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समलैंगिकता के ‘विषम’ परिणाम

सर्वोच्च न्यायालय में समलैंगिक व बहु-काम सम्बन्धों (एलजीबीटी) को लेकर जो बहस चल रही है उसके बारे में सबसे पहले यह समझा जाना जरूरी है

सर्वोच्च न्यायालय में समलैंगिक व बहु-काम सम्बन्धों (एलजीबीटी) को लेकर जो बहस चल रही है उसके बारे में सबसे पहले यह समझा जाना जरूरी है कि एेसे संभोग ‘कर्म’ को दुनिया के गरम अर्थात पूर्व के देशों में ही अपराध की श्रेणी में डालने की मुख्य वजह क्या रही है? इस वजह की वैज्ञानिकता को हम नजरन्दाज कर रहे हैं और पश्चिमी देशों की कथित संभोग या सैक्स करने की स्वतन्त्रता के जाल में फंस रहे हैं। गरम देशों में सैक्स की इच्छा या प्रवृत्ति ठंडे या पश्चिमी देशों के लोगों की सैक्स प्रवृत्ति के मुकाबले ज्यादा तीव्रता व व्यग्रता के स्थायी भाव से बन्धी होती है जिसकी वजह से उसकी काम-वासना को अनुशासित रखने के लिए इन क्षेत्रों में फैले धर्मों के माध्यम से समाज की संरचना में समलैंगिकता को पाप, दुष्कर्म या अपराध की श्रेणी में डाला गया।

दुनिया के तीन प्रमुख हिन्दू, इस्लाम व ईसाई धर्मों का उद्गम पूर्व में ही हुआ है। अतः इन तीनों ही धर्मों में समलैंगिकता को समाज में विकार और व्यभिचार पैदा करने वाला माना गया। यह बात और है कि ईसाइयत सबसे ज्यादा आज यूरोपीय या ठंडे देशों में है मगर इसका सीधा सम्बन्ध प्रकृतिजन्य वैज्ञानिक प्रभावों से है। यह बेवजह नहीं है कि मुस्लिम नागरिकों में ‘खतने’ की प्रथा का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। अरब देशों की जलवायु को देखते हुए इस प्रथा को मजहब में शामिल करने का विशेष मन्तव्य था। यह बात और है कि बाद में अन्य देशों में भी मुस्लिम नागरिकों ने इसे धार्मिक कृत्य के रूप में अपनाया। यह निश्चित रूप से विरोधाभास है कि आधुनिक समझे जाने वाले यूरोपीय समाज में सबसे पहले समलैंगिकता को वैधानिक दर्जा दिया गया और समाज में घोषित रूप से समलैंगिक सम्बन्धों व बहु-काम कृत्यों को स्वीकार किया गया परन्तु भारत जैसे देश में एेसे सम्बन्धों को मान्यता देने का अर्थ समूचे समाज को उस अन्धे कुएं की तरफ फेंकने के समान होगा जिसमें गिर जाने के बाद व्यक्ति की वह ‘निजता’ ही समाप्त हो जायेगी जो उसे अपने ‘पौरुष’ और ‘कमनीयता’ की पहचान कराती है। प्रश्न यह खड़ा हो रहा है कि क्या 1861 में बनी भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को चालू रखा जाना चाहिए या इसे समाप्त कर देना चाहिए। बेशक यह कानून महारानी विक्टोरिया की अंग्रेज सरकार ने तब बनाया था जब 1860 में ब्रिटिश ईस्ट आफ इंडिया कम्पनी ने भारत की सल्तनत को उन्हें बाकायदा बहुत बड़ी रकम की एवज में बेचा था मगर इस कानून को बनाने में अंग्रेजों का अपना कोई हित नहीं था। महारानी विक्टोरिया के साम्राज्य मंे जितने भी देश आते थे उन सभी में समलैंगिकता पर पूरी तरह प्रतिबन्ध था।

