तीन तलाक की प्रथा को बन्द करने के लिए इसे दंडनीय अपराध बनाने हेतु केन्द्र सरकार द्वारा लाये जा रहे प्रस्तावित कानून पर सवालिया निशान स्वयं इसके ही ‘महिला व बाल कल्याण मन्त्रालय’ ने यह कहकर लगा दिया है कि पारिवारिक मामलों में महिलाओं की सुरक्षा के लिए भारतीय दंड संहिता में जब पहले से ही धारा 498(ए) मौजूद है तो नये कानून की क्या जरूरत है? जाहिर है कि मुस्लिम समाज में जारी इस कुप्रथा के खिलाफ मुस्लिम महिलाओं ने ही सर्वोच्च न्यायालय में गुहार लगाई थी और विद्वान न्यायाधीशों ने फैसला दिया था कि यह प्रथा गैर-संवैधानिक है तथा मुस्लिम नागरिक आचार संहिता शरीया का भी मूल हिस्सा नहीं है और गैर-इस्लामी है। अतः हर नुक्ते से यह प्रथा गैर-कानूनी है। बहुमत से दिये गये फैसले में सर्वोच्च न्यायालय में इस बाबत किसी प्रकार का नया कानून बनाने की बात नहीं कही गई थी। न्यायालय ने इसके साथ यह भी स्पष्ट किया था कि वह भारतीय संविधान द्वारा दी गई धार्मिक स्वतन्त्रता में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं कर रहा है केवल इतना कह रहा है कि तीन तलाक, जिसे तलाके बिद्दत कहा जाता है, इस्लाम का अंग नहीं है, मगर इसी मामले में अल्पमत में रहे दाे न्यायाधीशाें ने राय व्यक्त की थी कि इस कुप्रथा को रोकने के लिए सरकार को संसद में कानून बनाना चाहिए किन्तु फैसला उसे ही कहा जायेगा जो बहुमत से तीन न्यायाधीशों ने दिया था, लेकिन केन्द्र सरकार ने संभवतः नया कानून बनाने के बारे में गंभीरता के साथ तब सोचा जब सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने के बावजूद मुस्लिम समाज में तीन बार तलाक कहकर पुरुषों ने अपनी पत्नियों से छुटकारा पाया।
एेसे मामलों के प्रकाश में आने के बाद सरकार ने नया कानून लाने के बारे में विचार किया, मगर समझ में न आने वाली बात है कि इस सम्बन्ध में तैयार किये गये विधेयक पर सम्बन्धित मन्त्रालय, महिला व बाल कल्याण विभाग, की विपरीत राय के बावजूद कानून मन्त्रालय ने किस प्रकार इस विधेयक को अपनी सहमति प्रदान कर दी। सरकार में किसी भी नये विधेयक का प्रारूप तैयार करने की अपनी त्रुटिहीन प्रक्रिया होती है। इस प्रक्रिया के तहत जब अल्पसंख्यक मन्त्रालय कार्यरूप या नोडल मन्त्रालय की तरफ से कार्रवाई शुरू हुई तो महिला व बाल कल्याण मन्त्रालय की राय को ताक पर क्यों रख दिया गया। कानून मन्त्रालय ने भी इसे अपनी अनुमति दे दी जबकि इसी मन्त्रालय पर किसी भी विधेयक की अच्छी तरह ठोक-बजा कर यह जांच करने की जिम्मेदारी होती है कि नया विधेयक हर कोण से संविधान की कसौटी पर खरा उतरे, लेकिन तीन तलाक विधेयक केन्द्रीय मन्त्रिमंडल ने संसद में रखने के लिए स्वीकृत भी कर दिया। इससे सरकार की प्रतिष्ठा को धक्का लग सकता है क्योंकि उसके भीतर से यह आवाज उठ रही है कि इस विधेयक को लाने की कोई आवश्यकता ही नहीं है क्योंकि तीन तलाक के मामलों से निपटने के लिए कानून में पहले से ही पुख्ता इन्तजाम मौजूद हैं, मगर इसके साथ विचारणीय मुद्दा यह भी है कि मुस्लिम समाज में तीन तलाक की प्रथा को जड़ से खत्म करने के लिए क्या एेसा उपाय नहीं किया जाना चाहिए जिससे उसे जारी रखने से लोग डरें, यहीं पर कानूनी उलझन पैदा होती है। जब सर्वोच्च न्यायालय ने किसी कृत्य को असंवैधानिक करार दे दिया है तो उसके बारे में नया कानून किस तरह बन सकता है। वह कार्य स्वयं ही निरस्त व निष्क्रिय माना जायेगा।
