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सन्तों की हत्या पर विपक्ष चुप?

1985 में राजस्थान के भरतपुर जिले के ‘डींग के राजा मान सिंह’ की उस घटना को याद किया जाना चाहिए कि किस तरह वहां की हवाई पट्टी पर उनकी हत्या हो जाने के बाद राजस्थान की सरकार के तत्कालीन मुख्यमन्त्री स्व. शिवचरण माथुर को अपनी गद्दी छोड़नी पड़ी थी

1985 में राजस्थान के भरतपुर जिले के ‘डींग के राजा मान सिंह’ की  उस घटना को याद किया जाना चाहिए कि किस तरह वहां की हवाई पट्टी पर उनकी हत्या हो जाने के बाद राजस्थान की सरकार के तत्कालीन मुख्यमन्त्री स्व. शिवचरण माथुर को अपनी गद्दी छोड़नी पड़ी थी जबकि प्राथमिक गलती राजा मान सिंह की ही थी क्योंकि उन्होंने मुख्यमन्त्री के हैलीकाप्टर पर अपनी जीप से बार-बार जाकर टक्कर मारी थी। तब पुलिस ने गोली चला कर उनकी जीवन लीला समाप्त कर दी थी परन्तु इस घटना के बाद प्रधानमन्त्री की कुर्सी पर बैठे स्व. राजीव गांधी को मुख्यमन्त्री की कुर्सी से शिवचरण माथुर को हटाना पड़ा था। अब से 35 वर्ष पूर्व घटी इस घटना के राजनीतिक परिणाम अत्यन्त गंभीर होने का खतरा पैदा हो गया था क्योंकि राजा मान सिंह राजस्थान के बलिष्ठ जाट समुदाय के नायक समझे जाते थे परन्तु पालघर में पुलिस के सामने ही लाॅकडाऊन तोड़ कर इकट्ठा हुई भीड़ ने दो साधुओं व उनके ड्राइवर की निर्मम हत्या पुलिस बल की मौजूदगी में ही कर डाली और राज्य प्रशासन इसलिए चुप है कि साधुओं का कोई ‘वोट बैंक’ नहीं है? 
लोकतन्त्र हर मामले की सच्चाई में जाने की इजाजत देता है। इससे पता चलता है कि धर्म निरपेक्षता के मुद्दे पर किस कदर दिमागी दिवालियापन छा चुका है। साधू समाज को निर्बल समझ कर हत्याकांड को सामान्य भीड़तन्त्र के अन्याय के रूप में यदि दिखाने की कोशिश की जाती है तो यह लोकतन्त्र की हत्या ही कहलाई जायेगी क्योंकि किसी निरपराध नागरिक की प्रशासन की निगरानी में हुई सार्वजनिक हत्या पर हमारी व्यवस्था जनता की सरकार के मुखिया की गर्दन पकड़ती है। इसलिए महाराष्ट्र की तिकड़ी सरकार सोचे कि वह कहां खड़ी है?
महाराष्ट्र के पालघर में जूना अखाड़े के जिन दो साधुओं की हत्या पहचान के भ्रम में हुई बताई जा रही है उसके पीछे का सच क्या है?  साधू श्री सुशील गिरी जी महाराज व उनके साथी को उनकी गाड़ी के ड्राइवर समेत जिस तरह ‘माॅब लिंचिंग’ में पुलिस की मौजूदगी में लाठी व पत्थर मार-मार कर मौत के घाट उतारा गया क्या उसके पीछे कोई साजिश थी? क्योंकि साधुओं की पहचान तो उनके भगवा वस्त्रों से बहुत दूर से ही की जा सकती थी और उन्हें ‘बच्चा चोर’ समझने की भूल भीड़ द्वारा यदि की जा रही थी तो पुलिस उसे आसानी से सुलझा सकती थी और तीनों व्यक्तियों को अपने संरक्षण में लेकर हिंसा पर उतारू भीड़ के खिलाफ बल प्रयोग करते हुए इस नृशंस हत्याकांड को टाल सकती थी।
