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नेपाल : क्या खत्म होगा प्रचंडवाद

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28 मई, 2008 को नेपाल के इतिहास में एक युग का अंत हो गया था, इसी दिन नेपाल राजशाही का पतन हुआ था। यद्यपि भारत के एक बड़े वर्ग में दुनिया के एक मात्र हिन्दू राजशाही के अंत को लेकर थोड़ी बहुत कसक होगी मगर सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश होने के नाते भारत के लिए पड़ोस में एक स्थिर और लोगों द्वारा चुने गए प्रजातंत्र पर संतोष व्यक्त करना वक्त की मांग थी। लेकिन तब से लेकर आज तक नेपाल की राजनीति अनिश्चितताओं से गुजर रही है। एक के बाद एक सरकारें बदलीं प्रधानमंत्री बदले, नेपाल ङ्क्षहसा और भीतरी असंतोष का शिकार रहा। नेपाल में संसदीय चुनाव फरवरी 2018 में होने वाले हैं। नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल प्रचंड ने नेपाली कांग्रेस के साथ पिछले साल हुए समझौते के आधार पर प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। इससे नेपाली कांग्रेस प्रमुख शेर बहादुर देऊबा के प्रधानमंत्री बनने का मार्ग प्रशस्त होगा।

सत्तारूढ़ दलों नेपाली कांग्रेस और प्रचंड की पार्टी सीपीएन (माओवादी सैंटर) के बीच सहमति बनी थी कि फरवरी 2018 में संसद के चुनाव होने तक दोनों दल बारी-बारी से सरकार का नेतृत्व करेंगे। प्रचंड को स्थानीय चुनावों तक पद पर बने रहना था। बाकी के दो चुनाव देऊबा के नेतृत्व में होने हैं। नेपाल के नागरिकों ने दो दशक में पहली बार हुए स्थानीय चुनावों में 14 मई को मतदान किया था। प्रचंड दूसरी बार प्रधानमंत्री थे और इस बार उनका कार्यकाल केवल 9 महीने का रहा। किसी भी प्रधानमंत्री की कारगुजारी का आकलन करने के लिए 9 माह का समय बहुत कम होता है। वर्ष 2008-2009 के दौरान प्रधानमंत्री के अपने कार्यकाल में प्रचंड के भारत के साथ संबंध अच्छे नहीं थे। उन्होंने एक के बाद एक भूलें कीं। के.पी. ओली के समय भारत और नेपाल के संबंधों में तनाव आ गया था। लेकिन प्रचंड ने इस बार पद सम्भालने के बाद विदेश दौरे के लिए चीन की बजाय भारत को चुना था। प्रचंड ने गठबंधन धर्म निभाते हुए प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा तो दे दिया लेकिन सवाल यह है कि क्या शेर बहादुर देऊबा के नेतृत्व में नेपाल की नीतियों में फेरबदल होगा।

प्रचंड को नेपाल की राजनीति में 13 फरवरी, 1996 में शुरू हुए नेपाली जनयुद्ध का नायक माना जाता है। इस जनयुद्ध में लगभग 13 हजार नेपाली नागरिकों की हत्याएं की गईं। प्रचंड द्वारा माओवाद, लेनिनवाद एवं माओवाद के मिले-जुले स्वरूप को नेपाल में प्रचंडवाद के नाम से पुकारा जाता है। उनका झुकाव चीन की तरफ ज्यादा है। यह भी सत्य है कि चीन ने प्रचंड के जनयुद्ध में हर तरह की मदद की। चीन ने ही जनमुक्ति सेना को हथियार मुहैया करवाए और फंडिंग भी की। प्रचंड के दूसरे कार्यकाल में भी असफलताओं के साथ-साथ विफलताएं भी रहीं। वर्ष 2015 में नेपाल में नए संविधान को लागू किया गया था लेकिन इस संविधान में मधेशियों को दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया गया था। नेपाल में मधेशियों ने बड़े पैमाने पर आंदोलन किया। नेपाल में कई माह ङ्क्षहसा का दौर जारी रहा और मधेशियों की नाकेबंदी के दौरान नेपाल को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा था। नेपाल बार-बार आरोप लगा रहा था कि मधेशियों के आंदोलन को भारत समर्थन दे रहा है।

नेपाल और भारत में अविश्वास बढ़ता गया। प्रचंड ने प्रधानमंत्री बनते वक्त कहा था कि संविधान में संशोधन करके मधेशियों को राजनीति की मुख्यधारा में लाएंगे लेकिन वह इसमें कामयाब ही नहीं हुए। प्रचंड अपनी ही पार्टी में बिखराव को सम्भाल नहीं पाए।  प्रचंड के नेतृत्व वाली सरकार का चीन से लगाव रहा। अभी हाल ही में एक हाइड्रो इलैक्ट्रिक प्रोजेक्ट चीन की सरकारी कम्पनी को दिया गया। चीन की नई सिल्क रूट योजना में भी नेपाल शामिल हो चुका है। नेपाल के साथ हुए समझौते के बाद चीन काठमांडौ से तिब्बत के लहासा तक रेलवे नेटवर्क समेत कई परियोजनाओं में भारी निवेश करेगा। नेपाल अपनी भौगोलिक परिस्थितियों के चलते भारत पर निर्भर रहा है लेकिन मधेशी आंदोलन के बाद उसने भारत पर निर्भरता कम करने की लगातार कोशिशें की हैं। हालांकि प्रचंड ने भारत से बिजली समझौता कर काठमांडौ को रोशन किया है।

नेपाल और चीन की नजदीकियां भारत को नया खतरा बनती दिखाई दे रही हैं। नेपाल और चीन रेल नेटवर्क समझौते के लिए भी तैयार है। चीन नेपाल को लगातार आर्थिक और तकनीकी सहयोग बढ़ा रहा है। शेर बहादुर देऊबा तीन बार नेपाल के प्रधानमंत्री रह चुके हैं। अब वह फिर से प्रधानमंत्री बन सकते हैं। यह वही शेर बहादुर देऊबा हैं जिनके कार्यकाल में माओवादी संघर्ष के दिनों में प्रचंड पर जिंदा या मुर्दा पकडऩे पर 50 लाख का ईनाम घोषित था। यह भी सही है कि प्रचंड अब उतने प्रचंड नहीं रहे जितने पहले थे लेकिन देऊबा के नेतृत्व में नेपाल की अन्तर्राष्ट्रीय नीतियों में फेरबदल हो सकता है। नेपाल में चीन को पछाडऩा भारत सरकार के लिए बड़ी चुनौती है। देखना यह भी है कि नई नेपाल सरकार मधेशियों के हित में संविधान संशोधन करा पाती है या नहीं। सवाल यह भी है कि क्या नई सरकार चीन की तरफ ज्यादा झुकाव रखेगी या भारत की तरफ। क्या प्रचंडवाद खत्म होगा या नहीं?

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