हमारी दिवाली और लाहौर का जश्ने चरागां

हमारे यहां कमोबेश पूरा सप्ताह देशभर का हर कोना दिवाली की रोशनी में नहाता है। प्रदूषण-नियंत्रण वाले लाख डराएं मगर ज़्यादातर लोग उन्हें गंभीरता से नहीं लेते
हमारी दिवाली और लाहौर का जश्ने चरागां
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हमारे यहां कमोबेश पूरा सप्ताह देशभर का हर कोना दिवाली की रोशनी में नहाता है। प्रदूषण-नियंत्रण वाले लाख डराएं मगर ज़्यादातर लोग उन्हें गंभीरता से नहीं लेते। पड़ोसी देश पाकिस्तान में भी ऐसा ही एक लाहौर ‘जश्ने-चरागां’ के रूप में मनाया जाता है। इसका मुख्य समारोह लाहौर के बाहरी क्षेत्र में बागबानपुरा नामक इलाके में उर्स के रूप में 16वीं सदी के सूफी फकीर शाह हुसैन की दरगाह पर मनाया जाता है।

वर्ष 1958 में एक हादसे के बाद तत्कालीन राष्ट्रपति मार्शल अयूब खान ने इस पर पाबंदी लगा दी थी। सात साल बाद जब पाबंदी हटी तो लाहौर की सड़कों पर हज़ारों लोग शाह हुसैन और उनके हमसफर माधो लाल हुसैन के नाम पर आस्था और अकीदत के तराने गाते हुए उमड़ पड़े थे। ढोल व चिमटों की थापों पर वे गा रहे थे-

‘माधो लाल/ माधो लाल/

हो गए पूरे सत्त साल/

महंगी रोटी, महंगी दाल/

माधो लाल/माधाे लाल/

और तालियां बजाते, ढोल पीटते लोग शाह हुसैन की दरगाह की ओर चल पड़े थे। बागबानपुरा का नाम वहां अब भी कायम है। यह कस्बा लाहौर शहर से वैसे लगभग पांच किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसे बसाने के लिए मियां महमूद यूसुफ नाम के एक शख्स ने शहंशाह शाहजहां से खास तौर पर ज़मीन मांगी थी। इसके एवज़ में उस शख्स ने लाहौर के पास अपने गांव इशाकपुर वाली ज़मीन शहंशाह को दे दी थी, जहां शाहजहां ने शालीमार बाग का निर्माण कराया था।

तीन दिवसीय मेला चरागां इस कस्बे में स्थित शाह हुसैन की दरगाह पर चलता है। मेला 24-25 मार्च के आसपास लगता है। उस दिन वहां पूरी दरगाह लाल गुलाबों की पत्तियों से भर जाती है। कव्वालियां व नातें निरंतर जारी रहती हैं, एक अंतर्राष्ट्रीय मुशायरा भी होता है जिसमें शुरुआत शाह हुसैन के कलाम से होती है। गत वर्ष ‘कहे शाह हुसैन’ के शीर्षक से एक नाटक का भी मंचन हुआ था।

वैसे लाहौर में सबसे बड़ा त्यौहार बसंत पंचमी का है। इसे ‘जश्ने बहारां’ के नाम से मनाया जाता है। उस दिन पतंगबाजी जमकर होती है। हज़ारों की संख्या में विदेशी पर्यटक भी यहां आते हैं। इसी पड़ोसी मुल्क में दीपावली का त्यौहार सबसे ज़्यादा धूम-धड़ाके के साथ सिंध में मनाया जाता है। कराची का श्री स्वामी नारायण मंदिर, हैदराबाद की दरगाह शिव मंदिर, थरपारकर के अलग-अलग शहरों और कस्बों में फैले हुए मंदिर हों या घर सब जगह रोशनी, मौसीकी और आतिशबाजी का सैलाब उमड़ आता है। फुलझड़ियां और अनार छोड़े जाते हैं। लड़कियां मंदिरों और घरों में बहुत मुहब्बत और मेहनत से रंगोली बनाती हैं। इन पर रख कर दीये जलाए जाते हैं। इन दीयों की जगमग उनके रंग-बिरंगे रेशमी और खूबसूरत कपड़ों की शोभा बढ़ा देती है। ‘मीठी’ में हिंदुओं की बड़ी तादाद रहती है। वहां भी दीपावली का जश्न हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सब मिलकर मनाते हैं। रंग-बिरंगी मिठाइयों की थालियां देखने में इतनी दिलकश लगती हैं कि वो लोग भी उनकी तरफ लपकते हैं जिन्हें शूगर और डॉक्टर ने मीठा खाने से मना किया गया हो। लोबान, ऊद अगरबत्तियों और खुशबू और ताज़ा फूलों के हारे-गजरे खूब बिकते हैं। घर के दरवाजों को केले के पत्तों, गेंदे के फूलों से जाया जाता है।

पिछले साल पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री मियां नवाज़ शरीफ ने कराची आकर खास तौर से दिवाली मनाई। सैकड़ों हिंदुओं और सिखों की इस महफिल में उन्होंने दीये जलाए थे और तकरीर करते हुए कहा था कि मैं पाकिस्तान की हर कम्युनिटी का वज़ीरे आज़म हूं। आपके इस रंगी और हसीन त्यौहार में शामिल होकर मुझे बहुत खुशी हो रही है।

