कोरोना से लड़ाई अब दोहरी-तिहरी ही नहीं बल्कि बहुकोणीय हो चुकी है। देश की अर्थव्यवस्था को काफी नुक्सान पहुंच चुका है। पिछले वर्ष के आर्थिक सूचकांक को देखें तो आटोमोबाइल सैक्टर, रियल एस्टेट, लघु उद्योग समेत तमाम असंगठित क्षेत्रों में सुस्ती छाई हुई है। बैंक एनपीए समस्या से निपट रहे हैं, हालांकि सरकार निवेश के जरिये, नियमों में राहत और आर्थिक मदद देकर अर्थव्यवस्था को रफ्तार देने की कोशिश कर रही है, परन्तु इतनी बड़ी आबादी वाले देश में अधिक सफलता नहीं मिल रही। कोरोना वायरस ने अर्थव्यवस्था का चक्का ही जाम कर दिया।
एक तरफ सेहत और दूसरी तरफ अर्थव्यवस्था दोनों का ही विनाश सीमित करने की हर सम्भव कोशिश की जा रही है। हमारे देश में छोटे-छोटे कारखाने और लघु उद्योगों की बहुत बड़ी संख्या है। उन्हें नकदी की समस्या का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि पिछले पांच माह से कोई कमाई ही नहीं हुई। अनौपचारिक क्षेत्रों में फेरी वाले, श्रमिक, विक्रेता, लघु उद्योग और कारीगर या फिर छोटा-मोेटा व्यापार करने वालों से सरकार काे कोई टैक्स नहीं मिलता। अब एक नई समस्या का सामना करना पड़ रहा है। संगठित क्षेत्रों के श्रमिकों की तो छंटनी हुई ही बल्कि असंगठित क्षेत्र के करोड़ों मजदूरों के पास काम नहीं है।
करोड़ों मजदूरों ने अपने गांवों की ओर रुख इसलिए किया था कि वहां वे अपने परिवार के पास रहेंगे और कोई छोटा-मोटा धंधा करके गुजर-बसर कर लेंगे, लेकिन गांव में ही उनके लिए कोई रोजगार नहीं है। अब मजदूरों ने उल्टा गांवों से शहरों की तरफ पलायन शुरू कर दिया है यानि अब उल्टा पलायन शुरू हो चुका है। महाराष्ट्र के और सामाजिक व्यवस्था की। उन्होंने मजदूरों को वापस लाने के लिए बसें भेजी हैं। मुम्बई के शोरूम मालिकों ने कारोबारी औद्योगिक क्षेत्रों में हजारों मजदूर वापस लौट चुके हैं। हजारों मजदूर पंजाब, हरियाणा के खेतों में लौटने लगे हैं। इन राज्यों के किसानो ने अपनी तरफ से ही कहीं संजीदा मजदूरों के खाते में पैसे ट्रांसफर कर उन्हें बुलाया है। एक बार फिर से शहरों में औद्योगिक और रोजगार केन्द्र आबाद होने जा रहे हैं। कोरोना के चलते यह प्रक्रिया अभी महीनों तक धीमी रहेगी। उल्टे पलायन से संक्रमण और फैलने का खतरा भी बढ़ा है।
अनलॉक के दौरान देश में काफी कुछ खुल चुका है। अगर हमारे गांव आत्मनिर्भर होते तो इतनी बड़ी संख्या में मजदूरों को संकट का सामना नहीं करना पड़ता। यह सही है कि मनरेगा के तहत मजदूरों को काम दिया गया ताकि वे गुजर-बसर कर सकें लेकिन इसे लम्बे समय तक नहीं जारी नहीं रखा जा सकता। पहले त्यौहारी सीजन में मांग बढ़ती थी तो उत्पादन भी बढ़ जाता था। उत्पादन बढ़ाने के लिए उद्यमी ज्यादा मजदूर काम पर रखते थे। रोजगार के अवसर लगातार सृजित हो जाते थे लेकिन इस बार त्यौहार फीके ही रहेंगे। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, गणपति उत्सव और दशहरा, दीपावली तक स्थितियां सामान्य नहीं हो पाएंगी। ऐसे में लोगों को अस्थायी रोजगार की कोई सम्भावनाएं नजर नहीं आ रहीं।
इसी संदर्भ में हमें महात्मा गांधी की सलाह याद आती है, जिसमें उन्होंने कहा था कि पहले ग्रामीण अर्थव्यवस्था को विकसित करो और उसे आत्मनिर्भर बनाओ लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और प्रसिद्ध अर्थशास्त्री पी.सी. महालनोबिस ने विकास का सोवियत माडल अपनाया जिसके तहत भारी उद्योग विकसित करने और तीव्र औद्योगिकरण पर जोर दिया गया। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को नजरंदाज करना लम्बी प्रक्रिया रही। शहरों की तरफ नहीं जाने के इच्छुक मजदूरों को रोजगार देना सबसे बड़ी चुनौती बन गया है। लॉकडाउन का संकट आकस्मिक विपदा है लेकिन ऐसा फिर से हो सकता है। अच्छा होगा कि शहरों से भीड़ कम हो और प्रवासी मजदूरों को अपने गांव में भी काम मिले।
भूख शांत करने के लिए पलायन करने की तीन वजह हैं। पहली औद्योगिकरण के दौर में विकास और औद्योगिकरण का असमान वितरण, दूसरी बेतहाशा जनसंख्या वृद्धि और तीसरा ग्राम केन्द्रित अर्थव्यवस्था का अभाव। हमारी योजनाएं ग्राम केन्द्रित बनी ही नहीं। गांव उजड़ते चले गए। उदारीकरण के दौर में स्थानीय हुनर को किनारे लगा दिया गया तो वे लोग भी शहरों के मजदूर होने को मजबूर हो गए। जो लोग अपनी दस्तकारी के दम पर अपने मूल निवासों पर मालिक की भूमिका में रह सकते थे, वह भी शहरों की तरफ आ गए। जब तक गांवों को स्मार्ट नहीं बनाया जाता तब तक गांव की प्रतिभाओं को गांवों तक रोक पाना मुश्किल होगा। कोरोना संकट के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गांवों को आत्मनिर्भर बनाने की बात की है, लेकिन यह काम रात ही रात में तो हो नहीं सकता। अब गांवों में बड़ी केन्द्रीय योजनाएं लागू करने पर मंथन किया जा रहा है। अब गांवों की ओर अधिक ध्यान देना होगा अन्यथा मजदूरों को पलायन का दंश बार-बार झेलना होगा।