राजनीति में परिवारवाद !

आगामी 20 नवम्बर को होने वाले महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने अपने नेताओं के परिवारों के सदस्यों को चुनावी टिकट देने में नया रिकार्ड कायम कर दिया है
राजनीति में परिवारवाद !
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आगामी 20 नवम्बर को होने वाले महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने अपने नेताओं के परिवारों के सदस्यों को चुनावी टिकट देने में नया रिकार्ड कायम कर दिया है। भारतीय जनता पार्टी परिवारवाद की विरोधी मानी जाती है मगर इसने भी कांग्रेस के बराबर ही अपनी पार्टी के नेताओं के सगे-सम्बन्धियों को नौ टिकट दिए हैं। कांग्रेस ने भी इतने ही टिकट परिवारों से सम्बन्ध रखने वाले नए चेहरों को दिये हैं। महाराष्ट्र के महारथी माने जाने वाले श्री शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी भी पीछे नहीं रही है इसने भी इतने टिकट परिवारों के लोगों को दिए हैं। राज्य में दो गठबन्धनों महाविकास अघाड़ी व महायुति के बीच कांटे की लड़ाई मानी जा रही है। महाविकास अघाड़ी विपक्षी गठबन्धन है जिसमें कांग्रेस, उद्धव शिवसेना व शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस शामिल है जबकि सत्तारूढ़ गठबन्धन महायुति में भाजपा, मुख्यमन्त्री एकनाथ शिन्दे की शिवसेना व अजित पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस शामिल है।

इन दोनों गठबन्धनों में सर्वाधिक सीटों 152 पर भारतीय जनता पार्टी चुनाव लड़ रही है, जबकि इसके बाद कांग्रेस ने 104 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किये हैं। परिवारवाद दोनों ही गठबन्धनों के सिर चढ़कर बोल रहा है, क्योंकि उद्धव ठाकरे की शिवसेना ने भी अपने नौ प्रत्याशी पारिवारिक सदस्य ही बनाये हैं। यह कुल 96 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, जबकि शरद पवार की कांग्रेस के हिस्से में 87 सीटें आई हैं। इसी प्रकार महायुति गठबन्धन वाली शिन्दे सेना कुल 78 और अजित पवार की कांग्रेस कुल 52 सीटाें लड़ रही है। राज्य विधानसभा में कुल 288 सीटें हैं। शिन्दे की शिवसेना ने भी आठ प्रत्याशी पार्टी के नेताओं के परिवार के लोगों के ही दिये हैं। प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि एक तरफ जहां यह कहा जा रहा हो कि राजनीति में एेसे युवाओं को आगे आना चाहिए जिनके परिवारों की पृष्ठभूमि राजनेताओं की न हो और दूसरी तरफ राजनीतिज्ञों के परिवार के लोगों को ही तरजीह दी जा रही हो तो हमें अपने नेताओं की कथनी व करनी में फर्क को समझना होगा। मूल प्रश्न तब यह खड़ा होता है कि नये लोगों को राजनीति में लाने के प्रयास कौन करेगा? राजनीति में परिवारवाद की गूंज हम अक्सर सुनते रहते हैं, मगर व्यवहार में हर पार्टी इसी फार्मूले पर चलती है और इनके नेता राजनीति को अपनी जागीर समझते हैं।

लोकतन्त्र में परिवारवाद के कट्टर दुश्मन अभी तक के स्वतन्त्र भारत के इतिहास में केवल दो नेता हुए हैं। इनमें अव्वल नाम समाजवादी चिन्तक व जन नेता स्व. डा. राम मनोहर लोहिया का है और उनके बाद स्व. चौधरी चरण सिंह का नाम लिया जा सकता है। डा. लोहिया तो 1959 में कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष स्व. श्रीमती इन्दिरा गांधी को बनाये जाने के खिलाफ तक थे। जब पं. जवाहर लाल नेहरू की पुत्री होने की वजह से इन्दिरा गांधी को 1959 में कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया था तो डा. लोहिया ने कहा था कि नेहरू ने यह क्या सितम कर डाला। डा. लोहिया के जीवित रहते ही 1966 में इन्दिरा को कांग्रेस पार्टी ने प्रधानमन्त्री बनाया था। डा. लोहिया की इस बार भी प्रतिक्रिया विपरीत ही थी। मगर 1967 अक्तूबर में डा. लोहिया की मृत्यु हो गई थी। इसके बाद इन्दिरा गांधी ने जब अपने राजनीतिक तेवर 1969 में दिखाये तो वह भारत की सबसे अधिक शक्तिशाली प्रधानमन्त्री बन गईं। 1969 से 1974 तक का उनका कार्यकाल भारत का स्वर्णिम दौर कहलाता है जिसमें उन्होंने पाकिस्तान को दो टुकड़ाें में विभाजित कर दिया और नया देश बंगलादेश बनाया तथा सिक्किम को भारत का अंग बनाया व पोखरन में पहला परमाणु परीक्षण किया। अतः हमें वंशवाद व परिवारवाद में भेद करके भी देखना होगा। मगर इन्दिरा गांधी के पुत्र स्व. राजीव गांधी को स्वयं कांग्रेसियों ने ही प्रधानमन्त्री बनाया था हालांकि स्वयं इदिरा गांधी ही स्व. राजीव गांधी को राजनीति में लाई थीं, मगर दूसरी तरफ हम चौधरी चरण सिंह को देखें तो वह अपने एकमात्र पुत्र स्व. अजित सिंह को राजनीति में लाने के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने अजित सिंह को राजनीति के अयोग्य किसी निजी बैठक में नहीं कहा था बल्कि 1984 के लोकसभा चुनावों के दौरान एक विशाल जनसभा में कहा था। यह सभा उत्तर प्रदेश के मैनपुरी शहर में हुई थी जिसमें उन्होंने कहा था कि कुछ लोग मुझसे मेरे बेटे अजित सिंह को राजनीति में लाने के लिए कहते हैं। मगर वह राजनीति में आने के काबिल नहीं है, क्योंकि वह एक कम्प्यूटर इंजीनियर है और अमेरिका में नौकरी करता है। उसे भारत के गांवों की स्थिति के बारे में कुछ ज्ञान नहीं है। संभवतः चौधरी साहब अभी तक के एकमात्र एेसे राजनेता हैं जिन्होंने अपने पुत्र को ही राजनीति के अयोग्य करार दिया हो। भारत में अब इस किस्म के राजनेता पैदा होने बन्द हो चुके हैं। अतः राजनीति में परिवारवाद के विरोध को हम एक ढकोसला ही मान सकते हैं इसलिए महाराष्ट्र में नेताओं के पुत्र-पुत्री, पत्नी व भाई आदि को जमकर हर पार्टी टिकट बांट रही है। भारत का कोई भी राजनीतिक दल परिवारवाद से अछूता नहीं है। इसमें सबसे बड़ी आपत्ति यही है कि एेसा होने से सामान्य भारतीय नागरिक की राजनीति में आने की इच्छा मर जाती है।

आदित्य नारायण चोपड़ा

Adityachopra@punjabkesari.com

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