लोकतन्त्र में विपक्ष का माइक

लोकतन्त्र में विपक्ष का माइक
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संसद में जब कोई भी सांसद बोलने के लिए खड़ा होता है तो संविधान के अनुच्छेद 105 के तहत उसे अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार मिला होता है और उसका माइक यदि बन्द किया जाता है तो यह सीधे उसका उल्लंघन होता है। यह मेरा कहना नहीं है बल्कि संविधान के विशेषज्ञ और प्रख्यात विधि वेत्ता श्री कपिल सिब्बल का कहना है। यदि संसद के भीतर विपक्ष के नेता का माइक बन्द किया जाता है तो इसका सीधा मतलब यह भी निकलता है कि सरकार उसे बोलने देना नहीं चाहती। परन्तु संसद के दोनों सदनों को चलाने की जिम्मेदारी इनके अध्यक्षों या सभापति की होती है और उन्हें यह अधिकार होता है कि वे किसी सांसद को कितना बोलने की आजादी देते हैं। लोकसभा में अध्यक्ष सदन के संरक्षक होते हैं। उन्हीं के निर्देशों पर पूरा सदन चलता है। अतः स्वाभाविक है कि जब किसी सांसद का माइक बन्द किया जाता है तो इसके पीछे उनकी अनुमति होनी जरूरी होती है। उनकी अनुमति के बिना सदन में पत्ता तक नहीं हिल सकता। इस सिलसिले में भारत की पहली चुनी हुई लोकसभा में ही बहुत स्पष्ट कर दिया गया था कि सदन चलाते हुए ऐसी स्वस्थ परम्पराएं स्थापित की जाएं जो आने वाली पीढि़यों के लिए प्रेरणा का काम करें।

इस सिलसिले में मैं भाजपा के ही संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के उद्गार उद्धरित कर रहा हूं जो उन्होंने 1952 में पहली लोकसभा के गठन के बाद इसके अध्यक्ष श्री जी.वी. मावलंकर के चुने जाने पर प्रकट किये थे। संयोग से श्री मावलंकर का चयन भी सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी व विपक्षी पार्टियों के प्रत्याशियों के बीच मतदान के बाद हुआ था। तब डा. मुखर्जी ने जो शब्द कहे थे, उन्हें सुनिये ''मुझे तनिक भी सन्देह नहीं है कि आपके हाथ में माननीय सदस्यों के अधिकार सुरक्षित रहेंगे। हम सामान्यतः ब्रिटिश लोकसभा की प्रथाओं व परंपराओं का ही अनुसरण करते रहेंगे, किन्तु ऐसी परिस्थितियों के उत्पन्न होने की संभावना बनी रहेगी जब हमें उन परंपराओं में परिवर्तन करके अपनी स्वयं की प्रथाएं स्थापित करने की जरूरत पड़ेगी क्योंकि हमारा परम लक्ष्य जन साधारण का कल्याण और देश की प्रगति है। परंपराओं तथा प्रथाओं की स्थापना और उनका पालन करना हम सबका कर्त्तव्य होना चाहिए, चाहे हम सरकारी पक्ष में हों अथवा विपक्ष में। सरकारी पक्ष के पास सदन में भारी बहुमत है। ऐसी स्थिति में श्रीमान आप इस बात की ओर ध्यान देंगे कि सरकार और विरोधी, दोनों पक्षों द्वारा परंपराओं तथा प्रथाओं का पालन किया जाये। लोकतन्त्र के विकास के लिए यह आवश्यक है। ऐसा कठिन कार्य में, श्रीमान यह आपका काम है कि आप सदन की कार्यवाही को ठीक ढंग से चलायें। हो सकता है कि कुछ मामलों में हमारे मतभेद हों किन्तु हमें अपने विचार सदन के सामने रखने का तथा सरकार की मनमानी कार्रवाइयों को। किसी हद तक रोकने का मौका मिलेगा। श्रीमान मैं विरोधी दल के सदस्यों की ओर से आपको यकीन दिलाता हूं कि सदन की शान तथा इसके अधिकारों के लिए उचित परंपराएं तथा प्रथाएं स्थापित करने के आपके प्रयत्नों में वे सदैव आपका साथ देते रहेगें''।

