एक देश-एक चुनाव : व्यावहारिकता का सवाल

एक देश-एक चुनाव : व्यावहारिकता का सवाल
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भारत राज्यों का संघ (यूनियन आफ इंडिया) देश है जिसमें प्रत्येक राज्य के अपने कुछ विशिष्ट अधिकार हैं। इसके साथ ही भारत की बहुदलीय राजनैतिक प्रणाली में अलग-अलग राज्यों में अलग- अलग राजनैतिक दलों की सरकारें हो सकती हैं। संविधान निर्माताओं के सामने यह स्थिति पूरी तरह स्पष्ट थी अतः उन्होंने राज्यों को जो अधिकार दिये वे कृषि से लेकर कानून-व्यवस्था व स्वास्थ्य से लेकर शिक्षा तक के थे। इसके साथ ही राज्यों के विशिष्ट वित्तीय व राजनैतिक अधिकार भी थे। इनमें से वित्तीय अधिकार देश में वस्तु व सेवाकर परिषद (जीएसटी कौंसिल) के गठन होने के बाद से लगभग समाप्त हो चुके हैं। परन्तु राजनैतिक अधिकारों के दायरे में राज्य विधानसभाएं आती हैं जिनके हर पांच साल बाद चुनाव होते हैं। यह उस राज्य की परिस्थितियों पर निर्भर करता है कि वहां कब चुनाव कराये जायेंगे।
विधानसभा का कार्यकाल वैसे तो पूरे पांच साल होता है मगर यदि बीच में ही राजनैतिक अस्थिरता पैदा हो जाये तो मुख्यमन्त्री राज्यपाल को सलाह देकर बीच में ही विधानसभा भंग करके मध्यावधि चुनाव करा सकते हैं अथवा राज्यपाल को यदि यह लगे कि राजनैतिक अस्थिरता के चलते उनके राज्य में किसी स्थायी सरकार का बनना संभव नहीं है तो वह राष्ट्रपति शासन की अनुशंसा कर सकते हैं और जरूरत पड़ने पर विधानसभा को भंग करके नये चुनावों का रास्ता भी खोल सकते हैं। भारत में एेसी परिस्थितियां कई राज्यों में पहले आ चुकी हैं जिससे मध्यावधि चुनाव जरूरी हो गये थे।
प्रधानमन्त्री ने 15 अगस्त के दिन लाल किले से एक देश-एक चुनाव की बात कही है, जिसे लेकर राजनैतिक क्षेत्रों में काफी हलचल है। इसकी वजह यह है कि इस विषय पर मोदी सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में एक उच्च स्तरीय समिति पूर्व राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में गठित की थी जो अपनी रिपोर्ट सौंप चुकी है। समिति ने पूरे देश में एक साथ चुनाव कराये जाने की सिफारिश भी की है। परन्तु राजनैतिक दल समिति की राय से सहमत नहीं हैं और इसे अव्यवहारिक मानते हैं क्योंकि एेसा करने के लिए संविधान में कई संशोधन करने पड़ेंगे। जब जीएसटी कौंसिल का गठन हुआ था तो संविधान में संशोधन करना पड़ा था। इसकी वजह यह थी कि राज्यों के वित्तीय अधिकार संसद की परि​िध से बाहर जीएसटी कौंसिल को दिये जा रहे थे। जीएसटी कौंसिल में सभी राज्यों के वित्त मन्त्री होते हैं औऱ केन्द्रीय वित्त मन्त्री इसके अध्य़क्ष होते हैं। कौंसिल का नियम है कि इसके सभी निर्णय सर्वसम्मति से ही होने चाहिए और यदि मतदान की नौबत आये तो राज्यों के पास दो तिहाई वोट होंगे व केन्द्र के पास एक तिहाई वोट होंगे। यह परिषद 2017 से अपना काम कर रही है।
इस कानून के बाद कहा गया था कि यह एक देश-एक शुल्क का उदाहरण होगा। मगर राज्यों के राजनैतिक अधिकारों के बारे में एेसा इसलिए संभव दिखाई नहीं देता है क्योंकि राजनैतिक परिस्थितियां विधानसभाएं तय करती हैं। 1967 तक पूरे भारत में लोकसभा व विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही हुआ करते थे परन्तु इस वर्ष के चुनावों में नौ राज्यों में पहली बार जब गैर कांग्रेसी सरकारों का गठन हुआ तो इन सभी राज्यों में विपक्ष की विभिन्न पार्टियों ने संयुक्त विधायक दल बना कर सरकारें गठित की मगर वे सरकार राजनैतिक अंतर्विरोध की वजह से बीच में गिरने लगीं। इसकी वजह से इनमें से अधिक राज्यों में मध्यावधि चुनाव हुए। ये चुनाव 1969 के करीब हुए थे।