इसका अंग्रेजों के धर्म से भी कहीं कोई सम्बन्ध नहीं था। इसका सम्बन्ध केवल इन देशों में अंग्रेजों की फौजों को लगातार अपने परिवारों से दूर रहने की स्थिति में काम पिपासा से दूर रखने का था। फौज में अनुशासन बनाये रखने की गरज से यह कानून बनाया गया था। बेशक अंग्रेजों ने भारतीय दंड संहिता को अपने शासन को मजबूत बनाने के उद्देश्य से ही लिखा था मगर पूरे भारत में दंड विधान की एकरूपता की दृष्टि से यह कदम महत्वपूर्ण था। अतः इस कानून को विक्टोरिया युग का पुराना कानून बताकर रद्द करने का कोई औचित्य नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ के विद्वान न्यायमूर्तियों को यह विचार करना है कि क्या धारा 377 के लागू रहने से संविधान के उस अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होता है जिसमें प्रत्येक भारतीय को जीवन जीने की स्वतन्त्रता दी गई है। इसके साथ ही पिछले वर्ष ही न्यायालय ने निजता को मौलिक अधिकार मानते हुए जो फैसला दिया था कि सैक्स या संभोग उसका एेसा विशिष्ट अधिकार है जिस पर कोई दूसरा व्यक्ति तांक-झांक नहीं कर सकता अर्थात उसे अपना साथी (पार्टनर) चुनने का अधिकार है। इस सन्दर्भ में हमें सबसे पहले यह देखना होगा कि संभोग की परिभाषा में समलैंगिकता आती है या नहीं और इस कर्म के लिए ‘साथी’ की परिभाषा में समलैंगिक व्यक्ति आता है।

नहीं? संभोग दो विपरीत लिंग के लोगों अर्थात स्त्री और पुरुष के बीच ही हो एेसा जरूरी नहीं है क्योंकि यह एक क्रिया है। इस क्रिया के लिए दो मनुष्यों का भी होना जरूरी नहीं है। इनमें से केवल एक ही मनुष्य हो सकता है और दूसरा कोई अन्य जीव या भौतिक वस्तु। अतः जब इस क्रिया के लिए हम साथी का चुनाव करते हैं तो समाज सम्मत और प्रकृति सम्मत साथी की ही बात करते हैं। संभोग कोई व्यापारिक साझेदारी नहीं होती कि दो पार्टनर मिलकर कोई व्यवसाय शुरू कर दें। यह शारीरिक काम क्षुधा को शान्त करने की एेसी साझेदारी होती है जिसे समाज की सहमति प्राप्त होती है वरना हम बलात्कार की घटनाओं को अपराध की श्रेणी में क्यों डालते? बलात्कार का अपराध भी तो लिंग निरपेक्ष होता है। जहां तक दो समवयस्क समलैंगिक लोगों में सहमति से संभोग का प्रश्न है तो हम भारतीय जेलों में बन्द कैदियों के बीच इस प्रकार के सम्बन्ध बनाये जाने के मुद्दे पर क्या करेंगे? आजकल सबसे ज्यादा समलैंगिक सम्बन्धों के मामले जेलों से आ रहे हैं। इसके साथ ही अपने विश्व विद्यालयों और कालेजों की युवा पीढ़ी को इस तरफ आकर्षित होने से कैसे रोकेंगे? जहां तक किन्नरों का प्रश्न है तो उन्हें संविधान में बराबर का हक मिल चुका है और कई स्थानों पर वे चुनाव तक लड़ कर सार्वजनिक सेवा के काम में भी लगे हैं। उनकी प्राकृतिक जन्मजात विशिष्टता को भारतीय समाज बहुत सहजता से लेता रहा है।

दक्षिण भारत में इन्हें ‘मंगलामुखी’ कहा जाता है और हर शुभ कार्य में इनकी शिरकत जरूरी समझी जाती है। महाभारत काल के शिखंडी का जिक्र सर्वोच्च न्यायालय में आया है तो उसकी भूमिका भी स्पष्ट होनी चाहिए थी। शिखंडी के आगे आने पर सेनाएं अपने हथियार रख देती थीं। एेसा काम तब भी होता था जब गायें सेना के आगे कर दी जाती थीं। अतः हम किन्नर होने के महत्व का अन्दाजा लगा सकते हैं। उसे सुरक्षा देना समाज का दायित्व होता था। आज बदले हुए समय में किन्नर अपनी भूमिका बदल रहे हैं और शिक्षा के क्षेत्र तक में सक्रिय हो रहे हैं। इसका उदाहरण प. बंगाल का वह स्कूल है जिसकी प्रधानाचार्या एक किन्नर हैं। अतः समलैंगिकता को इसके समानुपाती बना देना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं होगा। इतना जरूर किया जा सकता है कि धारा 377 से कड़ी सजा के प्रावधान कुछ कम कर दिये जायें वरना भारत की जलवायु को देखते हुए यह क्रिया संक्रामक रोग की तरह फैल सकती है।

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