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संसद से नहीं आयी कोई आवाज !

दिल्ली उच्च न्यायालय के जिन न्यायाधीश श्री मुरलीधर के तबादले का बार-बार जिक्र किया गया, उन्हीं की इस टिप्पणी को याद रखना कांग्रेस के सांसदों ने गंवारा नहीं किया कि न्यायपालिका किसी भी सूरत में 1984 जैसे हालात बनते नहीं देख सकती।

संसद के दोनों सदनों में दिल्ली की हिंसा पर चर्चा हो चुकी है और गृहमन्त्री श्री अमित शाह इसका जवाब भी दे चुके हैं। संसद में बहस देर से हुई, इसमें कोई दो राय नहीं है मगर बहस का स्तर भी ‘बे-वजन’ रहा, इसमें भी कोई मतभेद नहीं हो सकता। आजाद भारत में साम्प्रदायिक दंगों की गिनती करा कर हम खुद को ही शर्मसार करते रहे, इसमें भी कोई शक नहीं रहा? 
बेशक श्री शाह ने पूरे देश को आश्वस्त किया है कि हिंसा में शामिल किसी मुजरिम को बख्शा नहीं जायेगा मगर बहस से यह तथ्य भी उभरा है कि संशोधित नागरिकता कानून को लेकर इसके समर्थक व विरोधी दोनों ही पक्षों की ओर से नफरत और घृणा व एक-दूसरे समुदाय के खिलाफ दुश्मनी और डर का माहौल बनाया गया।
संसद में चली बहस का नतीजा निकाला जा सकता है और वह इस प्रकार है- फसाद की जड़ नागरिकता कानून है,  इस बहुमत की ताकत की संवैधानिक परीक्षा अब सर्वोच्च न्यायालय में होनी है, कानून की संवैधानिक परीक्षा का कार्य जल्द से जल्द सर्वोच्च न्यायालय में होना चाहिए क्योंकि भारत में बहुमत के आधार पर शासन चलाने का अधिकार तो राजनीतिक संगठनों को मिलता है मगर शासन संविधान का ही होता है, 
दिल्ली की हिंसा को लेकर जिस तरह के राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप संसद के भीतर लगे हैं उन्हें देखते हुए इसकी निष्पक्ष व स्वतन्त्र न्यायिक जांच बहुत जरूरी है, जिससे भविष्य में इस तरह की हिंसा न होने पाये और कानून-व्यवस्था की जिम्मेदार पुलिस केवल और केवल संविधान के प्रति जवाबदेही से बंधी रहे। 
दरअसल जबानी जमा खर्च तो साम्प्रदायिक सद्भाव के बारे में बेहिसाब किया जा सकता है किन्तु असल सवाल इसे जमीन पर व्यवहार में उतारने का होता है। दिल्ली उच्च न्यायालय के जिन न्यायाधीश श्री मुरलीधर के तबादले का बार-बार जिक्र किया गया, उन्हीं की इस टिप्पणी को याद रखना कांग्रेस के सांसदों ने गंवारा नहीं किया कि न्यायपालिका किसी भी सूरत में 1984 जैसे हालात बनते नहीं देख सकती। 
1984 की कैफियत से सब वाकिफ हैं कि किस तरह सामान्य सिख नागरिकों का तीन दिन तक सरे राह कत्लेआम किया गया था। भारतीय राजनीति के पतन का यह सबसे काला दिन था और धर्म के इसमें प्रवेश का सार्वजनिक एेलान था और  1984 के सिखों के कत्लेआम ने बाजाब्ता तौर पर सत्ताधारी दल का इमान बना दिया था। अतः इसके बाद देश की राजनीति बदलती गई और इस तरह बदरंग होती गई कि दंगा कराने में महारथ हा​िसल करने वाले लोग सियासत में ईनाम-ओ-इकराम से नवाजे जाने लगे। 
दुर्भाग्य इस देश का यह रहा है कि सबसे ज्यादा समय शासन करने वाली पार्टी कांग्रेस ने ही सभी बुराइयों की शुरूआत की है जिसका अनुसरण करके दूसरी पार्टियों ने उसे मात देने की कोशिश की है। यही वजह है विपक्षी दल की हैसियत में आने के बाद उसका हर वार खाली जाता है। गौर से देखा जाये तो इन्दिरा गांधी के बाद का कांग्रेस का इतिहास गल​ितयों और गफलत का इतिहास रहा है मगर भाजपा को भी क्लीन चिट नहीं दी जा सकती है।
