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नीतीश बाबू–नौकरी में ना कैसी !

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लोक व्यवहार का सामान्य नियम होता है कि जिस परिवार के प्रतिष्ठित बुजुर्ग को उसके अपने घर में ही उपेक्षित किया जाता है उस परिवार को स्वयं पूरा समाज ही नजरअंदाज करने लगता है और लोकाचार में उसकी प्रतिष्ठा लगातार कम होती चली जाती है। इसकी मुख्य वजह यही होती है कि अपने परिवार की प्रतिष्ठा और इज्जत को स्थापित करने वाले बुजुर्ग को जब उसके घर में ही सम्मान नहीं मिलेगा तो बाहर भी लोगों की निगाह में उसके साथ ही उसके पूरे परिवार की इज्जत कम होती जाएगी और लोग उसे उपेक्षित करने लगेंगे। ठीक यही हालत बिहार के जनता दल (यू) नेता श्री नीतीश कुमार व उनकी पार्टी की है। बेशक वह भाजपा के समर्थन से मुख्यमन्त्री की कुर्सी संभाले हुए हैं मगर उन्होंने अपनी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री शरद यादव की जिस तरह उपेक्षा करके सत्ता के लिए समझौता किया उससे उनकी भाजपा द्वारा उपेक्षा करना असमान्य व्यवहार नहीं कहा जा सकता।

श्री नीतीश कुमार ने श्री यादव की राज्यसभा सदस्यता समाप्त करने के लिए जिस तरह के हथकंडों का इस्तेमाल किया उससे उन्हीं की प्रतिष्ठा पर आघात हुआ। संसद के माध्यम से जनता दल (यू) को राष्ट्रीय राजनीति में लगातार प्रासंगिक बनाये रखने में सिद्धहस्त श्री यादव ने कोई एेसा मौका हाथ से नहीं जाने दिया जब ज्वलन्त राष्ट्रीय प्रश्नों पर उन्होंने उस तीसरी मुख्य विचारधारा का विकल्प प्रस्तुत न किया हो जिसे सकल ग्रामीण भारत की आवाज कहा जाता है। इस विचारधारा का मुख्य स्रोत लोहियावाद या चौधरी चरण सिंह का नीतिवाक्य भी कहा जाता है।

हालांकि श्री शरद यादव नीतीश बाबू का आज भी उतना सम्मान करते हैं जितना कि पहले करते थे क्योकि राजनीति में व्यक्तिगत दुराग्रहों को पालना शरद यादव की प्रकृति के ही विरुद्ध है परन्तु यह विचार करना नीतीश बाबू के लिए आवश्यक है कि उनकी पार्टी जनता दल (यू) की उपेक्षा यदि बिहार में ही की जाती है तो उनका स्वयं का राजनीतिक भविष्य क्या होगा? उत्तर भारत के दो राज्यों-उत्तर प्रदेश और बिहार का राजनीतिक गणित एेसा है जो 2019 के लोकसभा चुनावों में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगा। इन दोनों राज्यों की कुल 120 लोकसभा सीटों पर संयुक्त जनता दल के विभिन्न गुटों का जनाधार यदि अपनी सही ताकत में आ जाए तो वह राष्ट्रीय दल कही जाने वाली पार्टियों के छक्के छुड़ा सकता है। यह वोट बैंक पूरी तरह से राष्ट्रवाद और धर्मनिरपेक्षता के चोचलों से बेपरवाह होकर एेसी राष्ट्रीय धारा बहाते हुए चलता रहा है जिसमें जाति व सम्प्रदाय की पहचान के ऊपर उन आर्थिक स्रोतों की समानता रही है जो जिन्दगी जीने के लिए जरूरी होते हैं।

