लोकतन्त्र की मजबूती की शर्तों में एक बड़ी शर्त यह भी मानी जाती है कि इसमें विपक्ष को भी मजबूत होना चाहिए जिससे इस प्रणाली के तहत गठित हुई जनता की सरकार सर्वदा जनता के प्रति उत्तरदायी रह सके। स्वतन्त्र भारत के इतिहास में ऐसे मौके बहुत कम ही गिनाये जा सकते हैं जब विपक्ष कमजोर रहा हो वरना पहले 1952 के चुनावों से लेकर अब तक विपक्ष केवल 1984 के लोकसभा चुनावों में ही सबसे कमजोर कहा जा सकता है। जब लोकसभा की कुल 545 सीटों में केवल 514 पर ही मतदान हुआ था और कांग्रेस पार्टी को 404 सीटें प्राप्त हुई थीं (असम और पंजाब की सीटों पर तब मतदान नहीं हुआ था) जबकि 1952 में कुल लोकसभा सीटें 498 ही थीं और उनमें से कांग्रेस को 364 सीटें प्राप्त हुई थीं। वर्तमान में लोकसभा में भाजपा की 303 सीटें हैं और शेष अन्य दलों की हैं जिनमें कुछ भाजपा के सहयोगी दलों की भी हैं जिससे कुल आंकड़ा साढे़ तीन सौ के आसपास का बैठता है। अतः यह अवधारणा कि विपक्ष बहुत कमजोर है तर्क संगत नहीं लगता है मगर यह भी हकीकत है कि वर्तमान लोकसभा में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस के मात्र 53 सदस्य ही हैं और शेष सदस्य अन्य सभी विपक्षी दलों के हैं।
2024 के लोकसभा चुनाव आने से पहले इन सभी भाजपा विरोधी दलों को इकट्ठा करने की मुहीम पर आजकल बिहार के मुख्यमन्त्री व जनता दल (यू) के नेता श्री नीतीश कुमार देश भ्रमण पर अपने उपमुख्यमन्त्री व राष्ट्रीय जनता दल के नेता श्री तेजस्वी यादव के साथ निकले हुए हैं। विपक्ष की सबसे बड़ी कमजोरी यह लगती है कि वह आपस में बुरी तरह बंटा हुआ है और अपने-अपने क्षेत्रीय स्वार्थ के अधीन आसक्त है। इसकी वजह यह है कि कांग्रेस को छोड़ कर जितने भी प्रमुख विपक्षी दल हैं वे लगभग सभी क्षेत्रीय दल हैं और अपने-अपने राज्यों में खासे मजबूत माने जाते हैं। हालांकि नीतीश बाबू की पार्टी जनता दल (यू) भी बिहार का ही एक क्षेत्रीय दल है मगर उनका विश्वास है कि मौजूदा सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा का राष्ट्रीय विकल्प देना वर्तमान परिस्थितियों में समय की मांग है । मगर इस विकल्प की जमीन बनाने का काम कांग्रेस के नेता श्री राहुल गांधी ने अपनी चार महीने से अधिक चली ‘भारत-जोड़ो यात्रा’ करके ही किया। इस सत्य को भी सभी विरोधी दलों को स्वीकार करना होगा। राहुल गांधी ने इस यात्रा के दौरान भारत राष्ट्र-राज्य की परिकल्पना का जो विमर्श आम जनता में दिया उसका मूल ‘विविधता में एकता’ का ही था अतः नीतीश बाबू जिस विपक्षी एकता की मुहीम पर निकले हैं उसके लिए राहुल गांधी का विमर्श ही विभिन्न विचारधारा वाले राजनैतिक दलों को एक मंच पर लाने का सूत्र होगा। नीतीश बाबू की सबसे बड़ी कोशिश यह है कि एेसी चुनावी व्यूह रचना की जाये जिससे लोकसभा की अधिसंख्य सीटों पर 2024 में भाजपा के प्रत्याशी के मुकाबले विपक्ष का एक ही साझा प्रत्याशी उतारा जाये जिससे विपक्ष की विभिन्न पार्टियों के प्रत्याशियों के बीच में भाजपा विरोधी मतों का बंटवारा होने से रोका जाये।