 जायज सवाल है कि पुलिस ने क्यों साधुओं को सुरक्षा देने के बजाय उन्हें भीड़ के हवाले कर दिया और खुद अपने हथियारों को संभालते हुए मूकदर्शक बनी रही। यदि भीड़ सत्तर वर्ष के एक साधू को उसके भगवा वस्त्रों के बावजूद बच्चा चोर समझ सकती है तो पुलिस के होने के क्या मायने हैं? पालघर के जिस इलाके के गांव गढ़चिंचली की यह घटना है वह आदिवासी इलाका है और वहां पहले से ही ईसाई मिशनरियां धर्म परिवर्तन का अभियान चलाती रही हैं।  2013 में इसी क्षेत्र के 25 आदिवासी परिवारों को ईसाई धर्म में दीक्षित करने की घटना अखबारों की सुर्खियां बनी थीं। इसके साथ ही यहां नक्सलियों का भी प्रभाव रहा है। ऐसे दुर्गम इलाके में भगवा वस्त्रधारी सच्चे साधुओं को यदि पहचान की गफलत में भीड़ द्वारा पीट-पीट कर मारा डाला जाता है तो कई प्रकार के सन्देह जन्म लेते हैं। 
पहला सवाल उठता है कि पुलिस का रवैया निष्क्रिय क्यों रहा? दूसरा सवाल उठता है कि इस घटना का संज्ञान चार दिन बाद मुम्बई मैं बैठी उद्धव सरकार ने क्यों लिया? तीसरा प्रश्न यह है कि पूर्व में माॅब लिंचिंग के खिलाफ जमीन-आसमान एक करने वाली मोदी सरकार और भाजपा विरोधी राजनीतिक पार्टियां  चुप्पी क्यों साधे हुए हैं? एक भी विपक्षी पार्टी की तरफ से इस घटना की खुल कर निन्दा नहीं की गई और धर्मनिरपेक्षता के अलम्बरदार बने घूमने वाले स्वनाम धन्य प्रबुद्ध नागरिक अपने मुंह पर कोरोना का ‘मास्क’  लगा कर जबान सिये हुए हैं। इन सहिष्णुता के पुजारियों से तीखे सवाल पूछे जाने चाहिएं कि क्या साधुओं की जान  की कीमत उनका धर्म देख कर तय की जायेगी?  लेकिन देश के राजनीतिक समाज को भी सोचना होगा कि पूर्व में माॅब लिंचिंग की घटनाओं पर जिस तरह वह संसद से लेकर सड़क तक तूफान मचाया करता था क्या साधू समाज को वह भारत का हिस्सा नहीं मानता है? बेशक पूर्व में माॅब लिंचिंग के तेवर साम्प्रदायिक रंग में रंगे जाते रहे हैं परन्तु धर्मनिरपेक्षता कभी इकतरफा नहीं हो सकती। 
साधुओं पर हमला और उनकी हत्या समूची भारतीय संस्कृति को रौंदने से कमतर नहीं आंकी जा सकती। धर्मनिरपेक्षतावादी क्या तब भी चुप बैठे रह सकते थे यदि ये साधू या फकीर किसी दूसरे धर्म के होते? यह सवाल क्यूं नहीं पूछा जाना चाहिए कि पुलिस किस वजह से चुपचाप होकर हत्याकांड की चश्मदीद गवाह बनी रही? क्या यह सोच लिया गया था कि साधुओं की हत्या से माॅब लिंचिंग की परिभाषा बदल जायेगी? क्या पुलिस को इस तथ्य का अन्दाजा नहीं था कि पालघर भी भारत में ही आता है और पूरे देश में लाॅकडाऊन लागू है जिसके तहत सड़क पर भीड़ किसी सूरत में इकट्ठा नहीं हो सकती मगर क्या कयामत हुई कि यह भीड़ तो लाठी-डंडों से लैस थी! इसके बावजूद पुलिस ने हत्याकांड को घटने दिया। पुलिस चाहती तो अपने शासनाधिकारों का प्रयोग करते हुए साधुओं को सुरक्षित बाहर निकाल कर ला सकती थी मगर ऐसा नहीं हुआ। हत्याकांड के हालात खुद चीख-चीख कर गवाही दे रहे हैं कि,
‘‘वो तेग मिल गई जिससे हुआ था कत्ल मेरा 
किसी के हाथ का उस पर निशां नहीं मिलता।’’

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