जो उपलब्धि मिल्खा सिंह और पी.टी. ऊषा हासिल नहीं कर पाए, उस उपलब्धि को हासिल किया हिमा दास ने। 18 वर्षीय असमिया लड़की हिमा दास ने आईएएएफ वर्ल्ड अंडर-20 एथलैिटक्स चैम्पियनशिप की 400 मीटर दौड़ में स्वर्ण पदक जीत कर नया इतिहास रचा। उसकी इस विजय से वर्षों का सूखा खत्म हो गया क्योंकि इससे पहले भारत की कोई महिला या पुरुष खिलाड़ी जूनियर या सीनियर किसी भी स्तर पर विश्व चैम्पियनशिप में स्वर्ण या कोई पदक नहीं जीत सका था। फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह 1960 में रोम ओलिम्पिक में 400 मीटर की दौड़ में चौथे स्थान पर रहे थे, उसके बाद 1984 में पीटी ऊषा ने ओलिम्पिक में 400 मीटर हर्डल रेस में चौथा स्थान प्राप्त किया था।
भारतीयों में इस बात की कसक जरूर थी कि अब तक किसी भारतीय को सफलता क्यों नहीं मिली? 1960 और 1984 के दौर के भारत और 2018 के भारत में बहुत अंतर आ चुका है। मिल्खा सिंह के समय साधनों के अभाव को आज की पीढ़ी ने उनके जीवन पर बनी फिल्म के माध्यम से ही महसूस किया। मिल्खा सिंह ने जीवन की दुश्वारियों को झेलने के बावजूद अपार लोकप्रियता हासिल की। उसका आधार था जज्बा और जुनून। पी.टी. ऊषा ने भी कड़ी मेहनत की, ट्रैक पर खूब पसीना बहाया लेकिन भाग्य ने उसका साथ नहीं दिया। मिल्खा सिंह ने यूं तो एशियाड खेलों में 4 स्वर्ण पदक आैर राष्ट्रमंडल खेलों में एक स्वर्ण पदक जीता था लेकिन जब भी उनका जिक्र आता है, उनकी एक हार की चर्चा होती है। जीवनभर उन्होंने सरकार के साथ खेलकूद के प्रोत्साहन के लिए काम किया। सब जानते हैं कि मिल्खा सिंह के साथ उस समय दौड़ लगाने लायक जूते भी नहीं थे। देश को गौरव दिलाने वाली हिमा दास की कहानी भी किसी फिल्मी स्टोरी से कम नहीं। हिमा दास के घर की आर्थिक स्थिति ऐसी है कि बस बड़ी मुश्किल से खाने-पीने की व्यवस्था हो पाती है।
उनके पिता किसान हैं और खेती-बाड़ी करते हैं। उनका घर गांव डिंग नौगांव क्षेत्र में पड़ता है। यह एक एेसा क्षेत्र है जहां बाढ़ के हालात बार-बार बनते हैं। हिमा जब गांव में रहती थी तो बाढ़ की वजह से कई-कई दिन तक अभ्यास नहीं कर पाती थी, क्योंिक जिस खेत या मैदान में वह दौड़ की तैयारी करती थी, वह बाढ़ के पानी में लबालब हो जाता था। परिवार को कई बार आर्थिक नुक्सान भी झेलना पड़ा। उसे भी अच्छे जूते नसीब नहीं थे। वह अपने पिता के साथ धान के खेतों में काम भी करती थी। उसके अभ्यास में बाधा न पड़े इसलिए उसके कोच उसे गुवाहाटी ले आए थे। शुरूआत में हिमा को फुटबाल खेलने का शौक था, वह अपने गांव या जिला के आसपास छोटे-मोटे फुटबाल मैच खेलकर सौ-दो सौ रुपए जीत लेती थी। फुटबाल खेलते-खेलते उसका स्टेमिना अच्छा बन गया था लेकिन उसके कोच निपुण ने उन्हें फुटबाल से एथलैटिक्स में आने के लिए तैयार किया। परिवार वाले उसका गुवाहाटी में रहने का खर्च उठाने में सक्षम नहीं थे लेकिन कोच हिमा का खर्च खुद उठाने को तैयार हो गए। गुरु की पारखी नज़र ने भांप लिया था कि हिमा में आगे तक जाने की काबलियत है।
गुवाहाटी में उसे अच्छे जूते मिले और उसने जमकर अभ्यास किया। फिर उसने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उसकी सफलता के पीछे रही सकारात्मक सोच, वह माता-पिता और देश के लिए कुछ करना चाहती थी। देश के लिए गौरव और अपने लिए प्रतिष्ठा पाने की ललक के चलते उसने इतिहास बना डाला। आज वह नए एथलीटों के लिए रोल माडल बन चुकी है। हिमा ने तिरंगा लिए स्टेडियम का चक्कर लगाया साथ ही उसने असमिया संस्कृति का प्रतीक गमछा भी ओढ़ा हुआ था। ऐसा देखकर न केवल देशवासी बल्कि असम के लोगों में खुशी की लहर दौड़ गई। ऐसा करके हिमा ने राष्ट्र और अपने राज्य को जीत से जोड़ा।
भारत के लिए स्वर्ण जीतने वाली हिमा की कामयाबी शायद एथलैटिक्स फैडरेशन आफ इंडिया को रास नहीं आई। फैडरेशन के आफिशियल ट्विटर अकाउंट में फैडरेशन ने हिमा को उनकी खराब अंग्रेजी के चलते घेरा था। हिमा दास की अंग्रेजी पर तंज भारत की बेटी का अपमान था और भारतीय इसे कैसे सहन कर सकते थे। देखते ही देखते सोशल मीडिया कड़ी प्रतिक्रियाओं से भर गया। अंततः फैडरेशन ने इस पर भारतवासियों से माफी मांग ली है। भारतवासियों ने सवाल किया था कि फैडरेशन को बेहतरीन खिलाड़ी चाहिए या अंग्रेजी बोलने वाले। हिमा की उपलब्धि के आगे इन बातों का कोई महत्व नहीं। भारत को अपनी बेटी पर गर्व है और हम सब उसके जज्बे को सलाम करते हैं।