चुनावी अंक गणित के हिसाब से यह समीकरण सही लगता है मगर राजनीति केवल अंक गणित ही नहीं होती है बल्कि वह रसायन शास्त्र (कैमिस्ट्री) होती है जिसमें विभिन्न ‘द्रव्य’ मिल कर एक ‘भौतिक आकार’ ग्रहण करते हैं। राष्ट्रीय चुनावों में सबसे बड़ा महत्व उस राजनैतिक एजैंडे का माना जाता है जिसमें मतदाता का राष्ट्रीय सरोकार उसके स्तर पर उतर कर उसे भावना से लेकर एक नागरिक के स्तर तक मिले लोकतान्त्रिक अधिकारों को प्रभावित करता है। समूचा विपक्ष यदि एकजुट होना चाहता है तो उसे सबसे पहले इसी एजैंडे के बारे में सोचना होगा और तय करना होगा कि उसके खड़े किये गये विमर्श की राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्यता क्षेत्रीय हितों को दरकिनार करके किस प्रकार हो सकती है। राजनीति का रसायन शास्त्र यही है जिससे समूचा विपक्ष एक भौतिक आकार में दिखाई पड़ सके। नीतीश बाबू ने कोलकोता में तृणमूल कांग्रेस की सर्वेसर्वा व मुख्यमन्त्री ममता दी से भेंट करने के बाद उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमन्त्री व समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष श्री अखिलेश यादव से भी भेंट की। इन दोनों नेताओं ने ही मुलाकात के बाद एकता पर सहमति व्यक्त की मगर यह सहमति तब तक अधूरी मानी जायेगी जब तक ये दोनों नेता इस बात पर सहमत न हों कि वे अपने-अपने राज्यों में एेसी राजनैतिक परिस्थितियों का निर्माण नहीं करेंगे जिसमें भाजपा प्रत्याशियों को अपनी जीत के लिए उनके द्वारा खड़े किये गये विमर्श पर रक्षात्मक पाले में जाकर न खड़ा होना पड़े।
जहां तक ममता दी के प. बंगाल का सवाल है तो अपने राज्य में जनसंघ के संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बाद भाजपा को पैर जमाने देने के लिए वही जिम्मेदार हैं। यह काम वह 1999 के लोकसभा चुनावों के बाद से ही करती आ रही हैं। वहीं दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश में माननीय अखिलेश यादव के पिता स्व. मुलायम सिंह यादव के जमाने से ही 1989 के बाद से राज्य में भाजपा व समाजवादी पार्टी के बीच हिन्दुत्व व मुस्लिम तुष्टीकरण के नाम पर आमने-सामने की लड़ाई होती आ रही है। बीच में मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने भी दंगल में कूद कर लड़ाई को त्रिकोणात्मक जरूर बनाया मगर अब उनके अस्तित्व पर ही संकट आ गया है परन्तु अब भाजपा के तूफान के समक्ष इन सभी पार्टियों को अपने अस्तित्व पर ही संकट आता दिखाई दे रहा है। इसकी वजह भाजपा की वह चतुर रणनीति है जिसने विभिन्न राजनैतिक दलों के जनाधार को अपने विमर्श से भीतर तक प्रभावित कर डाला है। अतः नीतीश बाबू का काम बिल्कुल वैसा ही हो सकता है जैसा कि 1974 में स्व. जय प्रकाश नारायण का था जब उन्होंने कांग्रेस की इन्दिरा गांधी सरकार के खिलाफ चौधरी चरण सिंह से लेकर मार्क्सवादी पार्टी और जनसंघ को एक मंच पर लाकर खड़ा कर दिया था।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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