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शोर-शराबे का लोकतंत्र

पूर्व वित्त मन्त्री स्व. अरुण जेटली ने जब यह कहा था कि ‘भारत एक शोर-शराबे का लोकतन्त्र है’ तो उन्होंने इस देश की उस लोकतान्त्रिक ताकत का ही इजहार किया था जो इसके लोगों की सबसे बड़ी विशेषता है।

पूर्व वित्त मन्त्री स्व. अरुण जेतली ने जब यह कहा था कि ‘भारत एक शोर-शराबे का लोकतन्त्र है’ तो उन्होंने इस देश की उस लोकतान्त्रिक ताकत का ही इजहार किया था जो इसके लोगों की सबसे बड़ी विशेषता है। लोकतन्त्र की भी स्वयं में यह सबसे बड़ी विशेषता होती है कि यह ‘बोल’ से चलता है अर्थात हर सूरत में यह ‘वाचाल’ रहता है।
संसदीय लोकतन्त्र में यह वाचालता सत्ता पक्ष और विपक्ष की तर्क बुद्धि की मोहताज रहती है जिसकी वजह से आम जनता उसकी परछाई में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करती रहती है। जाहिर है यह प्रतिक्रिया कभी गूंगी नहीं हो सकती। अतः उसका रूपान्तरण ‘शोर-शराबे’ में होता है।
इसके साथ ही इस व्यवस्था की यह भी खूबी होती है कि इसमें वैचारिक अभिव्यक्ति के लिए कोई खौफ या डर नहीं होता, बशर्ते वह संविधान द्वारा नियत सीमा के भीतर हो, अतः शोर-शराबा अव्यवस्थित होते हुए भी सांस्थानिक स्वरूप में प्रकट होता है जिसे सत्ता पक्ष और विपक्ष अपने-अपने सांचे में ढाल कर पेश करते हैं। इसलिए आज हम विभिन्न मुद्दों पर पूरे देश में जो शोर-शराबा सुन-देख और पढ़ रहे हैं वह भारतीय लोकतन्त्र की ही जमीनी सच्चाई है।
हाथरस कांड से लेकर किसानों का आन्दोलन हो या हाल ही में समाप्त संसद के सत्र में राज्यसभा में नियमों के विपरीत आचरण का मामला हो, सभी में सत्ता व विपक्ष की अवधारणा की लड़ाई  है जिसे आम जनता इसलिए उत्सुकता से देख रही है क्योंकि इन सब घटनाओं का अन्तिम परिणाम उसे ही झेलना होगा मगर लोकतन्त्र में जनता कभी भी तमाशबीन नहीं होती बल्कि वह पर्यवेक्षक होती है और अवधारणा का वजन अपने हिसाब से करती रहती है।
राजनैतिक दलों की भूमिका तब हाशिये पर चली जाती है जब जनता स्वयं उठ कर अपनी अवधारणा को हकीकत में बदलने की ठान लेती है। पंजाब में किसानों का जो आन्दोलन आजकल चल रहा है वह इसी अवधारणा युद्ध का प्रमाण है क्योंकि वहां कांग्रेस पार्टी में सत्ता में होने के बावजूद नये कृषि विधेयकों का विरोध इस आधार पर कर रही है कि इससे अन्ततः किसानों की हालत कमजोर होगी जबकि दूसरी ओर केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा पार्टी ये विधेयक सोच कर लाई है कि इनसे किसानों की स्थिति मजबूत होगी और उन्हें अर्थ व्यवस्था के बाजार मूलक दौर में इससे आर्थिक लाभ होगा।
दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी अवधारणाएं आम जनता में बांटना चाहते हैं, इसीलिए हम भारी शोर-शराबा सुन रहे हैं। वैसे शोर-शराबा तब भी हुआ था जब 2005 में ही किसानों के लिए कृषि मंडी समिति कानून लाया गया था। यह कार्य तत्कालीन मनमोहन सरकार के कृषि मन्त्री श्री शरद पंवार ने किया था।
इसी प्रकार 2012 में जब निर्भया बलात्कार कांड हुआ था तो राजधानी समेत पूरे देश की सड़कों पर इसका घनघोर विरोध हुआ था। उस समय भी मनमोहन सरकार सत्ता पर काबिज थी। उस समय के विपक्ष ने इस मुद्दे पर संसद से लेकर सड़क तक सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ बलात्कारियों के विरुद्ध नरम रुख अपनाने की अवधारणा पैदा कर दी थी जिसके परिणाम स्वरूप फौजदारी कानून में परिवर्तन करके बलात्कार को ऐसा दंडनीय अपराध बना दिया गया  कि अपराधी की रूह कांप जाये।
शोर-शराबे की हद यह थी कि संसद के भीतर तक चौराहों के दृश्य अवतरित हो गये थे लेकिन यह सब लोकतन्त्र की ताकत ही थे जिसका अवलोकन पूरा देश कर रहा था क्योंकि तब आन्दोलनकारियों ने राष्ट्रपति पद पर बैठे स्व. प्रणव मुखर्जी तक का दरवाजा खटखटा दिया था।
ऐसा हमने अब भी कृषि विधेयकों के मुद्दे पर देखा कि विपक्षी दल इन विधेयकों के खिलाफ राष्ट्रपति भवन तक गये। यह भी लोकतन्त्र की खूबी ही थी जो शोर- शराबे में प्रकट हो रही थी। असल में लोकतन्त्र के मालिक अन्ततः लोक (जनता) ही होती है इसीलिए सत्ता पक्ष और विपक्ष उसके बीच अपनी-अपनी अवधारणाएं जमाने का प्रयास करते हैं।
यह प्रयास ही इस व्यवस्था में आम आदमी को मजबूती प्रदान करता है क्योंकि उसके पास ही संविधान के तहत एक वोट का अधिकार है जिसके प्रयोग करने पर सरकार का गठन होता है। यह सरकार ही आम आदमी के अधिकारों का संरक्षण करती है जिससे वह अधिकाधिक मजबूत बन सके।
यह मजबूती केवल आर्थिक पक्ष तक सीमित नहीं होती बल्कि बौद्धिक पक्ष तक इसका विस्तार रहता है जिसका प्रावधान हमारे संविधान में बाबा साहेब अम्बेडकर इस प्रकार करके गये कि प्रत्येक सरकार लोगों में वैज्ञानिक सोच पैदा करने के उपाय करेगी। यह प्रावधान इसलिए जरूरी था कि दो सौ साल तक अंग्रेजों की गुलामी में रहने वाले भारतीयों में गुलामी का भाव घर कर गया था क्योंकि अंग्रेजी शासन में भारतीय समाज की रूढ़िवादी प्रवृत्तियों को पूरा प्रश्रय दिया गया था।
अतः हम जो भी शोर-शराबा आज सुन-देख रहे हैं वह आम जनता के  बौद्धिक स्तर को भी भीतर-भीतर कचोट रहा है क्योंकि सामाजिक मोर्चे से लेकर आर्थिक मोर्चे तक भारी शोर-शराबा हो रहा है। इसलिए सत्ता पक्ष को भी अपनी बात रखने का उतना ही अधिकार है जितना कि विपक्ष को क्योंकि इसी रास्ते से आम आदमी को मजबूती मिलेगी।

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