2024 के लोकसभा चुनावों से पहले पूरे देश में विपक्षी दलों के बीच एकता स्थापित करने की जिस मुहीम पर बिहार के मुख्यमन्त्री व जनता दल (यू) के नेता श्री नीतीश कुमार निकले हुए हैं उसके फलीभूत होने की उम्मीदें अधिकतर विरोधी दलों ने जाहिर जरूर की हैं मगर अभी तक यकीन से यह नहीं कहा जा सकता कि सभी भाजपा विरोधी दल मिलकर कोई ऐसा मंच बना सकते हैं जिससे चुनावों में भाजपा व विपक्षी दलों के बीच एक-एक प्रत्याशी के आधार पर भिड़न्त हो सके। इस मार्ग में बहुत सी कठिनाइयां नजर आती हैं। सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि केवल भाजपा व कम्युनिस्टों को छोड़ कर पूरे देश में अधिकतर मजबूत क्षेत्रीय विरोधी दल ऐसे हैं जिनका जन्म कांग्रेस विरोध की वजह से ही हुआ है। इसकी वजह यह है कि 80 का दशक शुरू होने तक पूरे देश में कांग्रेस की स्थिति वर्तमान भाजपा की स्थिति से भी मजबूत मानी जाती थी।
आज भी देश में कई क्षेत्रीय नामों से अलग कांग्रेस पार्टियां चल रही हैं जैसे महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस, प. बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, आन्ध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस आदि। इनके अलावा और भारत की क्षेत्रीय पार्टी हैं जो कांग्रेस से ही निकल कर अलग-अलग प्रदेशों में पृथक-पृथक नामों से चल रही हैं। ऊपर से देखा जाये तो इनका भाजपा विरोध के नाम पर एक मंच पर आना बहुत सरल दिखता है मगर वास्तव में जमीन पर ऐसा नहीं है क्योंकि जमीन पर इनका मुकाबला आज भी कहीं न कहीं मूल कांग्रेस से ही होता रहता है। श्री नीतीश कुमार इन सब विरोधाभासों को देखते हुए ही विपक्षी एकता के प्रयास कर रहे हैं। हालांकि डेढ़ साल पहले तक वह खुद भाजपा के सहयोग से बिहार की सरकार चला रहे थे मगर उनकी इस पार्टी के साथ कुछ मूल सिद्धान्तों को लेकर जब अनबन हुई तो उन्होंने अपना रास्ता बदल लिया और लालू जी की राष्ट्रीय जनता दल पार्टी के साथ हाथ मिला लिया।
मोटे तौर पर नीतीश बाबू की कोशिश यह लगती है कि भाजपा के विरोध में कांग्रेस के साथ पूरे देश की वे सभी राजनैतिक शक्तियां एक मंच पर आयें जिन्हें सामाजिक न्याय की पैरोकार माना जाता है। मगर इस बार विपक्षी एकता का प्रयास दो दिशाओं की तरफ से हो रहा है। दक्षिण के राज्य तमिलनाडु के द्रमुक पार्टी के नेता व मुख्यमन्त्री श्री एम.के. स्टालिन भी लगातार प्रयास कर रहे हैं कि सभी भाजपा विरोधी दल एक मंच पर आयें। सैद्धान्तिक रूप से सामाजिक न्याय की अलम्बरदार पार्टियों की एकता का मन्त्र उन्हीं ने दिया है और इस बाबत अपने राज्य में पिछले दिनों एक महासम्मेलन भी कराया था। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि उत्तर में नीतीश बाबू व दक्षिण में स्टालिन विपक्षी एकता की गाड़ी को चला रहे हैं। इन प्रयासों में कुछ राज्य अवरोध जैसे नजर आते हैं जैसे प. बंगाल में ममता बनर्जी। उनके राज्य में जमीन पर कम्युनिस्ट व कांग्रेस पार्टी अभी भी मुकाबले से बाहर नहीं जाते हैं जबकि भाजपा ने काफी हद तक विपक्ष की भूमिका ले ली है।
ममता दी ने 2011 में ही अपने राज्य से वामपंथियों के लम्बे शासन को हटाया था। अतः इस राज्य में यदि नीतीश बाबू के एक के मुकाबले एक फार्मूले पर चलें तो ममता दी की तृणमूल कांग्रेस व कम्युनिस्टों के बीच गठबन्धन करना होगा। यह किसी तौर पर मुमकिन नहीं लगता है। इसी प्रकार तेलंगाना राज्य की सत्तारूढ़ भारत राष्ट्रीय समिति भी कांग्रेस से निकली हुई ही पार्टी है मगर राज्य में इसका मुख्य मुकाबला भी कांग्रेस पार्टी से ही रहता है। भाजपा का यहां अधिक प्रभाव नहीं माना जाता। यही हालत पड़ोस के आन्ध्र प्रदेश राज्य की है जहां वाईएसआर कांग्रेस के जगन मोहन रेड्डी मुख्यमन्त्री हैं। उनका मुकाबला क्षेत्रीय दल तेलगूदेशम से जरूर हो मगर राज्य में कांग्रेस पार्टी भी एक ताकत है।
ओडिसा राज्य की हालत बिल्कुल विचित्र है। मार्च 2000 से इस राज्य में बीजू जनता दल के नेता श्री नवीन पटनायक मुख्यमन्त्री हैं। पिछले 23 वर्षों में केन्द्र में भाजपा व कांग्रेस नीत गठबन्धनों की सरकारें रही हैं। बीजू जनता दल का केन्द्र की सरकारों के प्रति रवैया तभी से ‘इस हाथ दे उस हाथ ले’ की तर्ज पर रहा है। लोकसभा में इस पार्टी के सदस्य संकट या मौका पड़ने पर सत्तारूढ़ गठबन्धन की सरकारों का समर्थन कर देते हैं। इसमें वाजपेयी सरकार भी रही और मनमोहन सरकार भी और अब मोदी सरकार भी। पिछले दिनों ही नीतीश बाबू ने नवीन पटनायक से कटक जाकर मुलाकात की थी। मुलाकात के बाद नीतीश बाबू ने कहा कि बातचीत बहुत लाभप्रद रही और विपक्षी एकता एक कदम आगे बढ़ी मगर कल ही नवीन पटनायक ने दिल्ली में प्रधानमन्त्री से भेंट की और कहा कि किसी तीसरे मोर्चे या विपक्षी मोर्चे का कोई सवाल ही नहीं। बीजू जनता दल अकेले अपने दम पर ही लोकसभा चुनाव लड़ेगा और कांग्रेस व भाजपा से बराबर की दूरी बनाये रखेगा। लेकिन दूसरी तरफ यह भी कहा जा रहा है कि यदि कर्नाटक के आज घोषित होने वाले चुनाव परिणामों में कांग्रेस इस राज्य में सत्तारूढ़ होने में कामयाब हो जाती है तो इसका असर राष्ट्रीय स्तर पर इस प्रकार पड़ेगा कि नीतीश बाबू के पास विरोधी दल खुद पहुंचेंगे।
आदित्य नारायण चोपड़ा