मूल सवाल यह है कि संसद की कार्यवाही को लेकर हम कहां से कहां पहुंच रहे हैं? लोकसभा में जहां कल नीट के मुद्दे पर अपनी बात कहते हुए श्री राहुल गांधी का माइक बन्द किया गया वहीं राज्य सभा में भी विपक्ष के नेता श्री मल्लिकार्जुन खड़गे के साथ भी एेसा व्यवहार किया गया। लोकतन्त्र में यह कतई भी उचित नहीं कहा जा सकता। सांसदों को जो विशेषाधिकार मिले होते हैं उनमें अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार सबसे ऊपर होता है क्योंकि सदन के भीतर कोई भी संसद सदस्य अपनी बात बिना किसी खौफ-ओ-खतर के कह सकता है और उसे पूर्ण सुरक्षा मिली होती है। सदन में कही गई किसी भी बात के लिए उस पर दुनिया की किसी भी अदालत में मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। इसका सारा दारोमदार सदन के अध्यक्ष पर होता है। केवल सदन के अध्यक्ष ही उसकी कही गई बातों का संज्ञान लेकर आवश्यक कार्रवाई करने के हकदार होते हैं। यही वजह रही कि जब पिछली लोकसभा में भाजपा के सांसद रमेश बिधूड़ी ने बसपा के एक मुस्लिम सांसद के साथ गाली-गलौज की थी तो उसका संज्ञान संसद से बाहर की किसी संस्था ने नहीं लिया था। परन्तु हमें संसद चलाने के लिए उच्च परंपराओं की स्थापना करनी होती है जिसमें विपक्ष की आवाज मुख्य स्थान रखती है।

लोकतन्त्र आपसी संवाद व सहकार से चलता है। संसद पर पहला अधिकार भी विपक्षी सांसदों का ही होता है क्योंकि वे भी उसी जनता द्वारा चुने गये होते हैं जो जनता सरकारी पक्ष को चुन कर भेजती है। अतः संसद पहुंचने पर वे क्या करते हैं और उनका व्यवहार कैसा रहता है, यह जानने और देखने का जनता को पूरा अधिकार रहता है। डा. मनमोहन सिंह की पहली सरकार के दौरान जब तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष श्री सोमनाथ चटर्जी ने लोकसभा टीवी शुरू कराया था तो उसका उद्देश्य यही था कि जनता टीवी पर सीधे प्रत्यक्ष रूप में देखे कि उनके प्रतिनिधि संसद में पहुंच कर क्या करते हैं। परन्तु अब संसद टीवी जिस प्रकार से लोकसभा व राज्यसभा की कार्यवाही दिखाता है, वह शोचनीय है। बेशक विपक्ष सांसद हो-हल्ला करें तो भी उन्हें सीधे दिखाया जाना चाहिए और जनता को यह मालूम होना चाहिए। उनके पक्ष को काट कर टीवी पर दिखाना कौन सी नैतिकता है? संसद की इकतरफा कार्रवाई दिखाकर हम सिर्फ ऐसी मानसिकता का परिचय देते हैं जिसमे आत्म प्रशंसा का भाव होता है जबकि लोकतन्त्र आत्म प्रशंसा से नहीं समालोचना की दरकार करता है। जब संसद में कोई कानून बनता है तो सरकार व विपक्ष के बीच जमकर बहस होती है। दोनों पक्षों को बराबरी के साथ दिखाना संसद टीवी का कर्त्तव्य और नियम होना चाहिए। इस बारे में भी मैं डा. श्याम प्रशाद मुखर्जी के विचार ही उद्घृत करना चाहूंगा।'' इस संसद द्वारा बनाये गये कानूनों को मानना प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है किन्तु यहां कानून इस तरह बनाये जाने चाहिएं जिसमें प्रत्येक दल की हिस्सेदारी और सहयोग हो। यदि बहुमत के बल पर कानून बनाये गये, जिन्हें सामान्य जनता पसन्द नहीं करती, तो उन्हें अवश्य ही भंग किया जायेगा। बेशक कानूनों को हिंसक ढंग से नहीं अहिंसक ढंग से ही भंग किया जायेगा। किन्तु मैं आशा करता हूं कि हम सब अपना कर्त्तव्य ठीक ढंग से निभा सकेंगे। मतभेदों के होते हुए भी हम एेसे निश्चय पर पहुंचेंगे, जिससे जन साधारण लाभान्वित हो।''

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