दीपावली की तैयारी हिंदुस्तान की तरह लाहौर में भी हफ्तों पहले से शुरू हो जाती है। बाज़ारों में चूड़ियां-बिंदियां, दीये और रंगीन कागजों और धागों से बनी लालटेनें अपनी छब दिखाती हैं। बहनें, घर की औरतों और लड़कियां अपने भाइयों, मंगेतर और दोस्तों के लिए सामान खरीदती हैं। मिट्टी के दीये भी खूब बिकते हैं। इसी तरह रेशमी धागों के कंगन भी लड़कियां और लड़के खूब खरीदते हैं। राम और लक्ष्मी जी के बड़े-बड़े पोस्टर भी बहुत बिकते हैं और घरों में सजाए जाते हैं। लक्ष्मी नारायण मंदिर, सोल्जर बाज़ार का पंचमुखी मंदिर, नारायणवारा मंदिर हर जगह कराची के हिंदुओं, सिखों और उनके मुसलमान दोस्तों का जमाव होगा। भजन गाए जाएंगे और जिन पर बच्चे, बड़े, लड़के-लड़कियां मिलकर नाचेंगे और बड़े बुज़ुर्ग उन्हें देखकर खुश होंगे। दीपावली हो या कोई भी त्यौहार यह दिन खुशी मनाने के लिए होते हैं।

इसी बहाने थोड़ा जि़क्र शाह हुसैन व माधो लाल के बारे में भी ज़रूरी है। 16वीं सदी के पंजाबी सूफी शायर शाह हुसैन को अब भी पूरी अकीकत (श्रद्धा) से याद किया जाता है। शालीमार बाग की बगल में शाह हुसैन की मज़ार है, जहां ‘मेला चरागां’ मनाया जाता है। यह एक दिलचस्प बात है कि शाह हुसैन के साथ उसके दोस्त माधो लाल को भी याद किया जाता है। माधो लाल हिन्दू ब्राह्मण था और शाह हुसैन हालांकि उम्र में बड़े थे, फिर भी उसे अपना ‘यार’ मानते थे। इसी रिश्ते के हवाले से कुछ लोग शाह हुसैन को माधो लाल हुसैन के नाम से भी पुकारते हैं। यह मेला मार्च में आयोजित होता है। उस दिन ढोल बजते हैं और लोग ‘धमाल’ मचाते हैं। धमाल भी एक तरह का नृत्य है। इसमें गज़ब की मस्ती होती है। यह मेला तीन दिन तक चलता है।

जि़या-उल-हक के शासन में भी एक बार इस मेले पर पाबंदी लगा दी गई थी। यह पाबंदी मज़ार पर ढोल बजाने और ‘धमाल’ मचाने पर लगी थी। लगभग सात साल लोग तरसते रहे। जब पाबंदी समाप्त हुई तो हज़ारों की संख्या में तरसे हुए लाहौरी पुरुष और औरतें मज़ार की ओर ढोल-धमाकों के साथ चल पड़े। ढोलों की थाप पर जवान लोग गाते,

माधो लाल! माधो लाल!

महंगी रोटी महंगी दाल

हो गए पूरे सत्त साल

माधो लाल! माधो लाल!

मेला चरागां की खूबसूरती यह है कि इसमें औरतें भी खुलकर हिस्सा लेती हैं। शाह हुसैन के बगल में ही माधो लाल की मज़ार भी है। अब यह बहस बेमानी है कि क्या माधो लाल को दफनाया गया था या चिता जली थी। हकीकत यही है कि दोनों दोस्त जि़न्दगी भर भी साथ रहे और मरने के बाद भी साथ-साथ। मेला चरागां, मेरे सौहार्दपूर्ण चरित्र और फिरकापरस्ती की मुखालफत का एक जीता-जागता सबूत है और मेरे आवाम हर साल यहां आकर इस वैचारिकता पर पूरी अकीकत व जोश के साथ मुहर लगाते हैं।

मेला चरागां के जश्नों में आगे-आगे रहने वाले पंजाबी विद्वान नज़म हुसैन सईद के घर पर हर सप्ताह ‘संगत’ के नाम से एक नशिस्त (गोष्ठी) होती है जिसमें नज़्में पढ़ी जाती हैं, गुरु ग्रंथ साहब के कुछ अंशों पर चर्चा होती है और बाणी में से ही कुछ ‘शबद’ गाए जाते हैं। चर्चा-परिचर्चा के मुख्य केंद्र साईं मियां मीर, शाह हुसैन और गुरु अर्जुन देव रहते हैं। पंजाबियत मेरी रग-रग में है। मेरे हर बाशिंदे में है। सईदा दीप जब हर साल 23 मार्च को अपने दोस्तों के साथ कैंडल मार्च करती हुई शादमान चौक जाती है और वहां पर मेरे इलाके की अनेक नाटक मंडलियां, शहीदों पर आधारित नुक्कड़ नाटकों का मंचन करती हैं तो पंजाबियत कुनमुनाती है। अब भी उस दिन ‘इन्कलाब जि़न्दाबाद’, ‘शहीदे आज़म जि़न्दाबाद’ के नारे शादमान चौक में गूंजते हैं।

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