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जार्ज पंचम की जगह नेताजी सुभाष चन्द्र

राजधानी दिल्ली के इंडिया गेट पर स्थित छतरी (केनोपी) में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की प्रतिमा स्थापित करने का श्रीगणेश उनकी 125वीं जन्म जयन्ती पर जिस तरह प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने उनके होलोग्राम (छाया प्रतिमा) के अनावरण के साथ किया है उसका पूरे देश में सर्वत्र स्वागत हो रहा है।

राजधानी दिल्ली के इंडिया गेट पर स्थित छतरी (केनोपी) में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की प्रतिमा स्थापित करने का श्रीगणेश उनकी 125वीं जन्म जयन्ती पर जिस तरह प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने उनके होलोग्राम (छाया प्रतिमा) के अनावरण के साथ किया है उसका पूरे देश में सर्वत्र स्वागत हो रहा है। नेताजी का भारत की आजादी के संग्रम में जो योगदान था वह उनके चुने हुए सशस्त्र संघर्ष के रास्ते से था जिसके प्रति उस समय भी आम भारतीयों में भारी जिज्ञासा थी क्योंकि तब भारत के लोग महात्मा गांधी के नेतृत्व में अहिंसक तरीके से स्वतन्त्रता आन्दोलन को चला रहे थे। 1940 तक नेताजी भी इसी का हिस्सा थे मगर सितम्बर 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ जाने का भारत की राजनीति पर गहरा असर पड़ा और महात्मा गांधी ने भारतीयों से अंग्रेजी फौज में भरती न होने का आह्वान किया। संयोग से नेताजी का 1939 में ही महात्मा गांधी से आजादी प्राप्त करने के तरीकों को लेकर मतभेद हुआ जबकि उससे पहले 1938 व 1939 में वह कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये थे। मगर 1939 में उनका कांग्रेस अध्यक्ष पद पर चुना जाना महात्मा गांधी की मर्जी के खिलाफ हुआ था अतः उन्होंने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और अपनी अलग पार्टी फारवर्ड ब्लाक बना ली और बाद में वह अंग्रेजों को चकमा देकर अफगानिस्तान होते हुए सोवियत संघ से जर्मनी व जापान चले गये और वहां पहुंच कर उन्होंने विश्व युद्ध में जर्मनी व जापान द्वारा बन्दी बनाये गये ब्रिटिश भारतीय सेना के जवानों को एकत्र करके आजाद हिन्द फौज का निर्माण किया और अंग्रेजों की सेना से मुकाबला करके जापानी अधिकार में आये अंडमान निकोबार द्वीप समूह पर आजाद हिन्द सरकार की स्थापना की जिसे अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने वाले देशों ने मान्यता भी प्रदान की। 
मगर यह भी ऐतिहासिक सच है कि अपनी आजाद हिन्द सरकार के रेडियो से भारतीयों को सम्बोधित करते हुए नेताजी ने ही पहली बार 1944 को महात्मा गांधी को ‘राष्ट्रपिता’  के सम्बोधन से नवाजा लेकिन स्वतन्त्रता आन्दोलन के इतिहास को अगर हम बेबाकी के साथ देखें तो भारत की आजादी में नेता जी का योगदान किसी भी तरीके से कम नहीं है क्योंकि कोई सैनिक प्रशिक्षण न होने के बावजूद उन्होंने विदेशों में भारतीय सैनिकों की फौज संगठित की और उसे अंग्रेजी साम्राज्यवाद से लाैहा लेने के लिए प्रेरित किया। भारत छोड़ कर विदेश में अंग्रजों के दुश्मनों के साथ दोस्ती करके उन्होंने सैनिक रास्ते से भारत की मुक्ति का मार्ग खोजा। नेताजी ने 1942 में ही आजाद हिन्द फौज का गठन कर लिया था। इसका असर भारत की राजनीति पर भी गहरे तक पड़ा। 