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विपक्षी ‘एकजुटता’ और ‘एकता’

संसद के भीतर समूचे विपक्ष की ‘एकजुटता’ जिस प्रकार से हो रही है उसे अभी ‘एकता’ नहीं कहा जा सकता है क्योंकि एकता का अर्थ एक इकाई के रूप में परिवर्तित हो जाने का हो जाता है जबकि एकजुटता का अर्थ एक समुच्य या एक-दूसरे से जुड़ कर खड़े होने से होता है।

संसद के भीतर समूचे विपक्ष की ‘एकजुटता’ जिस प्रकार से हो रही है उसे अभी ‘एकता’ नहीं कहा जा सकता है क्योंकि एकता का अर्थ एक इकाई के रूप में परिवर्तित हो जाने का हो जाता है जबकि एकजुटता का अर्थ एक समुच्य या एक-दूसरे से जुड़ कर खड़े होने से होता है। इसे हम साधारण तरीके से इस प्रकार से भी समझ सकते हैं कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी की संसद सदस्यता खत्म किये जाने के मुद्दे पर आपस में मिलकर एक गुलदस्ते की शक्ल ले ली है मगर उसमें मौजूद हर फूल की अपनी अलग पहचान कायम है। स्वतन्त्र भारत के संसदीय इतिहास में ऐसे कई मौके आये हैं जब समूचा विपक्ष एक होकर खड़ा हुआ है। विभिन्न विचारधारा वाले दल जब किसी खास मुद्दे पर एका दिखाते हैं तो इसे विपक्षी एकता कह दिया जाता है।
ऐसा पहली बार भारत के लोगों ने 1967 के आम चुनावों के बाद देखा था जब पहली बार देश के नौ राज्यों में कांग्रेस पार्टी की स्थिति कमजोर हुई थी और कई राज्यों में इसी पार्टी से विद्रोह करके इसके कुछ विधायक एकमुश्त रूप में विपक्षी खेमे में बैठ गये थे। इसके बाद समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया ने ‘गैर कांग्रेसवाद’ का नारा दिया था जिसके तहत इन राज्यों में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकारों का गठन किया गया था और इन सरकारों को संयुक्त विधायक दल की सरकारें कहा गया था। इन सरकारों में वैचारिक रूप से धुर विरोधी जनसंघ (भाजपा) व कम्युनिस्ट पार्टियां भी शामिल हुई थीं। उस समय डा. लोहिया केवल यह साबित करना चाहते थे कि लोकतन्त्र में न तो कोई भी राजनैतिक दल स्थायी रूप से सत्ताधारी दल होता है और न स्थायी रूप से विरोधी दल होता है। यह फार्मूला एक प्रकार से सफल भी रहा और असफल भी। सफल इस मायने में रहा कि आजाद भारत के लोगों को यह पता लग गया कि उनके हाथ में यह ताकत है कि वे जिसे चाहें उसके हाथ में ही सत्ता सौंप सकते हैं और असफल इस मायने में रहा कि संविद या संयुक्त विधायक दल सरकारें अधिक समय तक टिक नहीं सकी और इनमें शामिल दल आपस में ही विचार साम्य न होने की वजह से लड़ने लगे। परिमाण स्वरूप अधिसंख्य राज्यों में जल्दी ही उपचुनाव कराने पड़े परन्तु इसके बावजूद स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन नहीं आया। गुणात्मक परिवर्तन 1969 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्व. इंदिरा गांधी द्वारा कांग्रेस पार्टी को दो फाड़ में विभाजित करने के बाद जिसकी वजह से जनता पुनः कांग्रेस राज की तरफ लौट गई। मगर इसके बाद 1977 में विपक्षी एकता का प्रयोग गंभीरता के साथ हुआ और कई प्रमुख राजनैतिक दलों का समागम एकीकृत जनता पार्टी में हुआ। मगर यह प्रयोग भी असफल रहा और केवल दो साल बाद ही जनता पार्टी भी टूट गई और पुनः इन्दिरा जी की कांग्रेस की तूती बोलने लगी।
