देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के मुद्दे पर राजनीतिक दलों में एक राय नहीं है। विधि आयोग की ओर से आयोजित परामर्श प्रक्रिया में 9 राजनीतिक दलों ने विराेध किया है जबकि चार दलों ने एक साथ चुनाव कराने का समर्थन किया है। हालांकि सत्तारूढ़ भाजपा और मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने इस परामर्श प्रक्रिया में भाग नहीं लिया लेकिन भाजपा के सहयोगी दल गोवा फारवर्ड पार्टी ने भी इस विचार का विरोध किया है। समाजवादी पार्टी ने समर्थन जरूर किया लेकिन साथ ही कुछ शर्तें भी रख दीं। सपा ने यह भी कहा है कि जिन राज्यों में गठबंधन सरकारें बनती हैं, उनके सत्तारूढ़ होने से पहले राज्यपाल को गठबंधन में शामिल सभी दलों से लििखत में लेना चाहिए कि वह सत्ता की अवधि तक कार्य करेंगे। अगर कोई दल गठबंधन से बाहर आता है तो ऐसा कानून बनाया जाए ताकि गठबंधन से अलग होते ही उस दल के सदस्यों की सदस्यता खत्म हो जाए। कुल मिलाकर कोई एक राय बन पाना मुश्किल ही नज़र आता है। ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ का विचार राजनीतिक शिगूफा ही बनता दिखाई दे रहा है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के प्रस्ताव पर चुनाव आयोग की भी सैद्धांतिक मंजूरी है लेकिन इसका मार्ग बहुत मुश्किलों भरा है। यद्यपि चुनाव आयोग एक साथ चुनाव कराने में खुद को सक्षम बता रहा है लेकिन जो चुनाव आयोग हिमाचल और गुजरात के चुनाव एक साथ नहीं करा पाया, उससे क्या उम्मीद की जा सकती है। दूसरी बात यह भी है कि देश में एक साथ चुनाव कराने के लिए संविधान में कम से कम पांच अनुच्छेदों में संशोधन करना पड़ेगा। पहले तो राजनीतिक दलों की एक राय नहीं बन पा रही, मान लीजिए भविष्य में कोई एक राय उभरती भी है तो संविधान में बड़े संशाेधन करने होंगे। इन संशोधनों में लोकसभा का कार्यकाल तय करने वाले और राज्यसभा सदस्यों का कार्यकाल तय करने वाले अनुच्छेद 83 में संशोधन करना होगा। इसके अलावा संसदीय सत्र को स्थगित करने और खत्म करने वाले अनुच्छेद 85, विधानसभा का कार्यकाल निर्धारित करने वाले अनुच्छेद 172 और विधानसभा सत्र को स्थगित और खत्म करने वाले अनुच्छेद 174 में संशोधन करना होगा। राष्ट्रपति शासन लगाने के प्रावधान वाले अनुच्छेद 356 में भी संशोधन करना होगा।
चुनावी कार्यक्रम में किसी भी तरह के संशोधन के लिए दोनों सदनों में दो तिहाई बहुमत होना भी जरूरी है। 1951-52, 1957, 1962 और 1967 तक लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ-साथ होते थे लेकिन 1967 में राजनीतिक उथल-पुथल के बाद हालात काफी बदल गए। राज्यों में ऐसा घमासान मचा कि राज्यों में अस्थिरता आने लगी। तब से अलग-अलग चुनाव होने लगे। सरकार कहती है कि एक साथ चुनाव कराने से देश पर पड़ने वाला आर्थिक बोझ कम होगा, बार-बार आचार संहिता लागू नहीं करनी पड़ेगी। देश में राज्यों के चुनाव कहीं न कहीं होते रहते हैं और बार-बार चुनाव आचार संहिता लागू करनी पड़ती है। इससे विकास अवरुद्ध होता है। राजनीतिक दलों के खर्च पर भी नियंत्रण रहेगा, जिससे चुनावों में कालाधन खपाने जैसी समस्या भी कम होगी। यह तर्क अपनी जगह सही हो सकते हैं लेकिन कुछ प्रश्न अभी तक निरुत्तर हैं। जैसे किसी राज्य में सरकार कुछ समय चलने के बाद कुछ कारणों से गिर जाती है तो फिर वहां क्या चुनावों तक राष्ट्रपति शासन रहेगा? सरकारों के गिरने पर कोई वैकल्पिक व्यवस्था न हो पाने से वहां क्या चुनाव कराए जाएंगे? क्या राज्यों के लोकतंत्र को लम्बे काल तक राष्ट्रपति शासन के अधीन रखा जा सकता है। यह भी देखना होगा कि क्या चुनाव आयोग के पास एक साथ चुनाव कराने का पूरा तंत्र है? ईवीएम और वीवी पैट मशीनों की व्यवस्था के लिए चुनाव आयोग को दो हजार करोड़ रुपए से ज्यादा की जरूरत होगी। एक मशीन का कार्यकाल केवल 15 वर्ष है। यानी एक मशीन तीन या चार चुनाव करा पाएगी। इन्हें रीप्लेस करना महंगा पड़ेगा। एक साथ चुनाव कराना संभव है या असंभव, इस मुद्दे पर भी विशेषज्ञों की राय बंटी हुई है। कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि यह विचार व्यावहारिक नहीं, क्योंकि वर्तमान में राजनीति विद्रूपताओं का शिकार हो चुकी है।
सरकारें बनाने और गिराने में छोटे-छोटे दल भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ऐसे में यह सोच कर चलना कि काेई भी राज्य सरकार पूरे पांच साल चलेगी, गलत होगा। कुछ विशेषज्ञ कहते हैं कि जब 1967 से पहले एक साथ चुनाव होते थे तो अब क्यों नहीं हो सकते। विपक्षी राजनीतिक दल इस विचार को आर्थिक से अधिक राजनीतिक करार दे रहे हैं। यह आरोप लगाया जा रहा है कि कुछ राज्य विधानसभाओं के चुनाव परिणामों और उपचुनाव परिणामों को देखते हुए केन्द्र सरकार जल्द चुनाव कराने की इच्छुक है। फिलहाल राजनीतिक दलों में कोई सहमति नहीं तो फिर व्यवस्था बदलने के लिए संविधान संशोधन की सोचना कोरी कल्पना ही होगी। ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ का विचार सियासी तमाशा ही बनकर रह गया।