अब यह सुनिश्चित है कि दिल्ली और बिहार की राजनीति करवट बदलने वाली है मगर आश्चर्य की बात यह है कि सुशासन बाबू कहलाये जाने और राजनीति में नैतिकता के अलम्बरदार कहलाये जाने के शौकीन बिहार के मुख्यमन्त्री नीतीश बाबू दिल्ली के उस मुख्यमन्त्री अरविन्द केजरीवाल के साथ प्रेम की पींगें बढ़ा रहे हैं जो सदाचार की कसम उठाते-उठाते भ्रष्टाचार का एलानिया पैरोकार बन गया है। इसमें भी कोई दो राय नहीं हो सकती कि केजरीवाल के दिन गिनती के रह गये हैं क्योंकि उन्होंने स्वयं ही भ्रष्टाचार विरोधी मुखौटे को उतार कर अपने वास्तविक स्वरूप में आने का फैसला कर लिया है। दोनों में सबसे बड़ी समानता यह दिखाई दे रही है कि ये हर कीमत पर सत्ता में बने रहना चाहते हैं।
नीतीश बाबू और राजद के नेता लालू प्रसाद के बीच गठबन्धन स्वाभाविक नहीं है। यह सत्ता का सुख चखने के लिए बनाया गया अवसरवादी गठजोड़ है। यदि ऐसा न होता तो क्या नीतीश बाबू लालू जी के दो बेटों को अपने मन्त्रिमंडल में स्थान देते? बिहार राज्य का मंत्रिमंडल देश का ऐसा पहला मन्त्रिमंडल है जिसमें दो सगे भाई बड़ी शानो-शौकत के साथ मंत्री पद की शोभा बढ़ा रहे हैं इसी से स्पष्ट है कि नीतीश बाबू ने राज्य में सरकार बनाते समय अपने थके हुए होने का परिचय दे दिया था, वह भी तब जब इन दोनों मन्त्रियों के पिताश्री लालू प्रसाद अदालत द्वारा भ्रष्टाचार के अपराधी घोषित हो चुके थे। यह चारा घोटाला ही था जिसमें लालू प्रसाद नब्बे के दशक में मुख्यमन्त्री के पद पर रहते हुए जेल गये थे और वहां जाने से पहले उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमन्त्री की कुर्सी पर बिठा दिया था। परिवारवाद को पानी पी-पी कर कोसने वाले नीतीश बाबू ने लालू जी की पार्टी के उस बड़े परिवार को भी अपना लिया जिसका सदस्य हत्या और अपहरण करने का मुजरिम मोहम्मद शहाबुद्दीन है। राजनीतिक पतन का यह उदाहरण इसलिए है कि लालू जी इस अपराधी से उसके जेल में रहते बिना किसी सरकारी पद पर रहते हुए शासन में दखल देने के इरादे से निर्देश लेते रहे।
जाहिर है कि लालू जी ऐसी सीना जोरी अपने दो बेटों के मन्त्री पद पर रहने की वजह से ही कर सकते थे मगर अब एक नया मोड़ आया है कि सर्वोच्च न्यायालय ने लालू जी के खिलाफ चारा घोटाले में सभी मामलों को चलाये जाने का निर्देश दिया है और फैसला किया है कि उनके खिलाफ आपराधिक षडï्यन्त्र करने के मामले को भी चलाया जाना चाहिए। षडï्यन्त्र की इस धारा को झारखंड उच्च न्यायालय ने हटा दिया था और मामले की जांच करने वाली सीबीआई इसके विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने में हील हुज्जत कर गई थी। किसी राजनीतिज्ञ के विरुद्ध जब किसी आर्थिक मामले में आपराधिक षड्ïयन्त्र करने की धारा 120 (बी) लगाई जाती है तो उसके सार्वजनिक जीवन की सारी कमाई धुल जाती है और उसकी विश्वसनीयता शून्य हो जाती है। चारा घोटाला ऐसा घोटाला था जिसमें कुल 900 करोड़ रुपए से ज्यादा के धन की हेराफेरी हुई थी। अत: नीतीश बाबू को अपने ‘सुशासन बाबू’ होने का भ्रम छोड़ देना चाहिए मगर इसका मतलब यह नहीं है कि वह भाजपा विरोध के नाम पर दो करोड़ रुपए की रिश्वत लेने और अपने मन्त्रिमंडल में कालेधन को सफेद बनाने वाले मन्त्री सत्येन्द्र जैन को बनाये रखने के आरोपी अरविन्द केजरीवाल से दोस्ती बढ़ाने लगें। पहले से ही लालू जी की सोहबत में कडुवा करेला बने नीतीश बाबू नीम के पेड़ पर भी चढ़ जायें! कल तक दूसरों पर आरोप लगाकर इस्तीफा मांगने की सरेआम ‘नुमाइश’ करने वाले केजरीवाल अब स्वयं ‘नुमाइश’ का सामान बनते जा रहे हैं और लोगों को सन्देश दे रहे हैं कि ‘भ्रष्टाचार’ का अर्थ उनके अपने ऊपर आरोप लगने पर ‘सदाचार’ हो जाता है। क्या सितम है कि उनकी आम आदमी पार्टी एक प्रेस कान्फ्रैंस करके बजाय आरोपों की सफाई देने के राष्ट्रवाद की बात करने लगती है और इसके नेता देश को गुमराह करने की हिमाकत तक करते हैं।
दिल्ली विधानसभा का रिकार्ड उठाकर देख लिया जाना चाहिए कि सहारा डायरी के आरोप सदन के भीतर स्वयं केजरीवाल ने लगाये थे और कागजात लहराये थे, उनके सहयोगी कपिल मिश्रा ने नहीं मगर कपिल मिश्रा के आरोपों से तिलमिला कर आप के नौसिखिया नेता झूठ बोलकर शर्मसार होने से बचने की कोशिश कर रहे हैं। यदि मिश्रा के आरोपों में दम नहीं है तो उल्टे यह सवाल क्यों खड़ा किया जा रहा है कि अपने ही मन्त्री सत्येन्द्र जैन से दो करोड़ रुपए नकद लेने के लिए क्या केजरीवाल ने मिश्रा को अपने घर बुलाया था? नहीं भूला जाना चाहिए कि जब केजरीवाल ने दो करोड़ रुपए लिये तो कपिल मिश्रा भी केजरीवाल सरकार में मन्त्री थे मगर नीतीश बाबू की पार्टी के राज्यसभा सदस्य के.सी. त्यागी केजरीवाल के घर चाय पीने पहुंच गये। उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि वह उस चौधरी चरण सिंह की शागिर्दी में पले-बढ़े हैं जिनके दामन पर दाग लगाने की हिम्मत दुश्मनों तक की नहीं हुई। नीतीश बाबू भी चौधरी साहब की शागिर्दी में रह चुके हैं। अत: गिरे भी तो कहां जाकर गिरे? सवाल यह नहीं है कि आम आदमी पार्टी या लालू जी की राष्ट्रीय जनता दल को चुनावों में कितनी सीटें मिली थीं बल्कि सवाल यह है कि इन दोनों पार्टियों का जनता के बीच में रुतबा क्या है? नीतीश बाबू को अपनी सोहबत पर नजर रखनी ही होगी क्योंकि मुख्यमन्त्रियों की हुकूमत का ‘इकबाल’ सोहबत का भी मोहताज होता है मगर देखिये क्या कयामत है कि किस गर्मजोशी से खरबूजे रंग बदल रहे हैं।