किसी भी अदालत में एेसे कार्य के हक में मुकद्दमा दायर नहीं किया जा सकता है जबकि मुखालिफ पार्टी इस मामले में पत्नी का पक्ष संविधान के अनुसार जायज होगा और वह अपने सभी हकों से लैस पुर-अख्तियार पत्नी होगी, अगर इसके बावजूद कोई खाविन्द तीन तलाक की जुर्रत करता है तो उसका मामला घरेलू झगड़ाें को निपटाने के लिए अमल में आ रहे कानूनों के तहत आयेगा और इसमें शरीयत का कहीं कोई दखल नहीं होगा, क्योंकि फौजदारी के मामलों में मुस्लिम समाज पर शरीयत लागू नहीं होता है। जाहिर है कि असंवैधानिक करार दिये जाने के बाद तीन तलाक कहकर पत्नी को छोड़ना किसी भी मुस्लिम खाविन्द को सीधे फौजदारी कानूनों के दायरे मे ले आयेगा और उस पर वे धाराएं ही लागू होंगी जो किसी भी महिला के हक को मारने पर होती हैं जैसे दहेज के लिए किसी शादीशुदा औरत पर जुल्म ढहाने पर खाविन्द और उसके खानदान के लोगों को लपेट लिया जाता है। कोई भी आम वकील इस मामले में मुस्लिम औरतों को इंसाफ दिलाने की पैरवी कर सकता है, इसलिए महिला व बाल कल्याण मन्त्रालय की दलील बेवजह नहीं कही जा सकती जो पुरवजन और पुरकानून है। मुस्लिम महिलाओं को धारा 498(ए) के तहत पूरी सुरक्षा ही नहीं मिलेगी बल्कि पारिवारिक संरक्षण भी प्राप्त होगा।
इसके साथ ही मुस्लिम महिलाओं में यह जज्बा भी पैदा होगा कि उनके हक किसी हिन्दू महिला से कम से कम घरेलू मामलात में तो कम नहीं हैं, जहां तक इस्लाम में बहुपत्नी का मामला है वह इस समाज का अन्दरूनी मसला है जिसे अन्ततः इसी समाज को सुलझाना है और नये जमाने की रोशनी में पूरे समाज को ले जाना है, लेकिन इसके साथ यह भी जरूरी है कि हिन्दू समाज की विभिन्न जातियों में फैली खाप पंचायत जैसी कबायली प्रथा को भी काबू में किया जाये जिससे अन्तर्जातीय विवाह होने पर जघन्य आनर किलिंग का राक्षसी काम बन्द हो सके, मुझे याद है कि पिछली मनमोहन सरकार में आनर किलिंग को जड़ से समाप्त करने के लिए एक मन्त्रिमंडलीय समूह का गठन हुआ था, लेकिन उसने कोई रिपोर्ट दी या सिफारिशें की या नहीं, सारा मामला 2014 में सरकार बदलने पर कहीं गुम हो गया। बेशक मोदी सरकार ने अन्तर्जातीय विवाह, दलित केन्द्रित होने पर विवाहित युगलों को प्रोत्साहन राशि देने का एलान किया है मगर आनर किलिंग के बारे में अभी तक कोई चर्चा नहीं हुई है जबकि यह समाज की क्रूरता को महिमामंडित करने के शर्मनाक वाकयों से ज्यादा कुछ नहीं होते। इन्हें रोकने के लिए मौजूदा कानूनों के तहत ही धारदार दफाएं क्यों नहीं लगाई जातीं, क्योंकि ये भी असंवैधानिक कृत्य ही होते हैं, मगर इनमें राजनीति और वोट बैंक बीच में आ जाता है। अन्तरधार्मिक विवाहों में तो वोट बैंक गलियों, चौराहों पर आवाज लगा-लगा कर लोगों को खाने को दौड़ने लगता है। 21वीं सदी का चांद पर चढ़ने वाला भारत क्या जमीन की इन खूंखार बुराइयों को दूर कर सकता है? यह सवाल भी युवा भारत के सामने है।