दरिंदगी की मानसिकता वाले 2012 के निर्भया कांड ने करीब दो महीने तक पूरे देश को हिलाये रखा था। जंतर-मंतर पर बलात्कार विरोधी जन सैलाब उमड़ आया था। आक्रोश इतना उग्र था कि लोग रायसिना हिल्स में राष्ट्रपति भवन के प्रवेश द्वार पर पहुंच गए थे। इस सामाजिक क्रांति के दौरान बहुत से युवा चेहरे सामने आये। ऐसे चेहरे उभरे जो ‘आई हेट पाॅलिटिक्स’ बोलते हुए समाज में फैले कीचड़ को साफ करना चाहते थे। निर्भया को इंसाफ दिलाने की लड़ाई समाज के सभी शोषित वर्गों के न्याय की लड़ाई बन गई थी।
पहली बार औरत का सवाल राजनीति का सबसे बड़ा केंद्रीय सवाल बन गया था। इसके बाद बलात्कार के कानून भी सख्त बनाए गए। देश उस समय भी दोषियों को जल्द सजा देने की मांग कर रहा था और आज भी लेकिन व्यवस्था और न्याय प्रक्रिया की खामियां ऐसा होने नहीं दे रही। निर्भया के साथ इंसाफ हो यह जरूरी भी है लेकिन न्याय होता दिखना भी चाहिए। विलम्ब से मिला न्याय भी अन्याय के समान है। सात साल की लम्बी जटिल कानूनी प्रक्रिया पूरी करने के बाद पटियाला हाउस कोर्ट ने 4 दोषियों को 22 जनवरी को सुबह 7 सात बजे फांसी देने का फैसला सुनाया। इसके बाद एक फरवरी की तारीख तय हुई। देश का हर कानून पसंद व्यक्ति एक-एक दिन निर्भया कांड के दोषियों को फांसी का इंतजार कर रहा है लेकिन अफसोस, मामला कानूनी दाव-पेंच में इस कदर उलझाया गया कि दोषियों को फांसी दो बार टल चुकी है।
न्याय पाना मानव का मूलभूत नैसर्गिक अधिकार है। न्याय दिलाना शासन का कर्त्तव्य है। यह किसी नागरिक द्वारा मांगी जाने वाली कृपा या भीख नहीं है। जिस समाज में लोगों को न्याय नहीं मिल सकता उस समाज में स्वतंत्रता और स्वाधीनता जैसे सिद्धांतों की चर्चा करने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। दोषियों की फांसी पर गत 31 जनवरी को पटियाला हाउस कोर्ट द्वारा रोक लगाये जाने को केंद्र ने दिल्ली हाईकोर्ट में चुनौती दी। केंद्र की तरफ से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने पक्ष रखते हुए कहा कि दोषी कानून के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं और फांसी की तारीख नजदीक आने से पहले कोई न कोई याचिका दायर करके सजा टलवाते जा रहे हैं। जबकि दोषियों के वकील का कहना था कि दोषियों के पास अंतिम सांस तक अपने अधिकारों का उपयोग करने का हक है।
ये इजाजत भी संविधान ने ही दी है। जेल नियमों के तहत एक अपराध में शामिल दोषियों को एक साथ सजा देने का प्रावधान है और इस नियम को बदला नहीं जा सकता। इसमें कोई संदेह नहीं कि दोनों पक्षों के अपने-अपने तर्क हैं लेकिन सवाल यह है कि ऐसे तो इस प्रकार के केसों का सिलसिला कभी खत्म ही नहीं होगा।आपाधापी में कभी-कभी सत्य को विस्मृत करने का प्रयास जरूर किया जाता है फिर भी न्यायपालिका सत्य की पक्षधर होती है, इसे न्याय के अतिरिक्त कुछ नहीं सूझता।
अतः न्याय की देवी की आंखों पर काली पट्टी बांधे होती है। हमारी न्यायपालिका भी संविधान से बंधी हुई है इसलिए हर नागरिक को दिये गए अधिकारों के अनुसार ही कार्य करना पड़ता है। लोकतांत्रिक राष्ट्र में हर किसी को अपने को निर्दोष साबित करने का अधिकार है। भारत की न्यायपालिका तो ऐसी है कि जब मुंबई हमले के एकमात्र जीवित बचे पाकिस्तानी नागरिक अजमल कसाब के पास पैरवी के लिए कोई वकील नहीं था तो न्यायपालिका ने उसे वकील भी उपलब्ध कराया ताकि किसी को यह न लगे कि कसाब को पूरा मौका नहीं दिया गया।
इसी देश में इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के हत्यारों की पैरवी भी देश के काबिल वकील ने की थी। बचाव पक्ष के वकील से समाज और मीडिया इस प्रकार व्यवहार करता है जैसे वह स्वयं अपराधी हो। वकील पेशेवर व्यक्ति होता है क्योंकि कई बार वकील निर्दोष की जान भी बचाता है। कई बार जांच एजेंसियों ने झूठे आरोपों में लोगों को फंसाया और अंततः सबूतों के अभाव में वे निर्दोष साबित हुए। अगर देश में प्रक्रियागत व्यवस्था नहीं होगी तो समाज में अलग प्रकार का असंतोष उपज सकता है। न्यायालय ने उन्हें फांसी की सजा सुनाई है जो अपराध की गंभीरता के अनुरूप ही है। इसलिए समाज को धैर्य रखते हुए संवैधानिक प्रावधानों को देखना चाहिए। इस मामले में न्यायपालिका और न्याय को जोड़कर देखना ठीक नहीं। निर्भया की मां के आंसू भी नहीं देखे जाते, लोगों के सब्र का बांध टूटने लगा है। लोगों को संयम से काम लेना होगा, दोषियों को फांसी तो एक न एक दिन होगी ही।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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