दुनियाभर में कोरोना महामारी से भयंकर जंग चल रही है। इस जंग के बीच तेल की कीमतों को लेकर जंग शुरू हुई थी। तेल उत्पादन करने वाले देशों और रूस के बीच प्राइस वार ने हालत खराब करके रख दी थी। राहत की बात है कि तेल निर्यातक देशों के संगठन ओपेक और रूस के बीच समझौता हो गया है। यद्यपि बातचीत के दौरान मैक्सिको लगातार प्रोडक्शन घटाने पर अड़ा हुआ था, फिर भी इस बात पर इन देशों में सहमति बन गई है कि एक मई से हर दिन एक करोड़ बैरल आयल का उत्पादन कम किया जाएगा। कोरोना वायरस महामारी के कारण दुनियाभर में तेल की डिमांड में एक तिहाई से ज्यादा की कमी आ चुकी है। दुनिया भर के तीन अरब लोग घरों में हैं।
दुनियाभर में चमकते और अति व्यस्त रहने वाले महानगरों में सन्नाटा छाया हुआ है, विमानन सेवाएं ठप्प हैं और सड़क, ट्रेन, परिवहन सेवाएं भी अभी निलम्बित हैं। इसकी वजह से कच्चे आयल की मांग घट गई। तेल की कीमतें निरंतर कम हो रही थीं। मार्च महीने में आयल प्राइस गिरकर 18 वर्ष के निचले स्तर पर आ गया था। उस वक्त रूस और सऊदी अरब समझौते के मूड में नहीं थे। दोनों ही वैश्विक स्तर पर तेल के बाजारों को हथियाना चाहते थे लेकिन दो अप्रैल को जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने संकेत दिए कि वे इस मतभेद को दूर करना चाहते हैं तो कच्चे तेल के दामों में तेजी लौटने लगी है। तेल के मामले में अमेरिका के आत्मनिर्भर बनने के बाद रूस और सऊदी अरब में तेल उत्पादन को लेकर विवाद शुरू हुआ था। सऊदी अरब ने कीमत बढ़ाने के उद्देश्य से तेल उत्पादन में कटौती की थी। सऊदी अरब कोरोना वायरस के चलते आई सुस्ती को कम करने का इच्छुक था लेकिन रूस ने पलटवार कर ओपेक से सहयोग करना बंद कर दिया । रूस एशियाई मार्किट में तेल के निर्यात में सऊदी अरब की बादशाहत को चुनौती देना चाहता था। इस जंग के बीच तेल की कीमतों का बाजार वर्ष 2008 में आई आर्थिक मंदी के बाद सबसे निचले स्तर पर बंद हुआ था। रूस और सऊदी अरब ने अपने-अपने हितों के हिसाब से कई समझौतों पर हस्ताक्षर किए हुए हैं। सऊदी अरब ने रूस के सामने तेल उत्पादन में कटौती का प्रस्ताव रखा था लेकिन रूस के इंकार करने पर दोनों देशों में तनातनी बढ़ गई थी। इसी तनातनी में सऊदी अरब ने अचानक तेल की कीमतें घटा दीं, वहीं तेल का उत्पादन बढ़ाने का भी ऐलान कर दिया।
तेल की कीमतों का गिरना भारत के लिए हमेशा फायदेमंद होता है। तेल की कीमतें कम होने से भारत का व्यापार घाटा कम होता है। भारत का सबसे बड़ा बिल तेल आयात का ही है। देश में केन्द्र और राज्य दोनों सरकारें उत्पाद शुल्क और जीएसटी लगाकर भारी राजस्व कमाती हैं। तेल मंदी से जूझने के लिए और सरकारों की जनकल्याण योजनाओं के लिए भारी-भरकम धन मुहैया कराने के लिए सरकार का साधन बनता है। तभी तो तेल कम्पनियों ने तेल की घटी कीमतों का लाभ उपभोक्ताओं को नहीं दिया। अगर तेल निर्यातक देशों में समझौता नहीं होता तो खाड़ी देशों को काफी नुक्सान होता। लगभग सभी खाड़ी देशों की अर्थव्यवस्था तेल पर आधारित है। तेल की कीमतों में कटौती से वहां की कम्पनियां प्रभावित होती। जब भी आर्थिक मंदी आती है तो कम्पनियां बंद हो जाती हैं और बेरोजगारी बढ़ती है। खाड़ी देशों में लाखों भारतीय काम करते हैं, आर्थिक संकट से वह भी अछूते नहीं रह सकते। भारतीयों की कमाई घटेगी तो वह अपने घरों को भेजी जाने वाली धनराशि भी कम करेंगे। तेल उत्पादक देशों की अर्थव्यवस्था ठीक रहे इसी में ही भारतीयों की भलाई है।
इस समय तेल का सबसे बड़ा उत्पादक अमेरिका है। तेल के दामों में कमी से शेल समेत उसके कई उद्योग ठप्प पड़ सकते थे। कोरोना वायरस के चलते अमेरिका में भारी जनहानि हो रही है। कोरोना से मौतों के मामले में अमेरिका सभी देशों से आगे पहुंच चुका है। अमेरिका की अर्थव्यवस्था को भी जबर्दस्त नुक्सान हो रहा है। इसलिए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप तेल उत्पादन घटाने के लिए मतभेद दूर करने के प्रयास कर रहे थे। कोरोना महामारी से निपटने के बाद तेल निर्यातक देशों को ही सबसे अधिक फायदा होगा। स्थितियां इस पर भी निर्भर करेंगी कि ओपेक देशों का यह समझौता ईमानदारी से लागू किया जाता है या नहीं। इतना स्पष्ट है कि कोरोना वायरस ने कच्चे तेल की बादशाहत को खत्म कर दिया है। कोरोना ने अमेरिका जैसी वैश्विक शक्ति को घुटनों के बल बैठने को मजबूर कर दिया है। अब तेल के दाम फिर से बढ़ने शुरू हो गए हैं, निश्चित रूप से तेल के बढ़ते दामों से भारतीय प्रभावित होंगे। फिर भी महामारी से जंग के बीच तेल कीमतों पर छिड़ी जंग का खत्म होना राहत भरी खबर है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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