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निजता की नई आजादी

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सर्वोच्च न्यायालय की नौ सदस्यीय संविधान पीठ ने निजता या निजीपन को मौलिक अधिकारों के दायरे में रख कर भारत के 125 करोड़ लोगों के उस वैयक्तिक सम्मान को पूर्ण सुरक्षा प्रदान की है जिस पर भारत के महान संविधान की नींव रखी हुई है। भारत के संविधान में यह स्पष्ट उल्लिखित है कि किसी भी नागरिक के निजी सम्मान को सुरक्षित रखते हुए ही सरकार उसके विकास के समान अवसरों को उपलब्ध करायेगी। इसकी व्यवस्था हमारे संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 21 में बन्धनमुक्त जीवन जीने के अधिकार को मौलिक बना कर की। निजता का अधिकार इसी का अंग है। विद्वान न्यायाधीशों ने एक मत से स्वीकार किया है कि निजता किसी भी व्यक्ति का मौलिक अधिकार है उसमें राज्य का प्रत्यक्ष अतिक्रमण स्वीकार नहीं किया जा सकता। अर्थात किसी भी व्यक्ति की जीवन शैली में हस्तक्षेप करने का सरकार को कोई अधिकार नहीं है। उसके निजीपन में दखल असंवैधानिक माना जायेगा। इस लिहाज से सरकार द्वारा बनाये जाने वाले कानूनों की तसदीक अब इस कसौटी पर की जायेगी विशेष रूप से आधार कार्ड कानून को इस पर खरा उतरना होगा। सरकार या किसी अन्य मान्य अधिकृत संस्था को किसी भी व्यक्ति की गोपनीय निजी जानकारी कानून सम्मत अपने विशिष्ट उपयोग के सिवाय साझा करने की इजाजत नहीं होगी।

आधार कार्ड को जिस तरह स्कूलों में बच्चों तक के लिए जरूरी बनाया जा रहा था और बैंक खातों को खोलने या आयकर भरने के लिए इसे पैन कार्ड से जोड़ा जा रहा था उसकी वैधानिकता पर सवाल खड़े होंगे क्योंकि आधार कार्ड में किसी भी व्यक्ति का शारीरिक से लेकर माली हालत तक का ब्यौरा होता है। जबकि आधार कार्ड का विचार समाज के गरीब तबकों को मिलने वाली सरकारी सहायता में व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकना भर था। किन्तु धीरे-धीरे इसे अन्य क्षेत्रों में लाजिमी बनाने की मुहिम शुरू हो गई। जबकि यह कार्ड नागरिकता की पहचान नहीं है केवल निवासी की पहचान है। परन्तु सर्वोच्च न्यायलय के फैसले के बहुआयामी प्रभाव होंगे जो जीवन के हर क्षेत्र पर असर डालेंगे। इससे भारत की सांस्कृतिक विविधता निडर होकर अपनी मनोहारी छंटा बिखेरेगी। किसी भी व्यक्ति की निजी पसन्द को वरीयता मिलेगी चाहे वह खान-पान की हो या वस्त्र पहनने की अथवा भाषा चुनने की। इसका असर आधुनिक इलैक्ट्रानिक मीडिया पर भी होगा जो स्टिंग आपरेशन करने की प्रतियोगिता विकसित कर रहा था। राजनीति पर भी इसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहेगा क्योंकि निजी विचारों को पार्टीगत अनुशासनात्मक कार्रवाई से मुक्ति मिलेगी। पार्टी अनुशासन मौलिक अधिकारों का हनन नहीं कर सकता है बशर्ते कि पार्टी के संविधान में ही मुख्तलिफ राय रखना असंवैधानिक करार न दिया जाये और लोकतन्त्र में यह असंभव है क्योंकि चुनाव आयोग के समक्ष सभी पार्टियां अपने भीतर लोकतन्त्र को स्थापित करने की प्रतिज्ञा करती हैं। इस मामले में संविधान विशेषज्ञ दल-बदल कानून की समीक्षा कर सकते हैं और निजता के मौलिक अधिकार बन जाने पर इसे न्यायालय के समक्ष चुनौती दे सकते हैं। परन्तु इसका सबसे बड़ा सम्बन्ध भारत के आम आदमी से है क्योंकि 24 अगस्त के एतिहासिक दिन को उसे दूसरी आजादी मिली है।

यह आजादी मजहब के नाम पर द्वेष और अराजकता पैदा करने वाले तत्वों से मिली है जो अपनी मान्यताएं दूसरे लोगों पर थोपने की फिराक मे रहते थे। किसी के भी घर में घुस कर उसकी रसोई की जांच-पड़ताल करने की हिम्मत करने लगे थे। कुछ राज्य सरकारों ने तो पुलिस को यह हक भी दे दिया था। मगर इसका दूसरा पहलू भी महत्वपूर्ण है। निजता को मौलिक अधिकार बना देने का अर्थ यह नहीं है कि किसी भी व्यक्ति को स्वच्छन्दता का लाइसेंस मिल गया है। सरकार को समाज में नियम-कानून स्थापित करने का पूरा हक है और वह इसके लिए कानून इस प्रकार बना सकती है कि घरेलू सुरक्षा से लेकर राष्ट्रीय सुरक्षा को किसी भी नागरिक से कोई खतरा न हो। व्याप्त भ्रष्टाचार में कमी आये और कर चोरी कर वालों या कालाधन इक_ा करने वाले कानून की जद से बाहर न हों।

अत: कोई भी अधिकार असीमित नहीं हो सकता। निजता का अर्थ बेलगाम होकर स्वेच्छाचार करने का नहीं हो सकता व्यक्तिनिष्ठ खतरों से निपटने के अधिकार भी सरकार के पास महफूज रहेंगे। क्योंकि गैरकानूनी काम भी व्यक्ति ही करता है। मगर टैक्नोलोजी उन्नयन के इस दौर में उस पर निजता को संरक्षित रखने का दायित्व भी है। इसके साथ ही सामाजिक मर्यादा की सीमाओं का रेखांकन करके ही कानून का पालन किया जाता है। परन्तु ये मर्यादाएं निजता को सम्मान देते हुए ही खींची जाती हैं। ऐसा नहीं है कि भारतीय समाज में निजता को वरीयता नहीं दी गई। हमने इसे प्रारम्भ से ही मानवीय संवेदनाओं का पुंज्ज माना। दरअसल भारत के संविधान की बुनियाद मानवतावाद पर हमारे पुरखों ने इसीलिए रखी जिससे प्रत्येक व्यक्ति की निजता का सम्मान हो सके। क्योंकि महात्मा गांधी ने आजादी के आन्दोलन में ही यह स्पष्ट कर दिया था कि स्वतन्त्र भारत में व्यक्ति के सम्मान को सर्वोच्च प्रतिष्ठा दी जायेगी। हमने अपनी फौजदारी न्यायिक व्यवस्था की नींव जब यह रखी कि किसी बेकसूर को सजा न मिले चाहे इसके लिए कई कसूरवार छूट जायें तो दुनियाभर के मानवतावादी भी दांतों तले अंगुली दबा गये थे। निजता तो किसी भी व्यक्ति का ऐसा अधिकार है जहां से मानवतावाद की शुरूआत होती है।अत: सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से यही सिद्ध हुआ है कि भारत का लोकतन्त्र केवल बाहरी आवरण में ही ‘लोकशाही’ नहीं है बल्कि भीतर से भी ‘लोक -मय’ है।

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