लोकसभा चुनाव 2024

पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

चौथा चरण - 13 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

96 सीट

पांचवां चरण - 20 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

49 सीट

छठा चरण - 25 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

सातवां चरण - 1 जून

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

लोकसभा चुनाव पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

कश्मीर पर विपक्षी दलों की नीति​?

कश्मीर का मुद्दा ऐसा ही है जिस पर फिलहाल घर के भीतर भी एक स्वर की आवश्यकता है क्योंकि पाकिस्तान इसे लेकर अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय पहुंच चुका है।

जम्मू-कश्मीर यात्रा पर गये आठ विपक्षी दलों के प्रतिनिधिमंडल के नेताओं को श्रीनगर हवाई अड्डे से लौटाये जाने पर जो सन्देश जा रहा है वह यही है कि इस राज्य की वादी के क्षेत्र में जारी प्रतिबन्धों के चलते अभी तक स्थिति पूरी तरह सामान्य नहीं हुई है और आम जनजीवन पटरी पर धीरे-धीरे ही लौट रहा है। बिना शक विपक्षी दलों के प्रतिनिधियों को भारत के किसी भी राज्य में जाने का अधिकार है और वहां के लोगों की कठिनाइयों से रूबरू होने का हक भी है परन्तु दूसरी तरफ यह भी हकीकत है कि सरकार की नीतियों से मतभेद के बावजूद उन्हें राज्य में सामान्य होती स्थिति में सहायक बनने की बाध्यता से बन्धे रहना होगा क्योंकि जम्मू-कश्मीर की संरचनात्मक और प्रशासनिक स्थिति में जो भी परिवर्तन किया गया है वह संविधान के अनुसार संसद के माध्यम से किया गया है जिसके अंग वे भी हैं। 
अतः स्थिति को सामान्य बनाने के दायित्व से विपक्ष भी बन्धा हुआ है और लोकतन्त्र का तकाजा भी यही है। राज्य से धारा 370 समाप्त करने के फैसले के खिलाफ होने के बावजूद विपक्षी दल संसद में किये गये निर्णय का सम्मान करें और राज्य के निवासियों को विश्वास दिलायें कि नई व्यवस्था के भीतर उनके साथ किसी प्रकार का अन्याय नहीं होगा और उनके नागरिक अधिकारों का पूरा संरक्षण होगा। विपक्षी दलों के प्रतिनिधिमंडल में कांग्रेस के नेता श्री राहुल गांधी भी शामिल थे और तृणमूल कांग्रेस समेत मार्क्सवादी, राष्ट्रवादी कांग्रेस व द्रमुक के नेता भी थे। इनमें से कश्मीर के मुद्दे पर आधे दलों का रुख ढुल-मुल रहा है। इसका पता हमें संसद के उस रिकार्ड से चलता है जिसमें धारा 370 को हटाये जाने और इस राज्य की पुनर्संरचना के विधेयक पर मतदान हुआ था। 
राज्यसभा में सत्ताधारी भाजपा का बहुमत न होने के बावजूद विधेयक का पारित होना स्वयं स्थिति स्पष्ट कर देता है। अतः सरकार की आलोचना करने से पूर्व ‘आत्मालोचना’ भी जरूरी है। इसकी आवश्यकता इसलिए भी है कि पड़ौसी पाकिस्तान लगातार कश्मीर मुद्दे का अंतर्राष्ट्रीयकरण करने की कोशिश कर रहा है और बार-बार अमेरिका का दरवाजा खटखटा रहा है। अतः विपक्षी दलों की भी जिम्मेदारी बनती है कि वे अपना राष्ट्रीय धर्म निभाते हुए इस मामले में सरकार के साथ खड़े नजर आयें जिससे पूरी दुनिया को यह सन्देश जा सके कि जम्मू-कश्मीर का मामला किसी भी तरीके से अंतर्राष्ट्रीय विवाद का मुद्दा नहीं है और भारत के नियन्त्रण में जो जम्मू-कश्मीर है वहां लोकतान्त्रिक पद्धति के अनुरूप ही बदलाव करके भारत ने संविधान के अनुरूप कार्य किया है और अपने अधिकारों का इस्तेमाल किया है। इस बारे में जरा भी गफलत नहीं होनी चाहिए।  
जो भी राजनैतिक मतभेद थे उनका इजहार संसद के दोनों सदनों में हो चुका है और पूरा देश जानता है कि कौन सा राजनैतिक दल कहां खड़ा है। हालांकि विपक्षी दलों का कहना है कि वह जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल श्री सत्यपाल मलिक के निमन्त्रण पर ही श्रीनगर गये थे परन्तु उनका यह भी दायित्व बनता था कि वह राज्यपाल से ही प्रशासन द्वारा उठाये गये कदमों की जानकारी प्राप्त करके आगे की रणनीति तय करते क्योंकि यह तो सर्वविदित है कि राज्य प्रशासन धीरे-धीरे ही सामान्य हालात पैदा करने के लिए आवश्यक कदम उठा रहा है। बेशक जिन लोगों को ऐहतियात के तौर पर प्रशासन ने नजरबन्द या हिरासत में रखा हुआ है उनके बारे में हकीकत का पता लगाना विपक्षी नेताओं का फर्ज बनता था मगर किसी भी सूरत में कोई ऐसा काम करने से उन्हें बचना चाहिए था जिससे स्थिति में विस्फोटक पुट का आभास होता हो। क्योंकि सरकार स्वयं भी पूरी तरह स्थिति सामान्य होने का दावा नहीं कर रही है।
 
