से राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तीखी प्रतिक्रिया हो सकती है।
1970 और 1980 के दशक में राजशाही का विरोध करने के कारण आेली 14 वर्ष तक जेल में रहे। देश में जब मौजूदा संविधान बना था उस समय भी ओली 2015 से 2016 तक प्रधानमंत्री रहे थे। मधेसियों को संविधान में दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने के विरोध में शुरू हुए मधेसी आंदोलन के दौरान नाकाबंदी के चलते भारत और नेपाल के सम्बन्ध काफी बिगड़ गए थे, बाद में मामला शांत हुआ था। आेली ने भारत पर नेपाल में हस्तक्षेप के आरोप लगाए थे। भारत और चीन दोनों ने नेपाल को लुभाने के लिए भारी निवेश किया है ताकि उसके साथ एक भू-राजनीतिक सहयोगी के रूप में सम्बन्धों को विकसित किया जा सके। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज ने ओली को पुनः प्रधानमंत्री बनने पर बधाई देते हुए उन्हें भारत आने का न्यौता दिया है। अब सवाल यह है कि ओली नेपाल के भारत और चीन से सम्बन्धों में कितना संतुलन कायम रखेंगे। ओली को एक व्यावहारिक प्रधानमंत्री के रूप में देखा जा रहा है। दुनिया के सबसे गरीब देशों में से एक नेपाल ने गठबंधन की राजनीति के दौर में कारोबार जगत का भरोसा खो दिया है। इस समय भ्रष्टाचार चरम पर है। नई सरकार को विरासत में एक ऐसी अर्थव्यवस्था मिली है जिसमें निर्यात और उत्पादन घट गया और जो विदेशों के पैसे पर ही चल रहा है।
ओली की सबसे बड़ी चुनौती यह भी है कि वह नेपाल में आतंकवादियों का गढ़ कैसे ध्वस्त करते हैं। नेपाल मोस्ट वांटेड आतंकवादियों और अपराधियों का सॉफ्ट कोरिडोर बन गया है। भारत ने हाल ही में इंडियन मुजाहिद्दीन के खूंखार आतंकवादी आरिज खान उर्फ जुनैद को नेपाली सीमा के निकट बनबसा में गिरफ्तार किया है। पहले भी कई आतंकी पकड़े जा चके हैं। नेपाल के रास्ते नकली नोटों की खेप, हथियारों की खेप भी भेजी जाती रही है। प्रधानमंत्री पद के लिए आेली का समर्थन प्रचंड की पार्टी सीपीएन माओवादी के अलावा यूसीपीएन माओवादी, राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी नेपाल और मधेसी राइट्स फोरम डेमोक्रेटिक के अलावा 13 अन्य छोटी पार्टियों ने किया है। राजनीतिक तौर पर ओली को काफी मजबूत प्रधानमंत्री के तौर पर देखा जा रहा है लेकिन विदेश नीति के विशेषज्ञों का मानना है कि आेली शासन में नेपाल में चीन का दखल बढ़ेगा जिसका असर भारत पर भी पड़ेगा। यह सही है कि दोनों देशों के धार्मिक, सांस्कृतिक आैर आर्थिक सम्बन्ध बेहद प्रगाढ़ हैं। भारत ही नेपाल का स्वाभाविक मित्र है। यह ओली पर निर्भर करेगा िक नेपाल दोनों देशों से संतुलित मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाए। नेपाल भारत और चीन के बीच सैंडविच की तरह है। वैश्वीकरण और उदारवाद के दौर में सम्बन्धों का विस्तार करने में कोई बुराई नहीं लेकिन भारतीय हितों की रक्षा तो हमें करनी ही होगी।