1989 आते-आते विपक्षी एकता के तेवर बदले और बोफोर्स तोप खरीद मामले में कांग्रेस के ही नेता स्व. वी.पी. सिंह ने कांग्रेस में रहते हुए जो भ्रम का वातावरण बनाया उसके परिणाम स्वरूप एक नई पार्टी जनता दल का गठन हुआ जिसे परोक्ष रूप से भारतीय जनता पार्टी व कम्युनिस्ट दोनों ही पार्टियों का समर्थन मिला क्योंकि 1989 में वी.पी. सिंह की जनता दल सरकार को इन दोनों ही पार्टियों ने लोकसभा में बाहर से समर्थन दिया। इससे विपक्षी एकता का एक नया फार्मूला सामने आया जिसका अनुसरण बाद में 1996 से 2014 तक क्रमशः जनता दल, भाजपा व कांग्रेस के नेतृत्व में बनी सरकारों के दौरान होता रहा। यहीं से केन्द्र में साझा सरकारों का दौर शुरू हुआ जो पूर्णतः सफल रहा क्योंकि केवल जनता दल के नेतृत्व में गठित यदि दो वर्ष की अवधि को छोड़ दिया जाये तो देश में 2014 तक साझा सरकारें ही सफलतापूर्वक चलती रहीं। इससे यह साबित हो गया कि सरकार बनाने के काम में देश के सभी क्षेत्रीय व राष्ट्रीय दलों की बराबर की हिस्सेदारी हो सकती है। भारत के लोकतन्त्र के लिए यह प्रयोग अनूठा था क्योंकि इससे भारत की ‘विविधता में एकता’ का दर्शन व्यावाहरिक राजनीति में भी परिलक्षित हो रहा था। यह सारा काम विपक्षी एकता के स्थान पर विपक्षी एकजुटता के झंडे तले हुआ। इसने राजनीति में ‘रंग अनेक मगर लक्ष्य एक’ के विमर्श को खड़ा किया।
भारत की चुनाव प्रणाली के तहत लोगों द्वारा मिले जनादेश के अनुरूप शासन देने की यह विधा हमारे लोकतन्त्र की बदलती तात्कालिक आवश्यकताओं के अनुरूप ही थी। अतः विपक्षी एकजुटता की सार्थकता को विभिन्न राजनैतिक दलों ने आत्मसात कर लिया जिसकी वजह से लोकतन्त्र में विकल्पों की कभी भी कमी न रहने का मार्ग प्रशस्त हुआ। फिलहाल संसद में हमें जो विपक्षी एकजुटता दिख रही है वह सत्तारूढ़ दल द्वारा कड़े किये जा रहे राजनैतिक विमर्श के विरुद्ध दिखाई पड़ रही है। अतः विमर्शों की इस लड़ाई का सड़कों पर जाना निश्चित माना जा रहा है जिससे बाजी अन्ततः देश के मतदाताओं के हाथ में ही रहेगी। वैसे भी लोकतन्त्र की असली मालिक जनता ही होती है और देश को आजादी दिलाने वाले गांधी बाबा इसी देश के लोगों को यह बात अच्छी तरह सिखा कर गये हैं कि कमजोर से कमजोर नागरिक को भी अपने अधिकार कभी भी किसी अन्य ताकतवर से ताकतवर आदमी के पास गिरवी नहीं रखने चाहिए। उत्तर प्रदेश में दलितों के वोटों की बेताज महारानी कही जाने वाली बहन मायावती का घटता जनाधार इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। बाबा साहेब अम्बेडकर द्वारा दिया गया एक वोट का सबसे बड़ा संवैधानिक अधिकार ही इस देश के आम लोगों की सबसे बड़ी ताकत है। अतः सत्तारूढ़ दल और विपक्ष के पास सीधे एक-एक के आधार पर चुनावी मुकाबला करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा है। विपक्ष की एकजुटता का आने वाले समय में यही सबसे बड़ा पैमाना होगा।

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