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विपक्षी एकता और राष्ट्रपति चुनाव

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लोकतन्त्र की सफलता की एक शर्त मजबूत विपक्ष का होना भी होता है। विविधताओं से भरपूर भारत की बहुदलीय राजनीतिक प्रणाली कभी-कभी विपक्ष के शक्तिशाली प्रदर्शन में अवरोध का काम अन्तर्निहित विरोधाभासी लक्ष्यों की वजह से करती है। चूंकि संसदीय प्रणाली में प्रत्येक राजनीतिक दल का अन्तिम लक्ष्य आधिकाधिक सीटें जीतने का होता है इसलिए बहुदलीय प्रणाली मे यह टकराव बहुआयामी हो जाता है और विजय के मत प्रतिशत को संकुचित कर देता है। किन्तु यह तस्वीर का एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि समूचे विपक्ष के संयुक्त हो जाने के बावजूद विजय की गारंटी इसलिए नहीं होती कि राजनीति कोरा अंकगणित नहीं है। ऐसा हमने 1971 में देखा था जब स्व. इन्दिरा गांधी के विरुद्ध समूचा विपक्ष एकजुट हो गया था मगर जनता ने उसे अपने निर्णय से चारों खाने चित्त कर दिया था। इस हकीकत को बिहार के मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार भलीभांति समझते हैं और जानते हैं कि वर्तमान में केन्द्र की मोदी सरकार देशवासियों के सामने जो राजनीतिक तजबीज रख रही है उसकी काट विपक्ष के एकजुट हो जाने पर भी संभव नहीं है।

यह बेवजह नहीं था कि नीतीश बाबू ने विगत वर्ष 8 नवम्बर को प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी द्वारा नोटबन्दी की घोषणा का स्वागत किया और उस कदम को राष्ट्रहित में बताया। राजनीतिक पंडितों ने इस फैसले को श्री मोदी का व्यक्तिगत निर्णय तक बताने में कोई हिचक नहीं दिखाई थी। इसके बावजूद नीतीश बाबू खुल कर नोटबन्दी के हक में जम कर खड़े रहे। यह भी बेवजह नहीं है कि आगामी जुलाई महीने में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव को देखते हुए सबसे पहले नीतीश बाबू ने ही यह प्रस्ताव रखा कि इस पद पर सर्वसम्मति से चुनाव किया जाना देश के हित में होगा और ताजा परिस्थितियों में वर्तमान राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी का ही पुन: चुनाव करना लोकतन्त्र व राष्ट्रहित में होगा। यदि सत्ताधारी दल ऐसा फैसला करता है तो उनके नाम पर सर्वसम्मति बन सकती है। वस्तुत: नीतीश बाबू ने भारतीय जनता पार्टी के साथ अपने विछोह को भुलाने की पहली सीढ़ी पर पैर रखा है और संकेत दिया है कि उनकी नजर में अन्ध भाजपा विरोध राष्ट्रहित से ऊपर किसी भी मायने में नहीं है। यह भी बेवजह नहीं कहा जा सकता कि जब दिल्ली में कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी ने राष्ट्रपति चुनाव के मुद्दे पर विपक्षी दलों की बैठक बुलाई तो नीतीश बाबू ने इसमें शिरकत करने की जहमत गंवारा नहीं की और अपने स्थान पर अपनी संसदीय पार्टी के नेता शरद यादव को भेज दिया।

इस बैठक में किसी नाम पर चर्चा नहीं हुई और यह कहा गया कि बेहतर हो कि सत्ता और विपक्ष में राष्ट्रपति पद के लिए आम सहमति का माहौल बने। परोक्ष रूप से विपक्षी दलों ने नीतीश कुमार के मत का ही समर्थन किया। दूसरी तरफ प. बंगाल की मुख्यमन्त्री सुश्री ममता बनर्जी ने भी प्रधानमन्त्री से भेंट की और कहा कि राष्ट्रपति पद के लिए सर्वसम्मति बनाने के लिए सत्ता पक्ष को विपक्ष से चर्चा करनी चाहिए। लोकतन्त्र में यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। विरोधी भी एक-दूसरे से बात करते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि राष्ट्रपति पद पर धर्मनिरपेक्ष व संविधान के ज्ञाता किसी व्यक्ति को बिठाया जाना उचित होगा। ममता दी सोनिया गांधी की बैठक में भी उपस्थित रहीं। इस सन्दर्भ में यह समझना बहुत जरूरी है कि राष्ट्रपति का पद राजनीतिक नहीं है हालांकि इसका चुनाव राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के चलते ही होता है। यह पद सामान्य मान्यता के विरुद्ध शोभा का पद भी नहीं है।

इस पर विराजमान व्यक्ति की सबसे बड़ी और पहली जिम्मेदारी संविधान का शासन देखने की होती है। राजनीतिक वाद- विवाद और घात-प्रतिघात के चलने के बावजूद राष्ट्रपति संविधान की अनुपालना देखने के कत्र्तव्य से बन्धे होते हैं इसीलिए उनका कोई राजनीतिक दल नहीं होता। वह भी नहीं जिसके सांसदों और विधायकों के बहुमत के आधार पर वह चुने जाते हैं। अत: ऐसे पद पर यदि सभी राजनीतिक दल सर्वसम्मति से किसी प्रत्याशी का चयन करते हैं तो उससे लोकतन्त्र की ताकत में ही इजाफा होता है। बेशक नीतीश बाबू और ममता बनर्जी का भाजपा से विरोध है और प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी से भी उनका विरोध छिपा हुआ नहीं है मगर इनमें से किसी का भी देश से कोई विरोध नहीं है और राष्ट्रपति इसी देश के प्रथम नागरिक होते हैं। इस प्रथम नागरिक का इकबाल देश के हर राज्य में बुलन्द रहना भारत के एकमेव संघीय ढांचे की शान में चार चांद ही लगाता है। अत: यदि सभी राजनीतिक दल राष्ट्रपति के चयन के मुद्दे पर एक ही मंच पर दिखें तो भारत का माथा दुनिया में और ऊंचा होगा और यह दुनिया का बेमिसाल सबसे बड़ा लोकतन्त्र होगा।

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