इससे इन राज्यों की विधानसभाओं की पांच साल की अवधि व लोकसभा की पांच साल की अवधि में अन्तर आ गया और लोकसभा व विधानसभा के चुनाव अलग-अलग तारीखों में होने लगे। इसके बाद इन नौ राज्यों के अलावा अन्य राज्यों में भी ऐसी ही परिस्थितायां बनी। कुछ में तो केन्द्र ने ही राष्ट्रपति शासन लगा कर वहां मध्यावधि चुनावों का रास्ता खोल दिया। एेसा 1977 में हुआ जब केन्द्र में पहली बार जनता पार्टी की सरकार बनी तो उसने कांग्रेस शासित राज्यों की सरकारों को संविधान का अनुच्छेद 356 लगा कर बर्खास्त कर दिया और पुनः चुनाव कराये मगर इसके बाद 1980 में जब इन्दिरा गांधी पुनः केन्द्र में सत्ता में आयी तो उन्होंने भी जनता पार्टी को जवाब देते हुए सभी जनता पार्टी शासित राज्यों की सरकारों को भंग कर दिया और वहां पुनः चुनाव हुए। इस प्रकार विधानसभा व लोकसभा के चुनावों का सामंजस्य बिगड़ता ही चला गया। मगर लोकतन्त्र में इसका हम निषेध किस प्रकार कर सकते हैं जबकि देश में त्रिस्तरीय शासन प्रणाली (केन्द्र, राज्य व स्थानीय निकाय) संविधानतः लागू है और इसमें अब ग्राम पंचायतें भी चौथा हिस्सा बन चुकी हैं। यदि हम इन सभी सदनों के चुनाव एक साथ करायेंगे तो हमें लोकतान्त्रिक नियमों के विरुद्ध जाना पड़ सकता है। खास कर विधानसभा व लोकसभा के चुनाव एक साथ कराने पर। विधानसभाएं किस प्रकार अपना राजनैतिक हक छोड़ने के लिए राजी होंगी। यह एक पेचीदा संवैधानिक मसला है। मगर सबसे महत्वपूर्ण यह है कि एक साथ चुनाव कराने के लिए हम चुनावों में जनता द्वारा विभिन्न राजनैतिक दलों को दिये गये जनादेश का उल्लंघन किस प्रकार कर सकते हैं ?
लोकतन्त्र में असली मालिक जनता ही होती है और जब वह किसी राजनैतिक दल या दलों के समूह को सरकार बनाने के लिए पांच साल का निर्देश देती है तो उसे बीच में ही किस प्रकार छोटा किया जा सकता है। पूरी दुनिया में अमेरिका व भारत एेसे लोकतान्त्रिक देश हैं जिनमें हर चार-छह महीने बाद किसी ने निकाय या सदन के चुनाव होते रहते हैं। भारत में यह कारण बताया जाता है कि चुनाव होने पर चुनाव आयोग आदर्श आचार संहिता लागू कर देता है जिसकी वजह से विकास कार्यों पर असर पड़ता है। इस तर्क में वजन हो सकता है परन्तु यह लोकतन्त्र से ऊपर नहीं हो सकता। मजबूत लोकतन्त्र के लिए जरूरी है कि हर परिस्थिति में केवल जनता का शासन ही होना चाहिए।
अतः राजनैतिक स्पष्टता न होने पर यदि राजनैतिक दल बार-बार जनता का दरवाजा खटखटाते हैं तो इसमें हर्ज क्या है। जब केन्द्र में भाजपा नीत वाजपेयी सरकार थी तो उस सरकार के गृहमन्त्री श्री लालकृष्ण अडवानी ने सुझाव दिया था कि लोकसभा व विधानसभाओं की पक्की समयावधि तय होनी चाहिए और बीच में ही इन्हें भंग नहीं किया जाना चाहिए। यदि किसी सरकार के बहुमत खो देने पर उसके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव रखा जाता है तो पहले से ही एक वैकल्पिक सरकार की व्यवस्था होनी चाहिए जिससे सदन किसी भी हालत में पांच साल से पहले भंग न हो सके। यह विचार भी लोकतन्त्र के समर्थन में नहीं माना जा सकता क्योंकि इस व्यवस्था में केवल जनता को ही जनादेश देने का अधिकार होता है।
विधानसभा से लेकर लोकसभा लोगों की सबसे बड़ी पंचायतें होती हैं जिनमें उनके चुने हुए प्रतिनिधि उनका प्रतिनिधित्व करते हैं। यदि ये प्रतिनि​िध चाहते हैं कि सत्तारूढ़ सरकार जानी चाहिए तो उनके इस हक को किस प्रकार खारिज किया जा सकता। सरकार कोई कार्पोरेट कम्पनी नहीं होती कि एक निदेशक मंडल के भंग होने पर तुरन्त कोई दूसरा निदेशक मंडल इसका चेयरमैन तय कर दे। यह लोगों के जनादेश से चलती है औऱ जनादेश का फैसला विधानसभा या लोकसभा में बैठे हुए प्रतिनि​िध ही करते हैं। हमारा देश एक रहे इसका प्रावधान संविधान में बाबा साहेब अम्बेडकर बहुत करीने से करके गये हैं और केन्द्र सरकार को इस व्यवस्था में मजबूत करके गये हैं।
अंग्रेज तो इसे 1934 कर एक संघीय देश तक नहीं मानते थे औऱ विभिन्न संस्कृतियों व जातीय समूहों का जमघट समझते थे। जब 1928 में मोती लाल नेहरू समिति ने अपनी सिफारिशों में यह साफ कहा कि भारत विभिन्न राज्य व क्षेत्र गत जातीय समूहों व संस्कृतियों का संघीय ढांचा है तब जाकर अंग्रेजों ने 1935 के 'भारत सरकार कानून' में इसे एक देश के रूप में स्वीकार किया। अतः इसकी राजनैतिक विविधता को हम नजर अन्दाज नहीं कर सकते हैं वैसे यदि पूरे देश में एक साथ चुनाव के लिए सभी राजनैतिक दल जीएसटी कौंसिल की तर्ज पर सहमत होते हैं तो इसमें कोई हर्ज भी नहीं है।

– राकेश कपूर

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