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‘नुसरत जहां’ और रणजीत सिंह!

जिस मजहब के नाम पर 1947 में भारत का बंटवारा करके पाकिस्तान का निर्माण किया गया था उसकी बुनियाद कितनी खोखली और बेजान थी इसका सबूत खुद पाकिस्तान ही सत्तर साल बाद दे रहा है।

जिस मजहब के नाम पर 1947 में भारत का बंटवारा करके पाकिस्तान का निर्माण किया गया था उसकी बुनियाद कितनी खोखली और बेजान थी इसका सबूत खुद पाकिस्तान ही सत्तर साल बाद दे रहा है। यह ऐतिहासिक सच है कि आज का पाकिस्तान  पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह की उस ‘पंजाब सल्तनत’ में ही तामीर किया गया जो 1846 तक हिन्दोस्तान की सबसे बड़ी देशी रियासत थी और जिसकी सरहदें आगरा से लेकर काबुल तक थीं। मगर इसी साल ईस्ट इंडिया कम्पनी ने महाराजा साहब की मृत्यु के बाद इस सल्तनत पर कब्जा किया और रणक्षेत्र में जीत हासिल करके पंजाब की गद्दी पर महाराजा के किशोर पुत्र दिलीप सिंह को बैठाकर जो सन्धि की उसके तहत पूरी रियासत को खरीद लिया गया और महाराजा के दरबार में मनसबदार जम्मू के राजा गुलाब सिंह को कश्मीर की जागीरदारी भी बख्श कर उन्हें ‘महाराजा’ का औहदा दिया गया साथ ही इस सल्तनत में आने वाली अन्य रियासतों के मनसबदारों को भी खुद मुख्तारी बख्शी गई। 
अतः यह बेवजह नहीं था कि जब अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिन्ना की जिद पर भारत को बांटने की तजवीज को सिरे चढ़ाना शुरू किया तो  महाराजा दिलीप सिंह की एकमात्र वारिस ‘राजकुमारी बाम्बा’ ने ब्रिटेन के शाही दरबार मे गुहार लगाई कि अंग्रेजों को उनकी रियासत की बागडोर भी उसी तरह सौंपनी चाहिए जिस तरह उन्होंनेे दूसरी देशी रियासतों को सौंपी है और ऐसा करते हुए वह पंजाब रियासत को दो मुल्कों के बीच तक्सीम नहीं कर सकते हैं। परन्तु राजकुमारी बाम्बा की कहीं सुनवाई नहीं हुई और उनके सामने ईस्ट इंडिया कम्पनी और महाराजा दिलीप सिंह के बीच हुई सन्धि को सबूत बनाकर कहा गया कि 1860 में ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा पूरे हिन्दोस्तान की सल्तनत ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया को बेचते समय ‘पंजाब सल्तनत’ कम्पनी के मालिकाना हक की जायदाद थी। 
राजकुमारी बाम्बा की मृत्यु 1957 में हुई और उनका अन्तिम संस्कार लाहौर के ‘गोरा कब्रिस्तान’ में ब्रिटेन के पाक स्थित उच्चायोग द्वारा किया गया जिसमें उनके ही दादा की रियासत के किसी बाशिन्दें को शिरकत करने की इजाजत नहीं दी गई। खासकर किसी भी सिख को नागरिक को  राजकुमारी बाम्बा युवावस्था में ही लन्दन से लाहौर आ गई थीं और यहीं उन्होंने शादी भी की थी। मगर वह एक ‘अनजान’ की तरह  ही  इस शहर में रहीं। जिस शहर में महाराजा रणजीत सिंह की पोती ने रुसवाई और बेरोनकी में अपनी जिन्दगी गुजार दी हो आज उसी शहर के लोगों ने महाराजा रणजीत सिंह की प्रतिमा उनकी याद में लगा कर साबित कर दिया है कि कोई भी मुल्क अपनी उन जड़ों से अलग नहीं हो सकता जिनसे उसकी बुनियाद को पुख्तापन मिलता है। लाहौर का इतिहास महाराजा रणजीत सिंह की शौर्यगाथाओं का सबूत रहा है। 