दरअसल यह समय बहुत संयम से काम लेने का है क्योंकि किसी भी विपरीत घटना को पाकिस्तान बढ़ा-चढ़ा कर अपने पक्ष मंे इस्तेमाल कर सकता है। जब पाकिस्तान भारत के राजनीतिज्ञों के बयानों को ही अपने हक में इस्तेमाल करने की नीति पर चल रहा हो तो विपक्षी राजनीतिज्ञों को बहुत सोच-विचार कर और बुद्धिमानी से अपनी राय व्यक्त करनी चाहिए। भारत के राजनैतिक दलों को अपनी वह महान परंपरा नहीं भूलनी चाहिए कि जब भी किसी देश से उसका मुकाबला हुआ है और उसने दुश्मनी के तेवर दिखाने शुरू किये हैं तो समूचा राजनैतिक जगत एक साथ उठ कर खड़ा होता रहा है। हमारे लोकतन्त्र की यह महान परंपरा व्यर्थ ही नहीं रही है कि जब भी कोई विपक्षी पार्टी का नेता विदेश की धरती पर होता है तो वह केवल तत्कालीन सरकार की नीतियों का ही समर्थन करता है। 
कश्मीर का मुद्दा ऐसा ही है जिस पर फिलहाल घर के भीतर भी एक स्वर की आवश्यकता है क्योंकि पाकिस्तान इसे लेकर अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय पहुंच चुका है। बेशक जम्मू-कश्मीर के नागरिकों के हक के लिए लड़ना विपक्षी पार्टियों का कर्त्तव्य बनता है क्योंकि ऐसा करके वे भारत के लोकतान्त्रिक ताकत को ही जागृत रखती हैं और लोगों को भी अपने अधिकार मांगने का पूरा अधिकार है मगर इसके लिए परिस्थितियों का आंकलन किया जाना भी जरूरी होता है। राष्ट्रीय बोध का दायित्व स्वयं ही कभी-कभी संयमशील बनने की प्रेरणा देता है और यही बोध सरकार को भी नागरिक स्वतन्त्रता के भाव से बांधे रखता है। जाहिर है अलगाववादियों काे किसी प्रकार की रियायत नहीं दी जा सकती और सामान्य नागरिकों के साथ किसी प्रकार की निर्दयता स्वीकार नहीं की जा सकती। 
इस मामले में कश्मीर वादी के हन्दवाड़ा कस्बे के विश्व हिन्दू परिषद के नेता राकेश खन्ना की वह फरियाद महत्वपूर्ण है जो उन्होंने अपने मित्र एजाज अहमद सोफी के बारे में उनकी नजरबन्दी के खिलाफ की है और उन्हें अनावश्यक रूप से प्रशासन द्वारा हिरासत में लिये जाने का विरोध किया है। हालांकि वह धारा 370 को हटाये जाने के पक्के हिमायती हैं। ऐसे मामलों को तो प्रशासन को देखना ही पड़ेगा और घाटी में अमन-चैन के उन्मुक्त माहौल को जल्दी वापस लाना पड़ेगा। 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

two × 3 =

पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।