ओडिशाः पक्ष-विपक्ष का खेला

ओडिशाः पक्ष-विपक्ष का खेला
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ओडिशा में भारतीय जनता पार्टी व बीजू जनता दल (बीजद) के बीच चुनावी गठबन्धन नहीं बन सका है। इसकी प्रमुख वजह यह है कि राज्य में सत्तारूढ़ दल बीजू जनता दल है और केन्द्र में सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी है। यही भारतीय जनता पार्टी ओडिशा में बीजू जनता दल की प्रमुख विपक्षी पार्टी है जबकि कांग्रेस तीसरे नम्बर पर खिसक चुकी है। लोकसभा चुनावों के साथ ही ओडिशा में विधानसभा चुनाव भी होंगे। यदि बीजू जनता दल और भाजपा के बीच गठबन्धन हो जाता तो चुनावी मैदान में बहुत ही उलझन की स्थिति पैदा हो जाती क्योंकि विपक्षी पार्टी और सत्तारूढ़ पार्टी एक ही पक्ष बनकर चुनावी मैदान में उतरते और विपक्ष की प्रमुख भूमिका में कांग्रेस पार्टी स्वयं ही आ जाती।
पिछले 25 साल से राज्य के मुख्यमन्त्री पद पर बीजू जनता दल के नेता श्री नवीन पटनायक पदासीन हैं और उनकी पार्टी बीजू जनता दल का राज्य में खासा दबदबा है। नवीन पटनायक स्व. बीजू पटनायक के सुपुत्र हैं और उन्हीं की राजनैतिक विरासत के सहारे सत्ता में बने हुए हैं लेकिन भाजपा ने बीजू जनता दल के साथ गठबन्धन न बनाकर चुनाव लड़ने का फैसला करके पार्टी ने लोकसभा चुनावों के लिए कांग्रेस का मैदान साफ कर दिया है। दोनों पार्टियों के बीच जिस तरह पिछले 15 दिन से गठबन्धन की खबरें चल रही थीं उसका परोक्ष लाभ कांग्रेस को मिलना तय है मगर यह सब कांग्रेस पार्टी के नेताओं की योग्यता पर निर्भर करेगा कि वे किस तरह ओडिशा के राजनैतिक माहौल का फायदा उठाते हैं क्योंकि जनता में यह सन्देश पहुंच चुका है कि भारतीय जनता पार्टी और बीजू जनता दल में भीतर खाने आपसी एकता है। वैसे गौर से देखा जाये तो ओडिशा की राजनीति बहुत ही दिलचस्प है और इसने एक से बढ़कर एक राजनेता जैसे माइकल मधुसूदन दत्त से लेकर डा. हरे कृष्ण मेहताब तक दिये हैं। बाद में इनमें बीजू पटनायक व श्रीमती नन्दिनी सत्पथी का नाम भी जुड़ा। मगर आज की तारीख में इस राज्य के पास एेसा कोई नेता नहीं है जिसकी राष्ट्रीय स्तर पर पहचान हो। संभवतः इसी वजह से भाजपा ने अकेले चलने का फैसला भी किया है क्योंकि पार्टी मानती है कि राज्य की जनता के बीच प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता बहुत ज्यादा है अतः विधानसभा व लोकसभा के चुनाव एक साथ होने पर उसे मोदी के नाम पर वोट मांगने में सुविधा होगी।
पिछले लोकसभा चुनावों में भाजपा को इस राज्य में अच्छी सफलता मिली थी। इसकी असली वजह भी श्री मोदी की लोकप्रियता ही मानी गई थी। मगर भाजपा यहां अचानक ही दूसरे नम्बर की पार्टी नहीं बनी है। सत्तर के दशक तक ओडिशा में स्व. चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की स्वतन्त्र पार्टी दूसरे नम्बर की पार्टी हुआ करती थी और 1967 में इसकी स्व. आर.