देश में अनेक ऐसी संस्थाएं हैं जो सरकार से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पर्याप्त सहायता प्राप्त कर रही हैं। ऐसे गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) का संचालन पारदर्शितापूर्ण होना ही चाहिए। सरकारी सहायता के उपयोग में ईमानदारी भी होनी चाहिए। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि सरकार से सहायता पाने वाले स्कूल, कालेज और अस्पताल जैसे संस्थान आरटीआई कानून के तहत नागरिकों को सूचना उपलब्ध कराने को बाध्य हैं। जिन उद्देश्यों के लिए सरकार इन एनजीओ को सहायता देती है, क्या वह उद्देश्य पूरे हुए भी या नहीं इस पर भी सतत् निगरानी की जरूरत है। जहां कहीं भी सार्वजनिक धन का निवेश हो वहां भी निगरानी की जरूरत है अन्यथा घोटाले ही घोटाले ही पनपने लगते हैं।
केन्द्र में नरेन्द्र मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद हजारों ऐसे एनजीओ को खारिज किया गया तो केवल नामभर के थे और केवल दुकानदारी ही कर रहे थे। 90 के दशक में पहले राजीव गांधी, फिर नरसिम्हा राव सरकार ने अर्थव्यवस्था में उदारीकरण के साथ गैर-सरकारी संगठनों को भी देश की नीतियों की तरह तरजीह दी। इसके साथ ही सिविल सोसाइटी और गैर-सरकारी संगठन देश की व्यवस्था और सरकारी तंत्र में स्थापित होने लगे। पहले यह सामाजिक क्षेत्रों में काम करते थे लेकिन धीरे-धीरे इन्होंने देश की आर्थिक नीतियों में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया। बाद में इन्होंने सरकारी कामकाज को प्रभावित करना शुरू कर दिया।
उसके बाद इन संगठनों ने राजनीति शुरू कर दी। सत्ता के गलियारों में घूमने वाले लोगों ने एनजीओ बनाकर सरकारी धन का दुरुपयोग शुरू किया और अनेक ऐसे संगठनों की उत्पत्ति हुई जिन्हें विदेशी फंड भी मिलने लगा। विदेशी फंड का इस्तेमाल कहां-कहां हुआ, इस संबंध में कोई पूछने वाला नहीं था। कई एनजीओ धर्म परिवर्तन में लिप्त रहे। जिन संगठनों को शिक्षा, रोजगार, पर्यावरण, स्वास्थ्य और ग्रामीण विकास के लिए काम करना चाहिए था, वह केवल इनका दिखावा करते रहे बल्कि उन्होंने उन्हीं देशों का एजैंडा चलाने की कोशिशें कीं जिनसे उन्हें फंड मिलता था।
जब इस बात का खुलासा हुआ कि विदेशी फंड से संचालित एनजीओ देश के भीतर कुछ आंदोलनों को हवा दे रहे हैं तो सरकार के कान खड़े हो गए। इस बात का खुलासा बहुत पहले ही हो चुका था कि कुडनकुलम परमाणु संयंत्र के विरोध में आंदोलन विदेशी फंड की मदद से चलाया गया था।गृह मंत्रालय ने ऐसे गैर-सरकारी संगठनों का लाइसैंस रद्द किया था जो विभिन्न दानदाताओं से मिल रहे धन के सिलसिले में अपने व्यय और वैध खर्च का सबूत ही नहीं दे सके। अनेक संगठन कभी वार्षिक रिटर्न भी जमा नहीं करा रहे थे। पिछले वर्ष अक्तूबर में गैर-सरकारी संगठन ग्रीनपीस इंडिया के बेंगलुरु कार्यालय पर प्रवर्तन निदेशालय ने छापा मारा था तो काफी होहल्ला मचा था।
19वीं शताब्दी के सामाजिक सुधार आंदोलन हों या इनके परिणामस्वरूप बनी आर्य समाज, ब्रह्म समाज या रामकृष्ण मिशन जैसी संस्थाओं का समाज के विकास में काफी योगदान रहा है लेकिन आज की गैर-सरकारी संस्थाओं ने बांध का निर्माण हो या परमाणु संयंत्र की स्थापना या फिर किसानों की समस्याएं, ऐसे ही कुछ मुद्दों पर सीधे सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलने से परहेज नहीं किया। अनेक संगठनों ने धर्म परिवर्तन कराकर कुछ राज्यों में जनसांख्यिकीय और सामाजिक संरचना को छिन्न-भिन्न करने की कोशिश की। कई एनजीओ भारत के आर्थिक विकास के लिए खतरा बन गए। दुनिया भर के सामाजिक संगठनों, एनजीओ एवं रिसर्च फाउंडेशन के नाम पर साजिशें रचकर लोगों को गुमराह भी किया जाता रहा है। ऐसी संस्थाओं पर लगातार निगरानी रखना भी जरूरी है।