अर्थात गांव व कृषि आधारित समाज की एकता इस पार्टी की आन्तरिक ताकत रही है जिसे बाद में जाति मूलक पार्टियों ने बुरी तरह छिन्न–भिन्न कर डाला। यह विरासत डा. लोहिया ने राजनीति में पैदा की थी जिसे उनके बाद चौधरी चरण सिंह ने मजबूत किया था परन्तु उनकी मृत्यु के बाद इस वोट बैंक को इस वर्ग के विभिन्न नेताओं की व्यक्तिगत राजनीतिक आकांक्षाओं ने इस तरह बांट डाला कि यह धीरे–धीरे अन्य प्रमुख दलों की चाकरी करने वाला जैसा होता चला गया। इसका सबसे बड़ा उदाहरण 1984 के वे चुनाव हैं जिनमें इन्दिरा जी की हत्या के बाद कांग्रेस को लोकसभा में सर्वाधिक 417 सीटें मिली थीं। मगर इन चुनावों में बिहार व उत्तर प्रदेश में दूसरे नम्बर की पार्टी चौधरी साहब की ‘दमकिपा’( दलित मजदूर किसान पार्टी) रही थी और इसे कांग्रेस से केवल छह प्रतिशत वोट ही कम मिले थे। हालांकि बाद में बहुजन समाज पार्टी के बनने और मंडल आयोग के लागू होने व श्री राम मन्दिर आन्दोलन उबरने से इस विशद और वृहद वोट बैंक के टुकड़े–टुकड़े इस प्रकार हुए कि आर्थिक आधार पर बनी ग्रामीण वोट बैंक एकता जातिगत आधार में बदलती गई और अल्पसंख्यक वोट बैंक भी पार्टियों की अदला–बदली करने के लिए मजबूर होता चला गया।

इस चुनावी गणित से उत्तर प्रदेश का राजनीतिक नक्शा इस तरह बदला कि यहां राम मन्दिर आन्दोलन के प्रभाव से भाजपा सबसे बड़ी ताकत बनती चली गई और इसके विरोध में मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति ने स्थाई भाव ले लिया। यह काम बड़ी ही चतुराई के साथ जनता दल से ही अलग हुए माननीय मुलायम सिंह यादव ने अपनी अलग समाजवादी पार्टी बना कर किया किन्तु बिहार में यह संभव नहीं हो सका क्यों​िक इस राज्य में बहुजन समाज पार्टी अपनी जड़ें जमाने में नाकाम रही और श्री लालू प्रसाद यादव ने जनता दल से ही अलग होकर अपनी अलग राष्ट्रीय जनता दल पार्टी बना कर लगभग समूचे ग्रामीण वोट बैंक को हथिया लिया और अल्पसंख्यक मतदाताओं के लिए दूसरा विकल्प तब तक नहीं छोड़ा जब तक कि नीतीश कुमार व जार्ज फर्नांडीज ने अपनी अलग समता पार्टी और रामविलास पासवान ने लोकजन शक्ति पार्टी नहीं बना ली।

बेशक श्री पासवान यहां दलितों के नेता के रूप में प्रतिष्ठित हुए परन्तु जनता दल से अलग होकर बनी उनकी लोकजन शक्ति पार्टी की ताकत बहुजन समाज पार्टी जैसी नहीं हो सकी। मैं फिलहाल दक्षिण भारत के राज्यों की बात नहीं कर रहा हूं जहां कर्नाटक और केरल में संयुक्त जनता दल एक शक्ति के रूप में रहा है बेशक केरल में इसकी ताकत बहुत सीमित रही है। अतः बहुत वाजिब है कि मजबूत भूखंड की तरह बने वोट बैंक को खंड–खंड में विभाजित करके विभिन्न दनता दलों की जगह केवल चाकरी करने की ही हो सकती है और सब खुशी–खुशी यह काम कर भी रहे हैं। यह सब कहानी लिखने का आशय यही है कि स्वयं को राजनीति का खिलाड़ी मानने वाले नीतीश बाबू ने किस तरह यह जोखिम मोल लेने की ठानी कि उन्होंने शरद यादव जैसे नेता की उपेक्षा करने का मन बनाया। दूरदर्शिता तो वह होती जब वह शरद यादव जैसे निर्विवाद नेता को विभिन्न जनता दलों व समाजवादियों को एक मंच पर लाने के प्रयास में जुट जाते मगर उन्होंने अपनी छवि को दूध का धुला हुआ दिखाने की खातिर अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली। राजधानी दिल्ली में अपनी पार्टी की कार्यकारिणी की बैठक करके घुड़की देने से अब क्या होगा जब हुजूर की दाल–रोटी ही ‘बड़े ठिकाने’ वालों के सहारे चल रही है।

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