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सड़कों पर कब्जे का हक नहीं

सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली में चल रहे किसान आन्दोलन के बारे में एक बात बहुत स्पष्ट तरीके से रखी है कि आन्दोलन के नाम पर सड़कों पर अनिश्चितकाल के लिए कब्जा उचित नहीं है

सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली में चल रहे किसान आन्दोलन के बारे में एक बात बहुत स्पष्ट तरीके से रखी है कि आन्दोलन के नाम पर सड़कों पर अनिश्चितकाल के लिए कब्जा उचित नहीं है। हालांकि इस के साथ ही न्यायमूर्तियों ने यह भी स्पष्ट किया है कि आन्दोलन करने के नागरिकों के मौलिक अधिकार को नहीं छीना जा सकता है और किसी ऐसे मुद्दे पर भी आन्दोलन किया जा सकता है जो न्यायालय के विचाराधीन हो। इससे यह नतीजा निकाला जा सकता है कि किसी भी आन्दोलन के लिए स्थायी रूप से ऐसी सार्वजनिक उपयोग की सुविधाओं को हस्तगत नहीं किया जा सकता जिनकी उपयोगिता सामान्य नागरिकों की जीवनशैली में शामिल हो। सड़कें एेसी ही सुविधा हैं जिनका उपयोग सामान्य जन आवागमन व यातायात हेतु करते हैं। परन्तु इसके साथ यह भी देखना होगा कि आन्दोलन का उद्देश्य क्या है? 
 लोकतन्त्र में सत्ता तक अपनी आवाज पहुंचाने के लिए नागरिक या उनके विभिन्न व्यवसायों से जुड़े हुए संगठन आन्दोलन का रास्ता अपनाते हैं। मत भिन्नता या मत विविधता लोकतन्त्र का आधार होती है जिसे प्रकट करने के कई रास्ते होते हैं। आन्दोलन सबसे अन्तिम रास्ता माना जाता है अतः इसका उपयोग सामान्य तरीके से नहीं हो सकता। इसके साथ ही आन्दोलन के पीछे विचारों की लड़ाई मुख्य होती है और बहुतायत में आन्दोलन  किसी विषय या मुद्दे पर सरकार के मत या रवैये अथवा विचार के विरुद्ध ही आयोजित किये जाते हैं। व्यावहारिकता में यह जनमत की लड़ाई होती है और सत्ता जनता की सहानुभूति अपने साथ करने के लिए वे रास्ते अपनाती है जिससे आन्दोलनकारियों के प्रति आम जनता का हमदर्दी का भाव न जागे। इसी वजह से सर्वोच्च न्यायालय में किसान आन्दोलन से उपजी व्यावहारिक कठिनाइयों के बारे में नोएडा की एक नागरिक सुश्री मोनिका अग्रवाल द्वारा याचिका पर चली सुनवाई के दौरान यह विषय भी उठा और किसानों की पैरवी करने वाले वरिष्ठ वकील श्री दुष्यन्त दवे ने दलील पेश की कि सड़कों का यातायात किसानों की वजह से नहीं बल्कि पुलिस द्वारा लगाये गये ‘बैरियरों’ की वजह से प्रभावित हो रहा है और नागरिकों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।
 दूसरी तरफ यह भी हकीकत है कि पुलिस एहतियाती कदम सड़कों पर चलने वाले वाहनों से किसी आन्दोलनकारी नागरिक को संभावित नुकसान के अन्देशे में ही उठाती है। सड़कों के किनारे भी यदि आन्दोलनकारी रहते हैं तो दुर्घटनाओं की आशंका को टाला नहीं जा सकता। दूसरे व्यावहारिकता में देखने में यह आता है कि जब सड़कों पर कोई आन्दोलन चलता है तो उसके आवेश में यातायात नियमों का संरक्षण नहीं हो सकता। अतः मूल सवाल यही है कि क्या सड़कों को आन्दोलन स्थलों में बदला जा सकता है?  बेशक किसी एक दिन के लिए जुलूस निकालने या प्रदर्शन करने के लिए सड़कों को जरिया बनाया जा सकता है मगर अनिश्चितकाल के लिए उन पर कब्जा नहीं किया जा सकता क्योंकि इससे आम नागरिकों की दैनिक जीवन चर्या बुरी तरह प्रभावित होती है। महानगरों के सन्दर्भ में यह सवाल और भी संजीदा हो जाता है क्योंकि लाखों नागरिक अपनी रोजी-रोटी के जुगाड़ में इन सड़कों का उपयोग अपने दफ्तरों या कार्यस्थलों पर जाने के लिए सुविधा के तौर पर करते हैं। परन्तु जहां तक किसान आन्दोलन का सवाल है तो यह संसद द्वारा बनाये गये तीन कृषि कानूनों के विरुद्ध हो रहा है। इन कानूनों के बारे में किसान संगठनों और सरकार की राय एक-दूसरे की ठीक विपरीत हैं। किसानों ने सर्वोच्च न्यायालय में इस मुतल्लिक याचिका भी दायर कर रखी है जबकि इससे पहले  न्यायालय ने इन तीनों कानूनों का ठंडे बस्ते में डाल दिया था और 18 महीने तक के लिए इनके कार्यान्वयन पर रोक लगा दी थी। 
सर्वोच्च न्यायालय में किसानों द्वारा दायर याचिकाओं की सुनवाई एक तीन सदस्यीय पीठ द्वारा जल्दी ही करने का सवाल भी सामने आया जिस पर विद्वान न्यायाधीशों ने साफ किया कि वे पहले पूरे मामले को गहराई से समझेंगे तब इस बारे में कोई राय व्यक्त करेंगे मगर इन्ही न्यायाधीशों ने यह शीशे की तरह साफ भी किया कि आन्दोलन करने का अधिकार तो है मगर सड़कों पर कब्जा करने का हक किसी को नहीं दिया जा सकता। लेकिन दूसरी तरफ जमीन पर भी हलचल होनी शुरू हुई है और दिल्ली-गाजियाबाद राजमार्ग पर गाजीपुर के समीप सड़क पर लगे तम्बुओं को किसानों ने उखाड़ लिया है और ट्रैक्टरों को भी हटा दिया है। इससे यह आभास तो होता ही है कि सर्वोच्च न्यायालय में चली बहस का असर धरातल पर आन्दोलन स्थलों पर हो रहा है।

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