निर्भया बलात्कार कांड के चार अपराधियों की फांसी की सजा बरकरार रख कर देश के सर्वोच्च न्यायालय ने ‘न्याय’ की ‘ज्वाला’ को प्रक्रियागत सन्तुलित न्यायिक धारा के बीच प्रज्ज्वलित रखते हुए सन्देश दिया है कि ‘मानवीय’ सभ्यता का संरक्षण कभी भी ‘अमानवीय’ उपकरणों के ‘त्रुटि गान’ से नहीं हो सकता है। निर्भया प्रकरण इस तथ्य का साक्षी है कि किस तरह उस युवती के साथ ‘अमानवीयता’ की सारी हदें पार करते हुए बलात्कार जैसी जघन्य घटना को अंजाम दिया गया और बाद में इस जघन्यता को मानवीय दृष्टि से देखने के तर्क अदालत में पेश करते हुए फांसी के स्थान पर ‘आजीवन कारावास’ की सजा के लिए दलीलें दी गईं।
जिन्दगी के बदले जिन्दगी की सजा की मुखालफत उन पैरोकारों को अनुचित लगती है जो मानवीयता के इस मूल सिद्धान्त को भूल जाते हैं कि न्याय में अपराधों की विभिन्न श्रेणियों के लिए यथोचित विभिन्न सजाओं का प्रावधान क्यों किया जाता है? यह प्रावधान ही स्वयं में समाज में न्याय की स्थापना के लिए किया जाता है जिससे प्रत्येक व्यक्ति निर्भय होकर अपना आचरण निर्धारित कर सके। सजा का प्रावधान मनोवैज्ञानिक रूप से अपराधी को अपराध से दूर रहने की ताकीद करता है और ऐलान करता है कि उसका कोई भी नियम विरुद्ध कृत्य उस व्यवस्था और प्रणाली से अनदेखा नहीं रह सकता जो नियमों की पालना के लिए विधान सम्मत रूप से सुस्थापित है। अत: सर्वप्रथम यह स्पष्ट होना चाहिए कि निर्भया के बलात्कारियों का अपराध देश के कानून के तहत ऐसी सजा की दरकार करता था जो उनके अपराध की तीव्रता, तीक्ष्णता और गंभीरता को मापता था। अत: इस विवाद का कोई अर्थ नहीं है कि अपराधी को कानून सुधरने का मौका देता है और उसे सजा इसी नजरिये से दी जानी चाहिए क्योंकि फांसी देकर उसका जीवन ले लेना अमानवीयता के दायरे में आता है।
सवाल यह नहीं है कि ‘अपराध से घृणा करो अपराधी से नहीं’ बल्कि सवाल यह है कि ‘अपराधी में इस कदर खौफ होना चाहिए कि वह अपराध करने की सोच ही न सके’। कुछ विद्वान मेरे इस तर्क को लोकतान्त्रिक भारत में बर्बरता और निरंकुशता की हद तक सत्ता का स्वछन्द व्यवहार बता सकते हैं परन्तु मैं आम लोगों के लोकतान्त्रिक अधिकारों को अक्षुण्य रखने के लिए ही यह तर्क दे रहा हूं क्योंकि समाज में आपराधिक प्रवृत्तियों का प्रभावी होना लोकतन्त्र के लिए और मानवीय अधिकारों के संरक्षण के लिए सबसे बड़ा खतरा होता है परन्तु महिलाओं के सन्दर्भ में किसी भी देश के सभ्य होने का सबसे बड़ा पैमाना यही होता है कि उसमें स्त्रियों का सम्मान किस स्तर पर है। यह ऐतिहासिक वाक्य सबसे पहले हमारे देश के राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने तब कहा था जब दिसम्बर 2012 में निर्भया बलात्कार को लेकर आम जनता प्रदर्शनकारी रूप में राष्ट्रपति भवन के दरवाजे पर खड़ी होकर मांग कर रही थी कि पूरे मामले में राष्ट्रपति महोदय को हस्तक्षेप करना चाहिए और मनमोहन सरकार से तुरन्त कारगर कार्रवाई करने के लिए कहना चाहिए। आज सर्वोच्च न्यायालय ने जो अपना फैसला दिया है उसमें ‘न्यायमूर्ति भानुमति’ ने अपना फैसला अलग से लिख कर राष्ट्रपति महोदय की उसी उक्ति को संजोते हुए भारत के सभ्य होने की शर्त जोड़ी है।
अत: निर्भया की मृत्यु का कारण बने बलात्कारियों को फांसी की सजा देकर हम किस तरह अमानवीयता के दायरे में प्रवेश कर सकते हैं और कैसे कह सकते हैं कि किसी का जीवन लेना न्यायिक प्रक्रिया से बाहर होना चाहिए? समूचे समाज को निर्भय जीवन देने की कवायद कभी भी और किसी भी स्तर पर अमानवीय नहीं हो सकती। समाज कोई अजायब घर कभी भी नहीं हो सकता कि उसमें अमानवीय कार्य करने वालों को नुमाइशी वस्तु के तौर पर सजा-संवार कर रखा जाये क्योंकि उनका पालन-पोषण इसी समाज के व्यय पर होगा। अत: आजीवन कारावास की सजा के इस पक्ष पर भी हमें गंभीरता से विचार करना चाहिए। कोई भी सभ्य समाज अमानवीयता के अवशेषों को सजा-संवार कर नहीं रख सकता और यदि ऐसा होगा तो इसी समाज में से कुछ दूसरे लोग उन जैसा अपराध करने की तरफ उत्प्रेरित नहीं होंगे इसकी गारंटी कौन सी अदालत दे सकेगी। अत: निर्भया के निर्लज्ज, बर्बर और खूंखार अपराधियों को फांसी की सजा देना पूरी तरह मानवीयता के दायरे में ही आयेगा। इससे पूरे देश में जो सन्देश गया है वह बहुत ही स्पष्ट है और भारत के गांवों में प्राकृतिक न्याय की ‘लोकोक्ति’ के रूप में गुनगुनाया जाता है कि जो ‘जैसा करेगा-वैसा भरेगा।’