इस दौर में कांग्रेस और भाजपा के बीच का भेद जिस तरह समाप्त हुआ उसी का नतीजा है कि आज कांग्रेस बदहवासी की हालत में तब आ गई है जबकि इसके भीतर  आज भी एक से बढ़ कर  एक सरीखे दिमाग पड़े हुए हैं। भाजपा आसानी से कांग्रेस का सिर फोड़ कर आगे निकल जाती है और कांग्रेसी सिर खुजाते रह जाते हैं। अतः समस्या किसी एक दल से नहीं बल्कि राजनीति के बदलते तेवरों से है जिनमें अतिवाद का भाव प्रखर होता जा रहा है। 
साम्प्रदायिक द्वेष का असली कारण भी यही है। 100 करोड़ पर 15 करोड़ भारी और देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को, नारों में कोई मूल अन्तर नहीं है। दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं और राजनीति को धर्म की पहचान से बांधने को उतावले हैं किन्तु दुर्भाग्य से संसद से इस मानसिकता के विरुद्ध कोई  एकमुश्त आमराय का सन्देश नहीं आ सका, किन्तु बहुत जरूरी है कि किसी भी समुदाय या धर्म के दायरे में गठित सेनाओं पर तुरन्त प्रतिबन्ध लगाया जाये। 
भारत के लोकतन्त्र में वह कोई भी संगठन मूल भाव में अहिंसक नहीं हो सकता जिसके नाम के साथ सेना जुड़ा हुआ हो। अतः ऐसे संगठनों को प्रतिबन्धित किया जाना चाहिए क्योंकि उनका उद्देश्य समाज में जाति व धर्म के आधार पर लोगों में भेदभाव पैदा करना होता है। ये संगठन किसी भी तौर पर सांस्कृतिक संगठनों की परिभाषा में नहीं आते हैं।
 देश को भीतर से कमजोर बनाना ही इनका लक्ष्य होता है परन्तु संसद के सम्मानित सदस्यों को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उन्हें जो विशेषाधिकार मिले हुए हैं वे भारत के संविधान के अनुसार सबसे बड़ी चुनी हुई संस्थाओं में नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए ही मिले हुए हैं। 
ऐसा करते हुए वह संविधान का शासन काबिज करने वाली न्यायपालिका के बारे में ही असंयमित भाषा का प्रयोग न करें। लोकसभा में जिस तरह से कुछ सांसदों ने न्यायाधीशों के बारे में टिप्पणी करते हुए अपनी तकरीर को  तल्ख बनाने की कोशिश की उसकी निंदा लाजिमी है। इन विद्वान सांसदों को मालूम होना चाहिए कि भारत के संविधान की बुनियाद मानवीयता और मानवतावाद पर है। 
यह कार्य बाबा साहेब अम्बेडकर ने किया था क्योंकि वह जानते थे कि आजाद हिन्दोस्तान में साधारण नागरिक का आत्म सम्मान कायम रखना बहुत बड़ी चुनौती होगी। इसकी वजह यह थी कि अंग्रेजों ने अपने दो सौ साल के शासन में आम भारतीयों का आत्म सम्मान समाप्त करके ही राज किया था। अतः हमारी न्यायपालिका नागरिक सम्मान और उसके मूल अधिकारों को संरक्षण देने की दृष्टि से ही छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा फैसला देती है। 
अहिंसक  विरोध प्रदर्शन करने के लिए नागरिकों को सरकार की सहमति की जरूरत नहीं होती। अतः लोकतन्त्र में सत्ता और विपक्ष दोनों के ही सदस्यों को संविधान की गरिमा रखनी होती है मगर क्या किया जाये जालिम सियासत सारी हदों को तोड़ने को बेताब लगती है और कलम है कि मानती ही नहींः 
‘‘तेरे रुसवा होने का डर है हमको, वर्ना 
 लिखने पर आये तो ‘कलम’ से सर कलम कर दें।’’

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