एन. सिंह देव की सरकार भी थी। स्वतन्त्र पार्टी मूलतः एेसे पुराने राजे-रजवाड़ों की पार्टी थी जिनकी रियासतें राज्य के बहुत बड़े हिस्से में हुआ करती थी। शुरू में ये रजवाड़े ​उडि़या गणतन्त्र परिषद के झंडे तले एकत्रित हुए थे और लोकतान्त्रिक चुनाव प्रणाली के जरिये इन सबकी रियाया भी उन्हें वोट देती थी। बाद में जब 1956 में राजा जी ने कांग्रेस छोड़ कर अपनी अलग स्वतन्त्र पार्टी बनाई तो गणतन्त्र परिषद का स्वतन्त्र पार्टी में विलय हो गया। मगर 1974 में स्वतन्त्र पार्टी का भी चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व वाले भारतीय लोक दल में विलय हो गया। मगर श्री बीजू पटनायक इससे पहले ही कांग्रेस से अलग हो गये थे और उन्होंने अपनी अलग उत्कल कांग्रेस बना ली थी। इस पार्टी का भी 1974 में लोकदल में विलय हो गया। बाद में 1977 में जब 1975 में लगी इमरजेंसी के उठने के बाद चुनाव हुए और लोकदल का भी जनता पार्टी में विलय हो गया तो राज्य के लोगों ने विधानसभा से लेकर लोकसभा तक में जनता पार्टी को वोट दिया।
1977 में जनता पार्टी के नेता नीलमणि राउतराय इस राज्य के मुख्यमन्त्री बने। मगर उनकी सरकार ज्यादा नहीं चली। जनता पार्टी का 1980 में विघटन होने के बाद जब जनसंघ समेत सभी विपक्षी दल अपने-अपने नये चोलों में आये तो जनसंघ (भाजपा) ने स्वतन्त्र पार्टी के दबदबे वाले राज्यों में अपनी पैठ बनानी शुरू की। इनमें सबसे प्रमुख ओडिशा, गुजरात व राजस्थान थे। ओडिशा में आदिवासियों की भी बहुत बड़ी संख्या रहती है। इन्हीं आदिवासियों में भाजपा ने अपनी पहुंच बढ़ाई। केन्द्र में 1998 में जब स्व. अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए की सरकार काबिज थी तो बीजू जनता दल इसका हिस्सा बना मगर 2009 में उसने इस गठबन्धन को छोड़ दिया और कांग्रेस व भाजपा दोनों से बराबर दूरी रखने का एेलान किया। 1998 के बाद से ही राज्य की राजनीति में बदलाव आना शुरू हुआ। इसका एक कारण राज्य के आदिवासी इलाकों में सक्रिय ईसाई मिशनरियां भी थीं।
यह इतिहास लिखने का आशय मात्र इतना सा है कि हमें इस हकीकत का अन्दाजा हो सके किस प्रकार इस राज्य में भाजपा का विकास हुआ है जिसकी वजह से वह आने वाले चुनावों में अपने बूते पर जाने का हौसला रख रही है। कारण साफ है कि बीजू जनता दल ने पिछले 25 वर्षों के दौरान सत्ता में रहते हुए राज्य की प्रमुख पार्टी माने जाने वाली कांग्रेस की जमीन साफ जैसी कर दी है और बची-खुची जमीन भाजपा ने हथिया ली है। अतः तार्किक रूप से देखा जाये तो असली मुकाबला भी इन दोनों पार्टियों के बीच ही है। यदि ये दोनों आपस में मिलकर लोकसभा व विधानसभा चुनावों में साझा उम्मीदवार उतारतीं तो खुद-ब-खुद कांग्रेस प्रमुख विपक्षी पार्टी की मुद्रा में आ जाती और सत्ता विरोधी रोष को अपनी चुनावी पूंजी बना लेती। मगर खतरा अब भी है क्योंकि बीजू जनता दल 2014 से केन्द्र में बनी मोदी सरकार को हर संकट के समय अपना समर्थन देने में पीछे नहीं रही है। केवल किसानों के तीन विधेयकों के मुद्दे पर ही यह भाजपा से छिटक कर अलग हो गई थी।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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