अपने ‘माझी’ या अतीत को लाहौर अथवा पंजाब किस तरह झुठला सकता है अतः पाकिस्तान के हुक्मरानों ने उनकी प्रतिमा स्थापित करने की इजाजत देकर स्वीकार किया है कि पाकिस्तान के अलग देश होने के बावजूद इसके हिन्दोस्तानी इतिहास से इसका गहरा सम्बन्ध है जिसे मजहब के दायरे में रखकर न तो बिगाड़ा जा सकता है और न संवारा जा सकता है। बेशक पाकिस्तान में 1958 के बाद से इसके इतिहास को इस्लामी रंग में रंगने के प्रयास हुए हैं जिससे यहां की नई पीढ़ी भारत के प्रति रंजिश से रंगी रहे मगर सच से पीछा छुड़ाना इतना आसान नहीं होता और वह कभी न कभी अपना जलवा जरूर बिखेरता है। इससे पहले भी लाहौर में ही शहीदे-आजम भगत सिंह के नाम पर सड़कों आदि का नामकरण करने का अभियान भी चला है जिससे पता चलता है कि इस मुल्क में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो साझी विरासत को मजहब के ऊपर महत्व देने में यकीन रखते हैं। 
हालांकि पाकिस्तान की तरफ से कहा गया है कि महाराजा रणजीत सिंह की घोड़े पर सवार आदमकद प्रतिमा का लक्ष्य धार्मिक पर्यटन  विशेषकर सिख पर्यटन को बढ़ावा देना है। परन्तु जाहिर तौर पर मूर्ति स्थापना इस्लाम के नजरिये से अनुचित कहा जाता है इसलिए इस्लामी देश पाकिस्तान की सरकार यदि महाराजा रणजीत सिंह की प्रतिमा स्थापित करके पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए जरूरी मानती है तो समझा जाना चाहिए कि यह देश अपनी मिट्टी की विरासत की कीमत समझ रहा है। परन्तु दूसरी तरफ भारत मे कट्टरपंथी मुल्लाओं ने लोकसभा की सदस्य बनी श्रीमती नुसरत जहां रुही के साड़ी पहनने और माथे पर बिन्दी व मांग में  सिन्दूर लगाने पर ही बवाल मचा दिया है। 
नुसरत जहां एक लोकप्रिय बंगाली फिल्म अभिनेत्री हैं जिन्होंने तुर्की में व्यापार करने वाले एक जैन व्यापारी से विवाह किया है वह बांग्ला मुसलमान हैं और अपनी बांग्ला संस्कृति को महत्व देती हैं। वन्देमातरम् गीत का गाना उनके लिए सामान्य बात है वह तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर बशीरहाट लोकसभा क्षेत्र से साढ़े तीन लाख से भी अधिक मतों से जीती हैं। मुल्ला-मौलवियों को उनके निजी जीवन में झांक कर फतवे देने का कोई अधिकार नहीं है। वह मुसलमान हैं तो अपने निजी जीवन में और संसद सदस्य हैं तो आम जनता की प्रतिनिधि के रूप में। वह संसद सदस्य की शपथ लेने के बाद यदि अपने से बड़े उम्र के अध्यक्ष के चरण स्पर्श करती हैं तो इसमें इस्लाम कहां से बीच में आ जाता है?  हकीकत यह है कि नुसरत जहां ने भारत की युवा नारियों के समक्ष ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया है जिससे सभी को प्रेरणा लेनी चाहिए। 
भारत का संविधान प्रत्येक हिन्दू-मुस्लिम युवती को अपनी मनपसन्द का जीवन साथी चुनने का अधिकार देता है औऱ जितने अधिक अन्तर्धार्मिक विवाह इस देश में होंगे उतनी ही धार्मिक कट्टरता समाप्त होगी पति-पत्नी अलग-अलग धर्मों के अनुयायी होने के बावजूद अपने-अपने धर्मों का पालन कर सकते हैं इसमें कहीं कोई अड़चन नहीं है। मगर कट्टरपंथी चाहते हैं कि युवा पीढ़ी में उदारता न आ पाये अतः मुस्लिम समाज की नवयुवतियों को ही आगे बढ़कर ऐसे मुल्ला-मौलवियों का विरोध करना चाहिए। यह उनका संवैधानिक अधिकार है। हमारे नाम कुछ भी हो सकते हैं और हम हिन्दू या मुसलमान हो सकते हैं परन्तु अन्त में भारत का संविधान ही हमारे हकों का संरक्षण करता है।

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