8 अगस्त, 1942 को महात्मा गांधी ने अंग्रेजों को ‘भारत छोड़ो’ का अल्टीमेटम दे दिया जिसके बाद महात्मा गांधी समेत कांग्रेस के सभी नेताओं को जेलों में बन्द कर दिया गया और उन्हें 1945 में विश्व युद्ध की समाप्ति के आस-पास छोड़ा गया। इस दौरान नेताजी की आजाद हिन्द फौज जर्मनी व जापान के साथ मिल कर अंग्रेजों से लाैहा लेती रही। इस दौरान भारत में कांग्रेस की गतिविधियां पूरी तरह बन्द रहीं जबकि अंग्रेजों ने मुहम्मद अली जिन्ना को अपने साथ मिला कर फौज में मुसलमान  युवाओं की भर्ती जम कर कराई और उसे परोक्ष रूप से पाकिस्तान बनाने का आश्वासन भी दे दिया। मगर तब तक नेताजी द्वारा चलाये जा रहे सैनिक युद्ध का असर अंग्रेजों की भारतीय सेना पर पड़ने लगा था और उनमें ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ असन्तोष भी पनपने लगा था क्योंकि अग्रेजों की फौज के भारतीय सिपाही नेताजी की ही आजाद हिन्द फौज से भी लड़ रहे थे। अंग्रेज इससे पहले तक आश्वस्त थे कि उनकी ​​​ब्रिटिश इंडियन आर्मी अपनी वफादारी से पीछे नहीं हटेगी।
 यही वजह है कि 1947 में भारत की आजादी की घोषणा करने वाले ब्रिटिश प्रधानमन्त्री श्री एटली जब 1956 में भारत आये तो उन्होंने बंगाल में यह कहा कि अंग्रेजों ने भारत नेता जी के सैनिक संघर्ष की वजह से छोड़ा। हालांकि इतिहासकारों में इस विषय को लेकर बहुत गहरे मतभेद हैं और कुछ का कहना है कि 15 अगस्त, 1947 को एक साल पहले ही आजादी इस वजह से दी गई क्योंकि तब तक अंग्रेजी सरकार विश्व युद्ध की वजह से बिल्कुल भूखी-नंगी हो गई थी और अमेरिका ने विश्व शक्ति बन कर ब्रिटेन का स्थान ले लिया था। हालत यह हो गई थी कि ब्रिटेन की फौज की तनख्वाहें भी अमेरिका अपने खजाने से देता था। अतः भारत को आजादी देने के लिए अमेरिका ने अंग्रेजों पर खासा जोर डाला था। वरना अंग्रेज जून 1948 में भारत को स्वतन्त्र करने वाले थे। मगर इससे इतना तो पता चलता ही है कि नेताजी के आजादी के रास्ते का भारत पर बहुत गहरा असर इस तरह पड़ा था कि महात्मा गांधी भी उससे अछूते नहीं रहे थे। अतः उनकी प्रतिमा का इंडिया गेट पर लगाया जाना ऐसे  राष्ट्र नायक का सम्मान करना है जिसने अपने समय की युवा पीढ़ी को राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत किया था। एक हकीकत यह भी है कि नेताजी जब 1938 में कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे तो युवा वर्ग में बहुत लोकप्रिय हो गये थे। दरअसल उनकी प्रतिमा लगाने का फैसला 54 साल बाद खाली पड़ी हुई इंडिया गेट की छतरी पर हो रहा है। यह फैसला भी उसी भारतीय जनता पार्टी की सरकार द्वारा किया जा रहा है जिसकी उस समय की दिल्ली की सरकार (महानगर परिषद) के नेता श्री विजय कुमार मल्होत्रा ने यह फैसला किया था कि इंडिया गेट पर लगी हुई ​ब्रिटिश सम्राट जार्ज पंचम की मूर्ति हटाई जायेगी। तत्कालीन मुख्य कार्यकारी पार्षद श्री मल्होत्रा ने पूरी दिल्ली में गुलामी के निशानों को समाप्त करने का फैसला किया था। हालांकि 1968 में जार्ज पंचम की प्रतिमा को हटा दिया गया था मगर इस मुद्दे पर विवाद हो गया था कि यहां किस राष्ट्रनायक की प्रतिमा स्थापित की जाये परन्तु श्री मल्होत्रा ने उस समय अपने कुछ बयानों में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की प्रतिमा लगाने की बात कही थी परन्तु वह तब तकनीकी कारणों को लेकर इसमें सफल नहीं हो सके थे अतः दरियागंज से जामा मस्जिद की तरफ जाने वाले मार्ग पर स्थित एजवर्ड पार्क में लगी किंग एडवर्ड की प्रतिमा को हटा कर उसके स्थान पर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की प्रतिमा लगा दी गई थी और पार्क का नाम भी सुभाष पार्क रख दिया गया था। 54 साल बाद इंडिया गेट का जिस तरह भाग्य जागा है उससे हर भारतवासी प्रफुल्लित है। यही है हमारा पराक्रम। जय हिन्द। यही वह नारा है जिससे नेताजी ने हर भारतवासी को आजादी की आस दी।

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